गायत्री मंत्र एक विज्ञान सम्मत गाया जाने वाला मंत्र है। भौतिक सुख-शक्ति की अभिवृद्धि, वातावरण संशोधन एवं सूक्ष्म चेतना को बलवती बनाने के लिए उसका प्रयोग प्राचीनकाल के ऋषियुग में भी होता रहा है। मंत्र को व्यापक बनाने के लिए उसके साथ ताप और प्रकाश को यज्ञ के रूप में जोड़ना पड़ता है, तभी वह अधिक शक्तिशाली और विश्वव्यापी बनता है।
यज्ञ एक बहुमुखी प्रक्रिया है। देखा गया है कि वनौषधियों को वायुभूत करके-हवन करके उसके समीप बैठने से गायत्री मंत्र का मध्यम स्वर से उच्चारण करते हुए यदि यज्ञ किया जाय तो पर्यावरण संशोधन से लेकर शारीरिक व मानसिक रोगनिवारण व स्वास्थ्य संरक्षण तक में उसकी महती भूमिका संपन्न होती देखी जाती है।
जिन्हें कुछ अधिक सार्थक उपलब्धि करनी हो अथवा जो इससे अधिक करने की स्थिति में हैं उनके लिए गायत्री मंत्र के ध्वनि गायन का अवलम्बन लेना चाहिए। जिस प्रकार शाकल्य में प्रयुक्त होने वाली वनौषधियों के अपने-अपने पृथक्-पृथक् गुण हैं, उसी प्रकार गायत्री मंत्र को जिन ध्वनियों में गायन करते हुए आहुतियाँ दी जाती हैं, उनका भी विशेष प्रभाव होता है। मंत्र की विशेषता उसके विशिष्ट रूप से किये गए गायन में है। उनमें शक्ति इसी आधार पर पैदा होती है। सामगान का समूचा शास्त्र ही इसी आधार पर बना है। मध्यम स्वर में तो किसी मंत्र का जप हो ही सकता है, दैनिक या सार्वजनिक यज्ञ में भी यह यज्ञ स्वर काम दे सकता है। वैज्ञानिक प्रयोजनों के लिये इस प्रकार की स्वर लहरियों का विशेष प्रभाव देखा गया है। संसार भर में संगीत के प्रभाव से फसलें अच्छी फलित करने, अण्डे देने वाले पक्षियों, एवं मछलियों को परिपुष्ट बनाने के प्रयोग हुए हैं। इसके अतिरिक्त मानसिक रोगों, स्नायुविक रोगों में भी संगीत विशेष की स्वर लहरियों के विशेष उपयोगी प्रभाव देखे गये हैं। अब संगीत चिकित्सा अपने आप में एक विशिष्ट शास्त्र बनता जा रहा है।
गायत्री महामंत्र की प्रभावशीलता असंदिग्ध है। स्वर विधा के आधार पर भी इसे चमत्कारी माना गया है। इसके आधार पर शारीरिक ही नहीं मानसिक और भावनात्मक क्षेत्र में भी उपयोगी परिवर्तन किये जा सकते हैं। यज्ञाग्नि के साथ मिलकर मंत्र विद्या का प्रभाव असंख्य गुना अधिक हो जाता है। अथर्ववेद 3/1॥1 के अनुसार इससे जहाँ अनेक रोगों से छुटकारा पाया जाता और दीर्घजीवन की उपलब्धि होती है, वहीं समिधाओं तथा औषधियों से परिपूरित यज्ञाग्नि के प्रभाव से उन्मादी और सनकी व्यक्ति भी रोग मुक्त हो जाते हैं। इसी में आगे कहा गया है-यदि क्षितायुर्यंदि परतो यदि मृत्योरन्ति के।” अर्थात् यदि रोगी मृत्यु के समीप तक पहुँच गया हो तो भी यज्ञाग्नि उसे मंत्र शक्ति के सहारे वापस लौटा सकती है। श्रुति कहती है “गयान प्रणान त्रायते सा गायत्री।” जो प्राणों की रक्षा करती है वह गायत्री है।
परीक्षणोंपरांत पाया गया है कि मानसिक रोगों के निवारण के लिए उस प्रयोजन में काम आने वाली वनौषधियों का हवन अधिक लाभदायक सिद्ध होता है। शारीरिक रोगों में मध्यम स्वर से गायत्री मंत्र का उच्चारण करते हुए हवन किया जाता है, किन्तु मानसिक रोगों के लिए सस्वर पाठ करते हुए हवन करना चाहिए। इसके लिए अभ्यास करना पड़ता है। यह एक प्रकार का संगीत है। संगीत का ‘न्यूरो हारमोनों’ पर प्रभाव पड़ता है और उससे मनोविकार दूर होते हैं। अकेले की अपेक्षा सामूहिक रूप से किया गया सस्वर मंत्रोच्चार अधिक प्रभावशाली होता है और प्रतिफल भी जल्दी प्रस्तुत करता है। इस प्रयोजन के लिए पहले से टेप किये हुए सस्वर मंत्रोच्चार के कैसेटों से अभ्यास किया जा सकता है। टेपरिकॉर्डर के साथ स्वर में स्वर मिला कर अपने मनोरोगों के लिए जिस स्वर में गायत्री मंत्र बोलना चाहिए, उसमें बोला जाय। नित्यकर्म प्रयोग में जिस तरह यजनकर्त्ता को अपनी सुविधानुसार सामग्री चयन कर हवन करने का नियम है, उसी तरह शारीरिक-मानसिक रोगों में भी प्रत्येक को अपने लिए उपयुक्त बीज मंत्र तथा सामग्री का चयन कर सस्वर या बिना स्वर के गायत्री महामंत्र का उच्चारण करते हुए हवन करना चाहिए। मंत्रों की आहुतियों की संख्या चौबीस भी हो सकती है और ज्यादा भी। यहाँ ध्यान यह रखा जाना चाहिए कि संख्या नहीं, आहुतियाँ नहीं वस्तुतः मंत्रोच्चार करने वाले साधक की तपःपूत वाणी से उच्चारित शब्द लहरियों में प्राण श्रद्धा की सामर्थ्य से ही पैदा किए जाते हैं। जब यह सब होने लगता है तो चमत्कारी परिवर्तन जड़ व चेतन में होता हुआ देखा जा सकता है। गायत्री मंत्र का बीज मंत्र या बिना बीज मंत्र के योग गायन करते हुए कितना विस्फोटकारी है, चह जानने के बाद किसी को संदेह तनिक भी नहीं रह जाता।