सविता की उपासना हर दृष्टि से विज्ञान सम्मत

May 1992

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निरुक्त (2/2/8) में आदित्य का एक नाम ‘भरत’ बताया गया है। इस प्रकार भारत का अर्थ हुआ आदित्य की ज्योति एवं उसकी उपासना करने वाला। इसका दूसरा अर्थ हुआ वह देश जहाँ सविता की उपासना होती हो। इस प्रकार अपने देश का नाम भारत पड़ने का एक यह भी हेतु हो सकता है।

किन्तु यहाँ प्रतिपाद्य विषय न तो नामकरण संबंधी विवाद है और न इससे जुड़ा कोई अन्य प्रश्न वरन् मूल सवाल यह है कि आरंभ में जब अपना देश अध्यात्म सम्पन्न था और सम्पूर्ण विश्व को तत्संबंधी मार्गदर्शन करने का महत्वपूर्ण बीड़ा उठाया और उसे सफलतापूर्वक सम्पन्न कर दिखाया था, तो आज उसकी यह दुर्गति क्यों व कैसे हुई? वर्तमान में इसकी दुरावस्था के कारण इसकी संज्ञा चाहे कुछ भी दी जाय, किन्तु भूतकाल की इसकी आध्यात्मिक सम्पन्नता को देखते हुए इसे विश्व-शिरोमणि की उपमा दे देना कोई अत्युक्ति जैसी बात न होगी। इस संदर्भ में भारत-भारती खण्ड-काव्य में विश्व को इसके अजस्र अनुदान की एक बानगी दृष्टव्य है। मैथिलीशरण गुप्त लिखते हैं-भारत-गगन में उस समय फिर एक वह झंडा उड़ा, जिसके तले आनन्द से आधा जगत आकर जुड़ा।” यह क्रम आगे भी जारी रहा और एक ऐसा समय आया, जब भारत का अध्यात्म यहाँ के क्रान्ति-दूतों द्वारा विश्व के कोने कोने में फैला दिया गया। इसे भारतीय अध्यात्म जगत का मध्ययुगीन स्वर्णकाल कहा जा सकता है। फिर पश्चिमी देशों से पतन की शुरुआत हुई एवं शृंखला की कड़ी की तरह टूटती, बिखरती गौरव-गरिमा भारत भूमि तक आ पहुँची एवं तमिस्रा अमावस-निशा की तरह यहाँ भी गहराने लगी। आज उसी का परिणाम हम विभिन्न रूपों में भुगत रहे हैं किन्तु इतना सबके बावजूद भी यह नहीं कहा जा सकता कि अध्यात्म अपने देश में सर्वथा मर गया। हाँ, इतना अवश्य है कि उसमें समय के साथ-साथ संशोधन न होने के कारण विभिन्न प्रकार की कुरीतियों, मूढ़-मान्यताओं और अन्ध परम्पराओं के घुस पड़ने से उसकी छवि धूमिल और स्वरूप विकृत हुआ है, पर यह कहना एकदम समीचीन न होगा कि अपने यहाँ से अध्यात्म बिल्कुल उठ गया। यहाँ अभी भी प्रज्ञा, निष्ठ और आस्था की त्रिवेणी अक्षुण्ण बनी हुई है, जिसे अध्यात्म का हृदय-स्थल माना जाता है।

यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि आखिर वे कारण क्या हैं, जिससे आध्यात्मिकता हर काल में इस भूमि में न्यूनाधिक बनी रहती है? गहन अध्ययन-अन्वेषण के उपरान्त जिस एक निष्कर्ष पर पहुँचा गया, वह है सविता-देव की कृपा-दृष्टि और भारत-भूमि की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति। इन्हीं दो कारणों से यह भूखण्ड सदा-सर्वदा देव-तत्वों से परिपूरित रहता है। कभी भी सर्वथा इनसे छूँछ नहीं होता। मूर्धन्य मनीषी आचार्य चतुरसेन शास्त्री अपने संस्मरणात्मक ग्रन्थ “यादें” के शोधपूर्ण निबन्ध “ब्रॉडकास्ट” में लिखते हैं कि भारत के पास से होकर गुजरने वाली विशिष्ट भूचुम्बकीय रेखाएँ इसके कुरुक्षेत्र स्थान को बिल्कुल स्पर्श करती हुई गुजरती है जिससे प्राचीनकाल में दिनमान एवं सूर्योदय-सूर्यास्त की सही घटक गणना कुरुक्षेत्र के ही मध्यबिन्दु से होती थी तथा यही उन दिनों समस्त एशिया एवं विश्व का ‘ग्रीनविच’ था।

आर्ष वांग्मय में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि जिस सूर्य को आकाश में हम जलते हुए गोले व स्थूल पिण्ड के रूप में देखते हैं, वह तत्त्वतः वैसा है नहीं। वह चेतना और प्राण का केन्द्र है और समस्त संसार के जड़-चेतन वस्तुओं की उसे आत्मा कहा गया है। वैदिक ऋषि का स्पष्ट उद्घोष है-सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुश्च” (ऋ+तक 1/115/1, यजु 7/42)। यदि सूर्य का अस्तित्व न रहे, तो सारी दुनिया नष्ट हो जाय। आप्तवचन इस बात के भी प्रमाण हैं कि सूर्य में हजारों-हजार प्रकार की रश्मियाँ हैं। इस संदर्भ में उपनिषद् की ऋचा कहती है-सहस्ररश्मिः शतधा वर्तमानः प्राणः प्रजानामुदयत्वेष सूर्यः” प्रश्नोप-/ सूर्य गायत्री भी इसी की पुष्टि यह कहते हुए करती है- “आदित्याय विद्महे सहस्रकिरणाय धीमहि तन्नो सूर्यः प्रचोदयात्”। यह बात और है कि पदार्थ विज्ञान ने अब तक सूर्य के स्थूल सूक्ष्म सिर्फ नव किरणों का ही पता लगा पाया है। “बैनीआहपीनाला” के रूप में सात स्थूल किरणें एवं अल्ट्रा सायलेट (जिसे वेदों में ‘एतश’ अथवा ‘नीलग्रीव’ के नाम से पुकारा गया है) तथा इंफ्रारेड नामक दो सूक्ष्म स्तर की किरणें। यही कुल नव किरणें हैं, जिन्हें हम आज जानते-मानते हैं, किन्तु हमारे प्राचीन विकसित विज्ञान ने सूर्य की सहस्रों सूक्ष्म रश्मियों को ढूँढ़ निकाला था एवं पृथ्वी के पृथक्-पृथक् भूखण्डों पर पड़ने वाले इनके प्रभावों का पदार्थ एवं प्राणियों पर अध्ययन किया था। उसके अनुसार इन सौर शक्ति-किरणों के बाद में दा प्रवाह बन जाते हैं-दिति और अदिति। इनके साथ इनकी नायक शक्तियाँ भी विद्यमान होती हैं (यजु. अ. 25 मं. 23 ॥) अदिति प्रवाह पर मित्र और दिति पर वरुण का साम्राज्य होता है। मित्र प्राणवायु का पोषक और सात्विकता लिए होता है, जबकि वरुण प्राणवायु को नष्ट करने वाला और तामसिकता को धारण किये होता है। इसी कारण से वरुण को यम अथवा विष-प्राण की संज्ञा दी गई है।

