चेतना के अनुसंधान में निरत विज्ञान

May 1992

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सृष्टि का मूल कारण चेतना को माना गया है। जड़ पदार्थ भी अपना स्वरूप व अस्तित्व इसी से प्राप्त करते हैं। पिण्ड में यह जीव चेतना और ब्रह्माण्ड में ब्राह्मी चेतना-परमात्मा चेतना के रूप में क्रियाशील है। वैज्ञानिक तथ्यों से भी स्पष्ट है कि जड़ की उत्पत्ति हुई है।

इस संसार में उत्पत्ति एवं विकास की कोई जड़ प्रक्रिया नहीं है, जैसी कि शून्यवाद मान्यता है। ध्वंस और सृजन विकास और उत्थान और पतन भी इसका स्वभाव नहीं। यदि यह क्रियाएँ देखने में आती हैं, तो इसके पीछे भी किसी नियामक चेतन सत्ता की इच्छा काम करती है। उपनिषद्कार का कथन है-ईशावास्यमिदं सर्व” अर्थात् उस परम चेतना का वास सर्वत्र है। अपनी माया द्वारा वह संसार के रूप में सामने आती है। गीता में सृष्टि संरचना के संबंध में भगवान कृष्ण कहते हैं “मैं अजन्मा, अविनाशी एवं सभी का स्वामी हूँ, प्रकृति में अधिष्ठित होकर अपनी योगमाया से जीवन धारण करता हूँ।” स्पष्ट है कि अदृश्य चेतना ही दृश्य पिंड के रूप में प्रकट होती है।

पाश्चात्य वैज्ञानिकों में डार्विन, स्पेन्सर जैसे विकासवादियों ने मनुष्य को एक विकसित प्राणी के रूप में माना है। उनका कहना है कि विकास की प्रक्रिया प्रकृति में एक स्वसंचालित रीति से चल रही है। मनुष्य जीवों के क्रमबद्ध विकास की चरम सीढ़ी है, जिसका उद्गम स्रोत पदार्थ है। किसी अन्य कारण सत्ता को अमान्य करते हुए वे कहते हैं कि जड़ तत्त्व से ही यह सृष्टि बनी है। उनके प्रतिपादनों में इस बात का कहीं भी उल्लेख नहीं है कि जड़ का भी कोई आदि स्रोत है या नहीं? उसकी उत्पत्ति किस प्रकार व क्यों

कर हुई ?

एक बार हक्सले ने भाषण देते हुए कहा था कि जो, मनुष्य एवं अन्य जीवों को जीवविज्ञान का ही भाग मानते हैं एवं उन्हें वहीं तक सीमित रखते हैं, वस्तुतः वे भारी भूल करते हैं। मनुष्य जन्म के पीछे एक बड़ा दर्शन और मनोविज्ञान काम करता है। इसी के आधार पर वह एक जीवन के बाद दूसरा एवं दूसरे के पश्चात् तीसरा जन्मधारण करता चलता है तथा इस क्रम में उपार्जित विशेषज्ञता के आधार वर वह आगे की उन्नति-प्रगति करता हुआ, अन्ततः अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त कराता है। वे कहते हैं कि यदि इसके मूल में कोई चिन्मय नियामक सत्ता काम नहीं कर रही होती, तो जन्म-मरण ही मनुष्य का स्वभाव बन जाता, इस क्रम में उपार्जित ज्ञान से उसका कोई सरोकार रह नहीं जाता, पर दिखाई इसके ठीक विपरीत पड़ता है। देखा जाता है कि पिछले जीवन में उसकी प्रगति-यात्रा जहाँ रुकी थी, अगले जीवन में उसके ठीक आगे से प्रारंभ होती है और इसी प्रकार वह अन्तिम लक्ष्य तक पहुँच जाती है। इससे प्रतीत होता है कि निश्चय ही मनुष्य की इस प्रगति-यात्रा को कोई अदृश्य सत्ता नियंत्रित करती है। यह सत्ता कोई और नहीं, वरन् स्वयं स्रष्टा ही है। इस प्रकार उन्होंने भगवद् सत्ता के अस्तित्व को स्वीकारते हुए स्पष्ट कहा है कि यहाँ जो कुछ दिखाई पड़ता है, सब उसी का खेल है। इस संयोग स्वभाव कह कर टाला नहीं जा सकता।

विकासवादी मान्यताओं की त्रुटि यह रही कि वह प्राणियों की उत्पत्ति का कारण मैटर को मानकर संतुष्ट हो गयीं। तथ्य और प्रमाण को सर्वोपरि मानने वाले विज्ञान की इस मान्यता को उपहासास्पद ही कहा जायेगा। विभिन्न प्रकार के रसायनों के सम्मिश्रण से चेतन जीव की उत्पत्ति की साक्षी वह अब तक नहीं दे सका है। इस आधार पर यह कहना अत्युक्तिपूर्ण न होगा कि विकासवादी पूर्वाग्रही मान्यताओं से ग्रसित रहे हैं। उन्होंने कभी यह सोचने का कष्ट नहीं किया कि कारण के बिना कार्य किस भाँति संभव है? उनकी मूलभूत कमी यही रही । यदि उनकी दृष्टि कभी इस प्रश्न पर केन्द्रित हुई होती, तो संभव था, आज वे इस भ्रान्ति से बचे रह कर सत्य और तथ्य के काफी करीब होते, किन्तु ऐसा न हो सका। यही उनके भटकाव का कारण बना।

सम्प्रति अब उन्हें अपनी गलती का भान होने लगा है और अपनी पूर्ववर्ती मान्यता को नकारने की स्थिति में आ गये हैं। विज्ञान ने भी इस दिशा में उल्लेखनीय प्रगति की है। वह अपने सिद्धान्त द्वारा प्रकारान्तर से पदार्थों में विद्यमान चेतना को ही सिद्ध करता है। इस प्रकार अगले दिनों यदि विज्ञान की विभिन्न शाखा-प्रशाखाएँ चेतना द्वारा पदार्थ की उत्पत्ति के सिद्धान्त को स्वीकार लें तो इसे आश्चर्य नहीं मानना चाहिए।


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