युगसंधि वेला का यह विशिष्ट नवरात्र

October 1999

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

यों प्रत्येक नवरात्र अपनी तरह से विशिष्ट होते है। सृष्टि बहुत विस्तृत है-असीम और काल भी अनंत है, उसकी अवधि को मापा नहीं जा सकता। सृष्टि के दो कर्ण एक समान नहीं होते। प्रत्येक रचना अनूठी और विलक्षण है। काल या समय का प्रवाह में भी जो बीत रहा है, वह लौट कर नहीं आता। इसलिए प्रतिक्षण सृष्टि नई है और उसकी प्रत्येक अवधि इकाई मुक्त है। उसकी पुनरावृत्ति की कोई सम्भावना नहीं इस अर्थ में आ रहे नवरात्र अपने आप में ही विशिष्ट है। कोई भी अवसर बीत जाता है उसे वापस पकड़ने का उपाय नहीं किया जा सकता। यह नवरात्र भी बीत गए तो इस अवसर के उपयोग की सम्भावना फिर नहीं बनेगी।

सामान्य अर्थों में विशिष्ट होते हुए भी प्रस्तुत नवरात्र युगसंधि महापुरश्चरण साधना वर्ष का है। संधि वेला संपन्न हो रही है। बीसवीं शताब्दी समापन की ओर अग्रसर है-ऐसा कह सकते है। नंदन संवत्सर का यह पर्व ज्योतिष के मन से संज्ञा के रूप में साठ वर्ष के बाद आएगा। वर्ष के मान से संवत्सर सर्जन और अर्जन की तरुण संभावनाओं से संपन्न है। साठ वर्ष के काल चक्र में इस वर्ष को साकार करने वाली अवस्था है। संज्ञा और संवत् की दृष्टि से भी यह वर्ष हममें से प्रत्येक व्यक्ति के जीवन से दोबारा नहीं आएगा। इन दिनों नवरात्र साधना करने वालों में कुछ प्रतिशत लोग ही होंगे जो साठ साल बाद नंदन संवत्सर में फिर साधना कर सकेंगे। किन्हीं के जीवन में वह अवसर आ भी गया तो युगसंधि महापुरश्चरण जैसे अवसर कहा होंगे। साठ वर्ष के बाद की दुनिया सर्वथा भिन्न ही होगी।

नवरात्र की महत्ता संधिपर्व के रूप में प्रायः प्रतिपादित की जाती है-वर्ष में आने वाली विविध ऋतुओं का संधिपर्व। छह ऋतुओं में प्रत्येक का अपना संदर्भ और लक्षण है। दिन और रात में आने वाले छह कालखंड प्रातः- मध्याह्न -साय-रात्रि, निशीथ और ब्रह्मबेला की तरह ऋतुचक्र को भी छह खंडों में बाटा जा सकता है। वस्तुतः दिन और रात्रि की तरह ऋतुचक्र का मूल विभाग गर्मी और सर्दी के दो रूपों में ही किया जा सकता है। आतप और शीत में ये दो ही प्रधान ऋतुयें है। शेष चार ऋतुयें इन्हीं के अनुपात के विविध स्तर है। मौसम के हिसाब से भी सर्दी और गर्मी दो ही मुख्य है। वर्षा में दोनों का असर होता है। आषाढ़-श्रावण गर्मी का प्रभाव लिए रहते है, तो भाद्रपद और आश्विन में हवाएं ठंडक लिए रहती है।

दिवस और रात्रि के संधिकाल को प्रातः और साय कहते है। इसी तरह गर्मी और शीत ऋतु के संधिकाल को नवरात्र कहते है। वर्ष की इन संधिवेलाओं का वर्णन विविध रूपों में किया जाता है। इन दिनों प्रकृति में होने वाले परिवर्तनों की बात कई बार कही-लिखा जा चुकी है। उसे फिर से कहना एक औपचारिक पूरी करना होगा। प्रस्तुत अश्विन नवरात्र के संदर्भ में यह नया तथ्य है की युगसंधि महापुरश्चरण का यह विशिष्ट अवसर है। नए युग के आगमन-अवतरण के लिए की जा रही सामूहिक साधनाओं में भागीदारी का वैसा अवसर दोबारा नहीं मिलेगा। जो लोग अभी तक नवरात्र साधना नहीं कर पाए, उनके लिए भी प्रस्तुत अवसर पूर्णाहुति में शामिल होकर पुरे यज्ञकर्म में शामिल होने का अधिकार बनने का अवसर है।

