संस्कृति मानवता का मेरुदण्ड है। यह शिष्टता, सौजन्यता तथा झील की आधारशिला है। संस्कृति ने क्रमशः विकसित होकर सुसंस्कृत व्यक्तित्व से समुन्नत समाज को अपना लक्ष्य बनाया है। अपना अतीत संस्कृति की इसी भावधारा से आप्लावित था। सभ्यता इसका बादाम एवं परिवर्द्धित रूप है। बीतते समय के साथ अनेक कारणों से इसमें विकृति आने लगी। परिणामतः आज की अपसंस्कृति का जन्म हुआ। इसके दंश से समूचा देश व समाज ही नहीं सारी मानव जाति त्रस्त हो चली है। भारत की तो आत्मा ही साँस्कृतिक मूल्यों के पतन से मूर्च्छित हो गई लगती है।
हो भी क्यों नहीं, भारत की आत्मा भारतीय संस्कृति में ही तो निहित हैं यहाँ के महर्षियों ने सभ्यता के अरुणोदय काल में ही मानवमात्र के पथप्रदर्शन एवं जीवनपद्धति के निर्धारण के लिए संस्कृति का दिग्दर्शन कराया था। तभी तो भारतीय सभ्यता विश्व की प्राचीनतम सभ्यता है तथा यहाँ की संस्कृति श्रेष्ठतम। जहाँ पाश्चात्य संस्कृति भौतिकवाद की ओर उन्मुख है, वही भारतीय संस्कृति अध्यात्मवाद पर आधारित है। इसीलिए महर्षि अरविन्द ने कहा था, “आध्यात्मिकता भारतीय मस्तिष्क को समझने की कुँजी है।” जब समस्त विश्व गहन अंधकार में डूबा था, तब भारत अपने ज्ञान का आलोक फैला था। संभवतः इसी वजह से मिश्र, सुमेर, बेबीलोन, यूनान, रोम आदि सभ्यताओं के अवसात के बावजूद भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता ने अपना अस्तित्व बनाए रखा है।
‘संस्कृति के चार अध्याय’ नामक अपने सुविख्यात ग्रंथ में रामधारी सिंह दिनकर ने माना है कि भारतीय संस्कृति की प्रचण्डतम शक्ति इसकी उदारता एवं भावप्रवणता है। इसीलिए इस महासमुद्र में सभी जातियाँ विलीन हो गई। इस संस्कृतियों को अपने आत्मसात् करके अपनी शक्ति और क्षमता अर्जित की है। राष्ट्रमनीषी दिनकर का मानना है-सभ्यता एवं संस्कृति परस्पर घनिष्ठ रूप से संबंधित होती है। सभ्यता शरीर है, तो संस्कृति आत्मा। दोनों का समन्वय एवं सामंजस्य ही किसी समाज या राष्ट्र को विकसित कर सकता है। सुविख्यात दार्शनिक सी. ई. एम. जोड़ का कथन है कि सभ्यता बाहरी एवं संस्कृति आँतरिक विकास को दर्शाती है। सभ्यता मानवजीवन के विकास का तो संस्कृति उसके गुणों का परिचय कराती है। इसे और अधिक स्पष्ट किया जाए, तो यही कहना होगा, संस्कृति अभ्यंतर है, सभ्यता बाह्य है संस्कृति का संबंध निश्चय ही धार्मिक विश्वास से है। सभ्यता सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों से बँधी हुई है।
प्रत्येक संस्कृति एक सभ्यता होती है। जब संस्कृति के मुख्यतत्त्व समाज द्वारा अनुमोदित परंपराओं में परिवर्तित हो जाते है, तब वे उस देश की समस्या के अंग हो जाते है। सभ्यता का संबंध मनुष्य के आचार से है, तो संस्कृति का उसके विचारों से। संस्कृति का प्रयोगात्मक पक्ष ही सभ्यता है। यही साँस्कृतिक मान्यताओं को आगे बढ़ाती एवं क्रियान्वित करती हैं मैकाइवर का मत है कि सभ्यता सभ्यता का संबंध उपयोगिता के क्षेत्र से है, जबकि संस्कृति का मूल्यों के क्षेत्र से है, जबकि संस्कृति का अधिक विकसित एवं जटिल रूप है। फ्राँज बोमस, जागबर्न तथा निमकाफ का भी यही मानना है कि सभ्यता संस्कृति की एक अवस्था है।
