गौरवान्वित वृक्ष (Kahani)

October 1999

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कड़ाके की ठण्ड पड़ी। पृथ्वी पर रेंगने वाले कीटक उससे सिकुड़कर मरने लगे अन्य प्राणियों के लिए आहार की समस्या उत्पन्न हो गयी। लोग शीतनिवारण के लिए जलावन ढूंढ़ने निकले। सबके शरीर अकड़ रहे थे कष्टनिवारण का उपाय किसी से बन नहीं पड़ रहा था। वृक्ष से यह सब देखा न गया। इन कष्टपीड़ितों की सहायता के लिए उसे कुछ तो करना ही चाहिए। पर करे भी तो क्या उसके पास न बुद्धि थी, न पुरुषार्थ, न धन, न अवसर। फिर भी वह सोचता ही रहा- क्या मेरे पास कुछ भी नहीं है? भला ऐसे कैसे होगा। सर्वथा साधनहीन तो इस सृष्टि में एक कण भी नहीं रचा गया है? गहराई से विचार किया तो लगा कि वह भी साधनहीन नहीं है। पत्र-पल्लव की प्रचुर सम्पदा प्रकृति ने उसे उन्मुक्त हाथों से प्रदान की है। वृक्ष ने संतोष की साँस ली। पुलकन उसके रोम-रोम में दौड़ गई। वृक्ष ने अपने सारे जमीन पर गिरा दिए। रेंगने वालों ने आश्रय पाया, पशुओं को आहार मिला, जलावन को समेटकर मनुष्यों ने आग तापी और जो रहा- बचा सो खाद के गड्ढे में दल दिया।

कुछ समय उपराँत बसंत आया। उसने ठूँठ बनकर खड़े वृक्ष को दुलारा और पुराने पत्तों के स्थान पर नई कोपलों से उसका अंग-प्रत्यंग सजा दिया। यह तो उसके दान का प्रतिदान था। अभी उपहार का अनुदान शेष था, सो भी वसंत ने नए वासंती फूलों से, मधुर फलों से लादकर पूरा कर दिया। वृक्ष गौरवान्वित था और संतुष्ट भी।


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