प्रकृति में होने वाले बाहरी परिवर्तन अपने आसपास के दृश्यमान जगत में स्पष्ट दिखाई देते है उन्हें खुली आँखों से बिना किसी के बताये भी देखा जा सकता है।

सूक्ष्म परिवर्तनों के सम्बन्ध में हर किसी को यह अनुभव होना चाहिए कि सृष्टा ने शुभ और पावन सम्भावना वाले युग का आधार पूरी तरह रच दिया है। प्रस्तुत अवसर उस अधर या निर्माण के समापन कि घड़ी है इस घड़ी में अपनी भावसंवेदना और श्रद्धा-निष्ठा के साठ जो भी महाकाल कि अगवानी के लिए खड़ा दिखाई देगा, वह निर्माणयज्ञ में वर्षों से लगे साधकों के समान ही पुण्यभागी होगा। सूक्ष्म परिवर्तनों को लिखने-बताने कि बजाय अनुभव ही किया जाना चाहिए। ब्रह्मजगत में उसे देखना ही हो तो नमूने के रूप में दो प्रमुख प्रवाहों के रूप में बताया जा सकता है। एक प्रवाह सीमा पर दो महीने तक लादे गए प्रकट-अप्रकट युद्ध में हुई विजय के रूप में है। जिन दिनों यह युद्ध लड़े गया, उन दिनों देश में पूर्ण अधिकार संपन्न सरकार नहीं थी। लोकसभा भंग हो चुकी थी और जो सरकार चल रही थी, वह काम चलाओ थी। नीतिगत फैसले और बड़े निर्णय लेने के लिए प्रतिबंधित।

सरकार के नेतृत्व में देश कि कूटनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में सफलता चतज कि वह सफलता यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि देश का मनोबल ऊँचा था नेतृत्व ने सिर्फ प्रतीकात्मक अगवानी कि संचालन तो देश कि प्राणऊर्जा ही कर रही थी।

सूक्ष्म प्रकृति में आये परिवर्तनों का प्रभाव एक और स्थूल रूप में दिखाई देता है। इन दिनों भारत में नहीं बाहर के देशों में भी आध्यात्मिक प्रगतियों के प्रति रुझान बढ़ा है। साधना-उपासना के कार्यक्रमों में लोग जिस तरह उत्साह से भाग लेते है, उसकी तुलना दस- पाँच साल पूर्व होने वाले श्राँक-पाँपश् म्यूजिक कार्यक्रमों से कि जा सकती है। कथा-कीर्तन-सत्संग-प्रवचन से लेकर मंदिर या धर्मसंस्थान के छोटे-मोटे आयोजन भी लगो को प्रबल रूप में आकर्षित कर लेते है। अनुमान जो भी लगाये,उनके पीछे सूक्ष्म जगत में आये उभार ही मूल कारण दिखाई देते है। प्रतीत होता है कि महाकाल ने युग- चेतना को मथ-सा दिया है और उसमें अध्यात्म कि भूख जाग्रत हुई है। अभीप्सा का अमृत निकल रहा है।

और भी कई प्रकट लक्षण तलाशे जा सकते है कि सूक्ष्म जगत में नवयुग अवतरण कि सम्भावना पूर्णतया बन चुकी है। वह प्रकट होने के दौर से गुजर रही है। नवरात्र जैसे संधिकाल में साधना-उपासना कि कुछ आहुतियाँ अपनी ओर से भी दी जा जानी चाहिए।