इन दोनों का विकास भी साथ-साथ होता है। किसी संस्कृति का सभ्यता में रूपांतरण दीर्घ एवं लम्बी कालावधि में होता है। अतएव यही यही मानना होगा कि सभ्यता की अपेक्षा संस्कृति अधिक प्राचीन एवं सुदृढ़ होती है। भारतीय संस्कृति की नींव में यहाँ के ऋषियों का अनन्त तप एवं त्याग की भावना सन्निहित है। इसका आधार बहुत ही सुदृढ़ एवं नींव बहुत ही गहरी है। इसने विकास के अगणित आयामों को पार किया है, इसे इसका अनुभव हैं सदियों से बहती जीवन की इस निर्बाध चेतना-धारा में मानवता ओत-प्रोत है। यह सुनिश्चित सत्य है कि हमारी संस्कृति मानवकेन्द्रित और अगणित जीवनमूल्यों का पुँज हैं यही मूल्यवाँदिता इसकी विशिष्टता एवं विशेषता है। तभी तो रामधारी सिंह दिनकर को कहना पड़ा संस्कृति सुख नहीं सदाचार है, संस्कृति विजय नहीं मैत्री है, संस्कृति का परम रूप समस्त प्राणियों को आप्लावित करने वाला प्रेम है। विरोधी के मन को कलेश देना इसकी महत्ता है।
पश्चिमी दुनिया की याँत्रिकता और भोगवाद के विपरीत भारतीय संस्कृति के केंद्र में मानव है। यह मानव कोई जैविक इकाई या आर्थिक घटक के रूप में नहीं, बल्कि आदर्शों का प्रकाश पुँज है। संस्कृति की विचारधारा सर्वप्रथम मानव के ही अंतःकरण में अवतरित होती है। यह वह दृष्टिकोण है, जिससे कोई समुदाय जीवन की समस्याओं पर दृष्टिनिक्षेप करता है, तत्पश्चात् ही समाज की परिकल्पना आती है। यह उसके साँस्कृतिकमूल्यों पर आधारित होता है। यह समाज को जाति-वर्ग में काटती-बाँटती नहीं, बल्कि बिना किसी भेदभाव के सभी को अपनी संवेदना से सींचती है। यह विचारपद्धतियों की जन्मदात्री है और समाज की दिशाधारा, संरचना व विकास की आधारशिला है। अतीत में अपना भारतीय समाज इन्हीं मूल्यों एवं गुणों से ओत-प्रोत था, तभी इसे देवसमाज की संज्ञा दी गई थी। इसी देवसमाज में ही देवमानवों का निर्माण हुआ।
देवसंस्कृति ने एक होते हुए भी अनेक रूपों में अपनी अभिव्यक्ति दी है। अपने देश में बहुभाषी परिवेश है। उनसे जुड़ी अनेकों मान्यताएँ है। असंख्य जीवनपद्धतियाँ है, परन्तु सबकी आदर्शवादी जीवनमूल्यों में निष्ठा है। सभी यहाँ की साँस्कृतिक संवेदनाओं की वजह से जुड़े है। पारस्परिक विश्वासों एवं व्यवहार को सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और धार्मिक संगठनों से संयुक्त करने के प्रति हमारी आस्था रही है। इन्हीं कारणों से संकुचित की जड़े इतनी गहरी हुई कि उनकी शाखाएँ दूर-दूर तक विस्तार करती चली गई। वे न तो नष्ट होती है और न सूखती है। हालाँकि मनुष्य की सामयिक आवश्यकताएं सभ्यताओं के स्वरूप में फेरबदल करती है। पश्चिमी सभ्यता अर्थ, विज्ञान एवं इनके उपभोग पर टिकी है। परन्तु भारतीय सभ्यता का जब तक अपने साँस्कृतिक मूल्यों पर निष्ठा एवं विकास है, तब तक यह अक्षुण्ण रहेगी।