उक्त दो प्रवाहों के दो सर्वथा विपरीत गुण के कारण ही दिति-अदिति प्रवाहों को क्रमशः असुर व देवप्रवाह से अभिहित किया गया है (यजु. अ. 8 मं. 61॥)। इस संदर्भ में श्रुति (यजु. अ. 17 मं. 40, यजुः अ. 8 मं. 37) कहती है कि देव प्रवाह से देव-सेना की देव-शक्तियाँ प्रकट होती हैं एवं असुर प्रवाह से तामसिक वृत्ति वाली असुर शक्तियाँ। यह दोनों शक्तियाँ अंतरिक्ष एवं पृथ्वी पर सदा प्रवाहमान होती हैं। आप्त ग्रन्थों के अनुसार दिति अर्थात् असुर प्रवाह आकाश में पूर्व से पश्चिम की ओर बहता है और पश्चिम से पृथ्वी पर आता है। इसी कारण से पश्चिमी देशों में तामसिक वृत्ति की अधिकता पायी जाती है, जबकि देव शक्तियों का अधिष्ठाता अदिति प्रवाह पश्चिम से पूर्व की ओर बहता है एवं पूर्व से पृथ्वी पर अवतरित होता है तथा भूमंडल पर प्राची से प्रतीची की ओर प्रवाहित होता रहता है। पृथ्वी पर जहाँ यह दोनों शक्तियाँ परस्पर मिलती हैं, वहीं से ऊपर की ओर उठ कर अपने-अपने आकाशस्थ प्रवाह में समाहित हो जाती हैं। पूर्वी देशों में इन देव शक्तियों के निरन्तर प्रवाह के कारण ही इनमें सात्विकता और आध्यात्मिकता पश्चिमी देशों की तुलना में अधिक और हर काल में न्यूनाधिक बनी रहती हैं।

आधुनिक अनुसंधान भी इस बात का प्रमाण प्रस्तुत करता है कि सौर मंडल से एक सूक्ष्म प्रवाह अनवरत भारत में कुरुक्षेत्र वाली भूमि के आस-पास से उतरता है और वहाँ से पूरे देश एवं अड़ोस-पड़ोस में फैल जाता है। संभवतः अधुनातन अन्वेषण का यह प्रवाह वही अदिति शक्ति हो, जिसे आर्षग्रन्थों में देव-प्रवाह के नाम से पुकारा गया है।

अब यहाँ एक प्रमुख प्रश्न यह उठ खड़ा होता है कि यदि उपरोक्त बातों में तनिक भी सच्चाई है और देव-शक्ति गुण-धर्म वाला कोई प्रवाह भारत-भूमि पर सूर्य किरणों के साथ उतरता है, तो फिर आज यहाँ के लोगों के चिन्तन, चरित्र व व्यवहार में वह सात्विकता क्यों नहीं दिखाई पड़ती जो पूर्वकाल में यहाँ की प्रधान विशिष्टता रही थी? आधुनिक शोधकर्मी इसके दो प्रधान कारण बताते हैं-प्रथम तो यह कि अब वायुमंडल इतना प्रदूषित हो चुका है और उसमें तरह-तरह के विषैले तत्त्वों व गैसों की इतनी भरमार हो चुकी है कि उस सूक्ष्म देव-प्रवाह के आवागमन में व्यतिरेक उत्पन्न होता है और अब वह उस परिमाण में नहीं आ पाता, जितना प्राचीन समय में इनकी अनुपस्थिति और वायुमंडल की शुद्धता की स्थिति में आता था। द्वितीय, जो इस देव-प्रवाह का उद्गम स्रोत है उसे हम जलता हुआ अग्नि पिण्ड मात्र मान कर उसकी अवमानना एवं उपेक्षा कर रहे हैं, जबकि वास्तविकता इससे सर्वथा विपरीत है, वह चेतना का पिण्ड है और समस्त संसार को जाग्रत-जीवन्त बनाये रखता है। इस संबंध में छान्दोग्य उपनिषद् (3/19/3) का कथन है-आदित्यो ब्रह्मेत्यादेशस्तस्योप व्याख्यानम् सदेवेदमग्र आसीत् “ अर्थात् भूः से द्यु तीनों लोकों को अपनी रश्मियों से जीवन देने साले सूर्य ही सबकी आत्मा हैं।