सामान्य विशिष्ट अर्थों में नवरात्र को संधिकाल कि तरह निरूपित किया ही गया है, प्रकृति में इन दिनों जो बाह्य परिवर्तन होते है, वे वृक्ष-वनस्पतियों में, नदी-तालाबों में और गिरी-कंदराओं में नये उभार के रूप में परिलक्षित हॉट है, प्रकृति परिवार के इन रूपों में ही नहीं जीव-जंतुओं में भी इन्हीं दिनों सर्जन, परिवर्तन और परिधान कि नई स्फुरणाएं जाग्रत होती है। वृक्ष- वनस्पतियों में नई कोपलें, उनके स्वरूप में आता बदलाव, नदी-तालाबों के प्रवाह में नई गति और गिरिकंदराओं कि स्थिति में आये परिवर्तन उस उभार का प्रतीक है, जो सर्जन कि प्रेरणा से उमगता है, उस सुखी धरती में इन दिनों स्नान और प्रक्षालन से आई ताजगी जैसा अभिराम वातावरण दीखता है। जीव जगत में भी इन दिनों सर्जन कि स्फुरणा विशेष रूप से जागती है। वह नीड़ और बसेरे के निर्माण से लेकर बिल बनाने,ठौर ढूंढ़ने और साथी चुनने के विविध रूपों में दिखती है। मनुष्यों के सम्बन्ध में भी इन दिनों कला, साहित्य, संस्कृत जैसे ललित विषयों में विशेष रुचि जागती देखी गयी है। कुछ अध्ययनों में यह निष्कर्ष भी निकल के आया है कि चित्त में इन दिनों सामान्य दिनों कि तुलना में कामभाव विशेष रूप स जागता है। मिस्टिक इंडिया श् नामक संस्था से जुड़े फ्रांस के डॉक्टर सेनिता ने विचित्र निष्कर्ष दिए है। उनके अनुसार मानवीजगत में आने वाले नए सदस्यों में पच्चीस प्रतिशत दिसंबर और जून के महीनों में जन्म लेते है। इन दो महीनों में एक-चौथाई बच्चे संसार में आते है, बाकी तीन-चौथाई शेष दस महीनों में आते है। डॉक्टर सेनिता के निष्कर्ष का अर्थ है कि चैत्र और अश्विन के महीनों में मनुष्य के भीतर वंश वृद्धि के भाव विशेष रूप से आते है। कामभाव का यह उभार संयम और सर्जन कि दिशा में मुड़ सके, तो वह विश्ववसुँधरा कि शोभा-सुषमा बदलने वाला ही सिद्ध होगा। भारतीय मनीषियों ने काम कि उर्ध्व और अधोगति को ध्यान में रख कर ही नवरात्र के समय संयम-नियम से रहने, साधना-उपासना में व्यतीत करने का विधान किया। ये उपविचार काम को उर्ध्वदिशा में ले जाते है। शास्त्रों ने नवरात्र कि वेला को शक्ति-साधना का अवसर कहा है। सर्जन शब्द बहुत कम आया है। सर्जन वस्तुतः परिणति है, उससे पहले ध्वंस आता है दोनों का मेल-परिवर्तन प्रक्रिया को सम्पूर्ण बनाता है। प्रक्रिया जिस प्रवाह से संपन्न होती है, उसका नाम शक्ति है। वह हो तो यथा अवसर उपयोग भी हो जाता है। नहीं हो तो न कोई उपाय करते बनता है।और न ही व्यवस्था सधती ही। शक्ति का अर्जन आगे आने वाली आवश्यकताएं पूरी करने के लिए ही होता है। नवरात्र में जिस शक्ति कि आराधना कि जाती है, वह परपावन आध्यात्मिक ही होती है। सप्तशती, रामायण, भागवत, देवीपुराण जैसे विविध अनुष्ठान अपने इष्ट और भाव के अनुसार ही संपन्न किये जाते है। गायत्री परिवार के परिजन और उपासक इन दिनों पुरश्चरण साधना के रूप में अर्जन तप करते है। वह प्रक्रिया उत्साहपूर्वक चलनी चाहिए।