प्राचीन समय में सभ्यता और संस्कृति का संबंध सुदृढ़ एवं अनुकूल था। संस्कृति की समस्त धाराओं को समुचित सम्मान मिला हुआ था। उनमें पारस्परिक संयोजन था। अतीत लौटता भले ही न हो, पर यह प्रच्छन्न रूप से हमारे वर्तमान प्रभावित करता है। समृद्धिशाली एवं गौरवमय अतीत से वर्तमान की नींव पड़ती है और इसी महनीय वर्तमान में भविष्य की संभावनाएँ निर्भर करती है। हमारा साँस्कृतिक अतीत अवश्य ही पवित्र एवं प्रखर था। परन्तु जब अतीत और वर्तमान के बीच टकराहट पैदा होती है, तो बहुत-सी असद्वृत्तियाँ सक्रिय हो उठती है। इससे उपजी वैचारिक कलुषता साँस्कृतिक पतन का कारण बनती है। इनसानी जिन्दगी एवं सामाजिक परिवेश में अनैतिक तत्त्वों का संयोग और समावेश तीव्र साँस्कृतिक संकट पैदा करता है। आज वर्तमान में यही स्थिति है।
रूसी मनीषी निकोलाय वर्चाएव के अनुसार जब मानवी जीवन भोगपरायण बना जाता है, तब साँस्कृतिक-सृजनशीलता का हास होने लगता है और क्रमशः सभ्यता में भी इसके ये परिणाम नजर आने लगते है। डॉ. नन्द किशोर देवराज ने अपने गं्रथ’संस्कृति का’ में उल्लेख किया है कि मूल्यों के उस तटस्थ एवं सार्वभौमिक अनुसंधान के बिना जिसे हम संस्कृति कहते है, न तो सभ्यता अस्तित्व में आ सकती है और न ही वह अपना अस्तित्व बनाए रख सकती है। वे रूढ़ियां तथा प्रथाएँ, वे कानून व संस्थाएँ जो सभ्य व्यवहार का आधार
महात्मा रामानुज से एक गृहस्थ ने प्रश्न किया-”महात्मन्! क्या कोई ऐसा मार्ग नहीं है कि मुझे यह संसार भी न छोड़ना पड़े और स्वर्ग भी मैं पा सकूँ।” रामानुज हँसे और बोले-”वत्स! स्वर्ग कही और थोड़े ही है। तुम अपने अन्दर झांको व सोए को जगाओ। अपने यथार्थ स्वरूप को पहचानकर मनुष्य जैसा व्यवहार करोगे तो स्वर्गीय आनन्द पाने के सुपात्र बनोगे।” गृहस्थ ने संदेह व्यक्त करते हुए कहा-”पर भगवन्! कहा जाता है कि यह सब तो गृहस्थ को छोड़कर संन्यास लेने पर ही संभव है।” रामानुजाचार्य बोले-”बेटा जिसे आत्मकल्याण की सच्ची लगन होती है, वह गृहस्थाश्रम निबाहते हुए भी, नरपशु-सा नहीं-नरनारायण का जीवन जी सकता है। नारकीय यातनाओं से बचने की इच्छा अभ्युदय ही आत्मजाग्रति है।”
है, उस व्यवहार की जो मनुष्यों के बीच सहयोग एवं बंधुत्व की भावना स्थापित करता है, मूलतः उस सृजन की प्रवृत्ति में उदित होता है। यही मानव संबंधों के अधिक सुन्दर रूपों की परिकल्पना करती है। परन्तु इसमें उत्पन्न व्यतिक्रम सभ्यता के अस्तित्व का प्रश्नचिह्न खड़ा कर देता है। संस्कृति के स्थान पर विकृति पनपने लगती है।
डॉ. देवराज ने साँस्कृतिक पतन के कारणों का उल्लेख करते हुए कहा है-लोभ तथा वासनात्मक दृष्टि और उच्चतर मूल्यों, अनास्था का प्रसार, असंयम व उच्छृंखलता, विवेकहीनता, आन्तरिकता का अभाव, जीवन के विभिन्न लक्ष्यों तथा हितों के अन्वेषण में दिशाहीनता तथा उस धैर्य तथा संकल्पशक्ति की कमी, जिनकी संस्कृति के विभिन्न क्षेत्रों में उच्चस्तरीय उपलब्धियों में अपेक्षा होती है। इस तरह मूल रूप से देखने पर दो कारण मूल रूप से सामने आते है-जीवन के मूल्यों तथा उसकी उच्चतर संभावनाओं में आस्था का अभाव और मानवीय महत्त्वाकाँक्षाओं की-भौतिक तथा क्षणिक चीजों की ओर रुझान। साँस्कृतिक अधःपतन का एक और मूल्यवान कारण है-उच्चवर्ग के लोगों में जनसाधारण के प्रति उपेक्षा।
इस विषमता एवं विकृति ने अभिजात्य संस्कृति एवं लोकसंस्कृति के बीच दरारें पैदा कर दीं। जबकि अपनी शैलियों के अन्तर के बावजूद ये दोनों एक ही साँस्कृतिक भावधारा की अभिव्यक्ति थे, जबकि अलगाव एव अपेक्षा की विकृति ने समाज में विषमता की खाई पैदा कर दी है। गोपीनाथ कविराज ने लोकसंस्कृति का इस तरह उल्लेख प्रकृति की गोद में पलती और पनपती है, जबकि लोकोत्तर संस्कृति आग उगलती चिमनियों, हुँकार करती हुई मशीनों और विद्युत से प्रदीप्त नगरों में निवास करती है। लोकसंस्कृति का साध्य-त्याग होता है, तो लोकोत्तर सांस्कृतिक भोग की उपासक होती है।
आज लोकसंस्कृति की बजाय लोकोत्तर संस्कृति का जहर फैल गया है। सांस्कृतिक विनाश के कारणों में पनपे अंतर्विरोधस्वरूप जातिवाद, क्षेत्रवाद तथा संप्रदायवाद की विकराल स्थिति खड़ी हो गई है। औपनिवेशिक मानसिकता ने जिस भोगवादी संस्कृति को पनपने का अवसर दिया है, इसी मानसिकता ने वैयक्तिक चरित्र और सामाजिक प्रतिष्ठा व राष्ट्र की अस्मिता चकनाचूर करके रख दी है। इस अपसंस्कृति ने युवावर्ग को सबसे अधिक क्षति पहुँचाई है। फलस्वरूप विकास की अंधी चाल, अनियंत्रित याँत्रिक दौड़ एवं अर्थोपार्जन की लोलुप्रवृत्ति पैदा हुई है। इसकी चपेट में कोई एक समाज या राष्ट्र नहीं, बल्कि समूचा विश्व आ चुका है।
अपसंस्कृति की यह समस्या काफी विकराल एवं विध्वंसक है। इसके समाधान के जिए भारतीय संस्कृति ही आशा की एकमात्र की किरण है। क्योंकि इसी में आशा की एकमात्र किरण है। क्योंकि इसी में साँस्कृतिक नव्योत्थान के सारे आधारभूत तत्त्व विद्यमान है, जो परंपराओं तथा आधुनिकता के बीच गत्यात्मक संबंधों के मूल्याँकन को प्रोत्साहित कर सकें। इसमें भाव है, भाषा है, संप्रेषण के सहज माध्यम है। विकृति के उन्मूलन एवं संस्कृति की स्थापित करने का अजस्र प्राण है। याँत्रिक विश्व में शक्ति की होड़, निर्जीविता एवं भोगवादिता के विरोध में हमारी संस्कृति मूल्यवादी एवं सजीव है। यही भौतिकवाद और भोगवाद की दिशा मोड़कर इस यंत्रयुग में मानव को अवमूल्यित होने से बचा सकती है। यहाँ डार्विन के ‘सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ के मत्स्यन्याय के पश्चिमी सिद्धान्त के विपरीत ‘त्येन त्यक्तेन भुँजीथाः’ एवं ‘वसुधैव कुटुँबकम्’ के वैदिक सूत्रों का उद्घोष क्रियान्वयन हुआ है।
भारतीय संस्कृति ने सदा से अपने उन्नयन की प्राथमिकताएँ स्वयं तय की है। इसने आततायियों के आक्रमणों से अपनी रक्षा की है, तो विश्व के अनंत परिवर्तनों का स्वागत भी किया है। हजारों आघातों के बीच इसका अस्तित्व मिटा नहीं है। भारतीय संस्कृति की इसी विशेषता को देखकर सुप्रसिद्ध इतिहासकार डावडेल ने उल्लेख किया है कि यह महान् संस्कृति उस महासमुद्र के समान है, जिसमें अनेक नदियाँ आकर मिल जाती है। एक अन्य विचारक आल्फ्रेड जोजफ का कहना है, मानवजाति की भारतवासियों ने जो सबसे बड़ी चीज वरदान में दी है, वह है यहाँ की साँस्कृतिक विरासत। जो सदा-सदा अनेक जातियों के लोगों और अनेक प्रकार के विचारों के बीच समन्वय स्थापित करने की तैयार हैं विविधताओं-विभिन्नताओं के बीच एकता एवं सामंजस्य कायम करने की दृढ़ इच्छाशक्ति व साहस इसमें सदा से अद्भुत रहा है। निश्चित ही इसे विश्वमानवता के लिए वरदान समझा जा सकता है।
यह महान संस्कृति चिरकाल से विद्यमान है। इसमें निहित अनेक सद्गुणों ने इसे न केवल सुसमृद्ध किया है, वरन् इसको अनंतकाल से अनेक विपत्तियाँ आने पर भी एक सजीव प्राणवान् संस्कृति के रूप में जीवित रखा है। काकाकालेलकर कहते हैं-भारतीय सांस्कृतिक एक जीवंत, चैतन्यमय और वर्द्धमान चेतना है। मानवता का अंतिम कल्याण ही उसका आदर्श हैं भारतवर्ष तो सिर्फ इसका केंद्र है, मध्य बिंदु है, इसका कार्यक्षेत्र तो अखिल विश्व है। यह आज भी उतनी ही सामाजिक व चिरंतन हैं वर्तमान की समस्यासंकुल रहा में यह मानव की मार्ग दिखाने में समर्थ है। समूचे विश्व में इसके सूत्रों को व्यापक रूप से अपनाकर ही मानवीय जीवन को उज्ज्वल भविष्य की राह दिखाई जा सकती है।
एक तालाब में तीन मछलियाँ रहती थी-एक का नाम था ‘यद्भविष्यति’ दूसरी का ‘प्रत्युत्पन्ननमति’, तीसरी का ‘दूरदर्शी’। एक दिन मछुओर आए व बोले-कल यहाँ जाल डालेंगे-काफी मछलियाँ है।’यद्भविष्यति’ ने कहा-यही रहने में भला है। कल ये लोग आएँ यह आवश्यक नहीं। ‘दूरदर्शी’ बोली-भला इसी में है कि आज ही स्थान बदल लिया जाए और वह दूसरी पोखर में चली गई। तीसरी प्रत्युत्पन्नमति बोली-कल जब ये लोग आएँगे तब परिस्थिति के अनुसार निर्णय किया जाएगा। अगले दिन मछुआरे आए। जाल डाला गया। दोनों पकड़ी गई। प्रत्युत्पन्नमति ने मृतवत होने का ढोंग रचा। मृतक समझ मछुआरा ने उसे जाल से निकाल दिया, वह उचककर गहरे पानी में तैरती हुई धारा को पार कर दूसरी ओर चली गई। सद्भविष्यति पकड़ी गई व अपने भाग्य पर अवलंबन पाती बुद्धि पर रोती रही।
इसी प्रकार दूरदर्शी, तुरन्त निर्णय लेने वाले व भविष्य-भारत पर विश्वास कर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने वाले तीन प्रकार के मनुष्य होते है। वे इस तथ्य की पूरी साक्षी देते है कि मनुष्य अपने भाग्य का विधाता आप है।