पूर्ववर्ती युगों में वर्तमान विपत्ति के उपरोक्त दोनों ही कारण अनुपस्थित थे, अस्तु आध्यात्मिकता समस्त भूखण्ड पर विद्यमान थी। भारत में तो फिर भी सूर्य सद्यः देवता के रूप में पूजित है। अतएव वायुमंडलीय प्रदूषण के बावजूद भी सविता देवता की कुछ देव-किरणें आ जाती हैं एवं कुछ हद तक सात्विकता को अब भी अक्षुण्ण बनायी हुई हैं, किन्तु पश्चिमी देशों में जहाँ दिनमान को मात्र आभा और ऊर्जा प्रदान करने वाला स्थूल पिण्ड भर माना जाता है, दिति (असुर) शक्ति-प्रवाह की घनघोर वर्षा से पैशाचिकता में ही अभिवृद्धि हो रही है। सूर्य विज्ञान रहस्य के मर्मज्ञ स्वामी विशुद्धानन्द का भी यही मत है कि यदि किसी क्षेत्र में पापाचार, व्यभिचार, अनाचार जैसे अनैतिक कृत्य पनपते-उभरते हैं, तो इसमें भी सूक्ष्म सूर्य किरणों का हाथ है और यदि किसी भूखण्ड विशेष में दया, ममता, करुणा, उदारता जैसी, सात्विक वृत्तियाँ दिखाई पड़ती हैं, तो इसके लिए भी उस स्तर की सूर्य रश्मियाँ कही जिम्मेदार हैं।

सूर्य वास्तव में देवता है क्या, जिसमें प्रसन्नता-अप्रसन्नता के भाव विद्यमान हों? हिन्दुओं के इस मत की विश्वसनीयता जानने के लिए सन् 1980 में कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी के विज्ञान के एक प्रोफेसर सर ए. के. जार्ज ने एक प्रयोग किया। वे जून की एक दुपहरी में नंगे शरीर पाँच मिनट तक चिलचिलाती धूप में बैठे रहे। तत्पश्चात् कमरे में शरीर का तापमान नापा, तो वह तीन डिग्री ज्वर बता रहा था। दूसरे दिन पूरी श्रद्धा-भावना के साथ सूर्य की पूजा की, धूप-दीप दिखाया, फल-फूल-नैवेद्य चढ़ाये, तदुपरान्त मध्याह्न के समय नंगे बदन ग्यारह मिनट तक सूर्य के समक्ष बैठे रहे। इसके पश्चात् पुनः कमरे में जाकर शरीर का तापमान नापा। उन्हें यह देख कर भारी अचम्भा हुआ कि इस बार सूर्य के सम्मुख अधिक देर तक बने रहने पर भी शरीर का तापक्रम सामान्य था। इससे उनकी यह भ्रान्ति समाप्त हो गई कि हिन्दू संस्कृति में यदि सूर्य को देवता माना गया है, तो इसमें कोई आश्चर्य जैसी बात नहीं है, यह सारा विवरण उनने तथ्यों और वैज्ञानिक प्रमाणों पर आधारित अपनी पुस्तक “सन द् हिन्दूज् डायटी” में प्रकाशित किया है। इस प्रकार अब धीरे-धीरे पश्चिमी लोग भी इस बात को स्वीकारने लगे हैं कि हिन्दू संस्कृति के सूर्य, चन्द्र स्थूल पिंड मात्र नहीं वरन् चैतन्य देव-शक्तियाँ हैं, और उनमें कुंजित होने और खुश होने के भाव विद्यमान हैं। इन्हीं वैज्ञानिक कारणों से प्राचीन समय में सर्वत्र विश्व में सूर्योपासना होती थी, जिसके प्रमाण आज के पुरातत्त्ववेत्ता उत्खनन के दौरान उपलब्ध सूर्य-मन्दिरों और मूर्तियों द्वारा प्रस्तुत कर रहे हैं।