सामान्य विशिष्ट अर्थों में नवरात्र को संधिकाल कि तरह निरूपित किया ही गया है, प्रकृति में इन दिनों जो बाह्य परिवर्तन होते है, वे वृक्ष-वनस्पतियों में, नदी-तालाबों में और गिरी-कंदराओं में नये उभार के रूप में परिलक्षित हॉट है, प्रकृति परिवार के इन रूपों में ही नहीं जीव-जंतुओं में भी इन्हीं दिनों सर्जन, परिवर्तन और परिधान कि नई स्फुरणाएं जाग्रत होती है। वृक्ष- वनस्पतियों में नई कोपलें, उनके स्वरूप में आता बदलाव, नदी-तालाबों के प्रवाह में नई गति और गिरिकंदराओं कि स्तीथी में आये परिवर्तन उस उभार का प्रतीक है, जो सर्जन कि प्रेरणा से उमगता है, उस सुखी धरती में इन दिनों स्नान और प्रक्षालन से आई ताजगी जैसा अभिराम वातावरण दीखता है। जीव जगत में भी इन दिनों सर्जन कि स्फुरणा विशेष रूप से जागती है। वह नीड़ और बसेरे के निर्माण से लेकर बिल बनाने,ठौर ढूंढ़ने और साथी चुनने के विविध रूपों में दिखती है। मनुष्यों के सम्बन्ध में भी इन दिनों कला, साहित्य, संस्कृत जैसे ललित विषयों में विशेष रुचि जागती देखी गयी है। कुछ अध्ययनों में यह निष्कर्ष भी निकल के आया है कि चित्त में इन दिनों सामान्य दिनों कि तुलना में कामभाव विशेष रूप स जागता है। मिस्टिक इंडिया श् नामक संस्था से जुड़े फ़्राँस के डॉक्टर सेनिता ने विचित्र निष्कर्ष दिए है। उनके अनुसार मानवीजगत में आने वाले नए सदस्यों में पच्चीस प्रतिशत दिसंबर और जून के महीनों में जन्म लेते है। इन दो महीनों में एक-चौथाई बच्चे संसार में आते है, बाकी तीन-चौथाई शेष दस महीनों में आते है। डॉक्टर सेनिता के निष्कर्ष का अर्थ है कि चैत्र और अश्विन के महीनों में मनुष्य के भीतर वंश वृधि के भाव विशेष रूप से आते है। कामभाव का यह उभार संयम और सर्जन कि दिशा में मुड सके, तो वह विश्ववसुँधरा कि शोभा-सुषमा बदलने वाला ही सिद्ध होगा। भारतीय मनीषियों ने काम कि उ ध्व और श्अधोगति को ध्यान में रख कर ही नवरात्र के समय संयम-नियम से रहने, साधना-उपासना में व्यतीत करने का विधान किया। ये उपविचार काम को उर्ध्वदिशा में ले जाते है। शास्त्रों ने नवरात्र कि वेला को शक्ति-साधना का अवसर कहा है। सर्जन शब्द बहुत कम आया है। सर्जन वस्तुतः परिणति है, उससे पहले ध्वंस आता है दोनों का मेल-परिवर्तन प्रक्रिया को सम्पूर्ण बनाता है। प्रक्रिया जिस प्रवाह से संपन्न होती है, उसका नाम शक्ति है। वह हो तो यथा अवसर उपयोग भी हो जाता है। नहीं हो तो न कोई उपाय करते बनता है।और न ही व्यवस्था सधती ही। शक्ति का अर्जन आगे आने वाली आवश्यकताएं पूरी करने के लिए ही होता है। नवरात्र में जिस शक्ति कि आराधना कि जाती है, वह परपावन आध्यात्मिक ही होती है। सप्तशती, रामायण, भागवत, देवीपुराण जैसे विविध अनुष्ठान अपने इष्ट और भाव के अनुसार ही संपन्न किये जाते है। गायत्री परिवार के परिजन और उपासक इन दिनों पुरश्चरण साधना के रूप में अर्जन तप करते है। वह प्रक्रिया उत्साहपूर्वक चलनी चाहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles