काम कर गुजरने का दुहरा (Kahani)

May 1992

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लन्दन के प्रसिद्ध कवि बेन जान्सन जीवन भर मितव्ययी रहे। सम्पन्न होने के बाद भी गरीब बने रहे। आवश्यकता भर लेने एवं सामर्थ्य भर कार्य करने के हिमायती थे। मरने के कुछ दिन पहले उन्होंने एक कागज में लिख दिया था कि मेरे मरने पर मुझे सामान्य ढंग से न दफनाया जाय। इसमें जमीन अधिक घिरने से उसकी अधिक कीमत देनी पड़ेगी। अतः मेरे ताबूत को खड़ा हुआ दफनाया जाय, ताकि दफनाने में भूमि ज्यादा न घिरे व खर्च कम आएगा उनके लिये ऐसा ही किया गया।

महामानव मरणोपरान्त भी लोकहित का ध्यान रखते हैं।

बंगाल में उन दिनों के प्रचलन के हिसाब से स्त्रियों के विधवा होते ही सिर के बाल मुँड़ाने पड़ते, चूड़ी, सिंदूर, आभूषण जैसे सुहाग-चिन्ह सदा के लिए त्याग देने पड़ते थे।

श्रीरामकृष्ण परमहंस का मृत्यु-समय निकट आया। परिवार शारदामणि के परिधान बदलने की तैयारी करने लगा। परमहंस जी की चेतना यकायक जगी। कड़क कर बोले मैं कोई मर थोड़े ही रहा हूँ। काम बहुत बाकी है, सो उसे कौन करेगा?

उनने फिर कहा-शरीर बदलना मृत्यु नहीं है। तुम अपने को सदा सुहागिन मानना और जैसे वस्त्राभूषण पहनती थीं, वह पहनना। अन्तर मात्र इतना करना कि मेरे और अपने दोनों के काम कर गुजरने का दुहरा उत्तरदायित्व निबाहना। इतना कहकर उनने आँखें बन्द कर लीं।”

शारदामणि इसके बाद भी तीस वर्ष तक जीवित रहीं। उनने अपने पति के आदेश का अक्षरशः पालन किया।


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