पिछले दिनों कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी, लंदन में सूर्य पर एक व्याख्यान आयोजित किया गया था, जिसमें समस्त विश्व के वैज्ञानिक एवं पुरातत्त्ववेत्ता आमंत्रित थे। इस व्याख्यान में इस बात की पुष्टि हो गई कि पुराने समय में पूरी दुनिया में सूर्य की उपासना होती थी। पुरातत्त्ववेत्ताओं ने अनेक ऐसे साक्ष्य प्रस्तुत किये, जिसने उक्त कथन पर सच्चाई की मुहर लगा दी। इन्हीं में से एक अमेरिका के ग्रीनलैण्ड स्थित वह प्रदेश है, जहाँ कुछ वर्ष पूर्व खुदाई के दौरान सूर्य-प्रतिमा के समक्ष, उसकी फूल-फलों व सुगंधित द्रव्यों से उपासना करते हुए एक उपासक बैठा मिला था। यह सब पत्थरों पर खुदा हुआ था इसके अतिरिक्त संगोष्ठी में कितनी ही ऐसी साक्षियाँ सामने रखी गयीं, जो यह सिद्ध करती थीं कि ईसवी संवत् से छः हजार वर्ष पूर्व से 140 ईसवी तक समस्त संसार में सूर्योपासना होती थी। पर्सियन चर्चों के “मित्रा” ग्रीकों के “हेलियस,” रेड इंडियनों के “एतना” प्राचीन जापानियों के इज्ना-गी मिश्रियों के “रा” तातारियों के “फ्लोरस” पेरु के “फुलेस” चीनियों के “उ.ची.” अफ्रीकियों के “विले” नव सेण्टो ईजमके “एमिनो” “मिनाक” “नाची” आदि देवता प्रकारान्तर से सूर्य के रूप में ही पूजित-उपासित थे। भारत में मथुरा, मुल्तान, कश्मीर, कोणार्क, उज्जयिनी, गया, आदि स्थान सूर्योपासना के मुख्य केन्द्र थे, जिनमें से कुछ जगहों पर अब भी इनके भग्न पूजागृह विद्यमान देखे जा सकते हैं।

एक बार फिर से उस लुप्त परम्परा का पुनरुद्धार भारत से गायत्री और यज्ञ के द्विधा प्रचलन के शुभारंभ के रूप में किया जा रहा है। दोनों के माध्यम से उसी सविता देवता की उपासना द्वारा उसके उन्हीं सूक्ष्म किरणों को आकर्षित-अवशोषित करने का प्रयास किया जाता है जिसने हमें कभी धन धान्यों से परिपूर्ण और नैतिकता के उच्वच मानदण्डों से ओत-प्रोत बनाया था, जिसके कारण हम कभी विश्व का आध्यात्मिक मार्गदर्शन करने में सक्षम हुए थे। गायत्री प्रत्यक्षतः सूर्य की उपासना तो है ही, इसके युग्म यज्ञ द्वारा उसी क्रिया को परोक्ष रूप से सम्पन्न कर हम सविता देव की कृपा दृष्टि के भाजन बनते हैं, किन्तु प्रत्यक्षतः तो वह पर्यावरण परिशोधन का ही प्रमुख उपचार है। इस प्रकार प्राचीनकाल की दोनों क्रियाएँ वातावरण परिशोधन एवं सविता-अभिवन्दन साथ-साथ सम्पन्न होने से एक बार पुनः हम उस खोयी गौरव-गरिमा की पुनः प्राप्ति और विश्व को मार्गदर्शन करने की दिशा में दिव्य वरदान की तरह उभरते और तेजी से अग्रसर होते हुए बढ़ते चले जा रहे हैं। अस्तु अगले दिनों यदि इनके द्वारा भारत विश्व का मुकुटमणि बन जाय तो हमें आश्चर्य नहीं करना चाहिए, वरन् यही माना जाना चाहिए कि यह सब उस विस्मृत सविता-देवता की प्रसन्नता का सुखद सत्परिणाम है।


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