शालीनता का ध्वजारोहण

May 1992

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तभी मन्दिर से उठ रही शंख की गहरी प्रतिध्वनि वातावरण को एक नए रंग में रँगने लगी और फिर हर-हर महादेव का प्रचण्ड स्वर उठा। सभी ने सुना अपने नायक छत्रपति का सिंह गर्जन उस समस्त ऊर्जास्विता निनाद में अग्रणी था वह अपने शौर्य के कारण हंता को जैसे दो टूक तोड़ गया था। छत्रपति दरबार की ओर जा रहे थे। आज पिछले दिनों हुई जीत के उपलक्ष में विशेष आयोजन था। सम्मान्य सभासदों के अलावा सामान्य नागरिक भी आमंत्रित थे।

पथ के दोनों ओर खड़ी जनता दरबार की ओर बढ़ रहे अपने नायक को एकटक निहार रही थी। उन्नत ललाट, लम्बी नाक, खिंची हुई भौहें चढ़ी हुई दर्प भरी मूँछें हलकी दाढ़ी चौड़ा वक्ष और प्रशस्त भुजदण्ड और फिर पतली कमर-जिसके बाद फिसलती हुई आँखें मजबूत पिंडलियों से होती हुई चरणों पर अटक जाती। उन्हीं चरणों पर जिनने अभी हाल में आलमगीर के गौरव को ठोकर मारकर चकनाचूर किया था।

क्षण और पल घड़ी में बदले इसके पूर्व छत्रपति अपने सभासदों-सामन्तों के साथ दरबार में उपस्थित हो चुके थे। राजपुरोहित द्वारा उच्चारित वैदिक ऋचाओं की अनुगूँज के साथ दरबार की विशेष कार्यवाही प्रारम्भ हो गई थी। तनाबा जी, पेशवा मोरोपन्त जीते गए कल्याण के किले का विवरण प्रस्तुत कर रहे थे। पाँच सौ हाथी तकरीबन एक हजार घोड़े, तलवारों और अन्य हथियारों का जखीरा। हीरे-जवाहरात कीमती वस्त्र भण्डार इनके सबके अलावा ऐसी अनेकों तरह की चीजें जिनकी गणना करना संभव नहीं हो पा रहा था। “सेनानायक आवाजी सोनदेव की वीरता इस जीत का प्रमुख कारण रही है।” तानाबा का स्वर सभा में गूँजा। छत्रपति की प्रशंसाभरी दृष्टि आवाजी की ओर उठी। फिर उन्होंने तानाबा की ओर देखते हुए कहा “यह जीत किसी एक की जीत नहीं, हम सबकी जीत है। महाराष्ट्र की इस भूमि को स्वतन्त्र करने के लिए हम सबने अपने रक्त से इसे तृप्त किया है। स्वतन्त्रता के जिस अदृश्य बीज के लिए इस वीर भूमि के पुरुषों ने केसरिया बाना पहनकर अपने अंगों की खाद दी है, जिसके लिए हमारी कुलवधुओं, पुत्रियों और माताओं ने आग की लपटों भस्म होकर अपने गौरव से एक अजेय बाड़ बनाई है हमने उसी फैल रहे ऋषि संस्कृति के महावत को अपनी अंजलि भरकर रक्त से सींचा है। आओ आज इस विजय के अवसर पर हम सब प्रतिज्ञा करें कि इसी तरह इस महावत को अपने प्राणों से सींचते रहेंगे।” सबने प्रतिज्ञा की। सभा हर-हर महादेव” “समर्थ गुरु रामदास की जय” “माता भवानी की जय” की गूँजों से भर गई।

सभी के हृदयों से भावों का ज्वार उमड़ कर समूचे वातावरण को तरंगित करने लगा। इन तरंगों को अपने स्वरों से पिरोते हुए छत्रपति ने कहा “पेशवा! हाथी घोड़ों और हथियारों से अपनी सेना को मजबूत किया जाय ताकि आक्रान्ता फिर कभी निरीहजनों को लूटने सताने का साहस न कर सके। प्राप्त हुआ धन राजकोष का है। इससे लोकजीवन के लिए अनेकों कल्याणकारी कार्य सम्पन्न हो सकेंगे।” इतना कहकर छत्रपति ने मोरोपन्त की ओर देखा।

“छत्रपति! कल्याण के किलेदार ने अपने तहखाने में बहुत सा सामान रख छोड़ा है उसमें खाने का बड़ा सामान भी है। आज्ञा दीजिए आज उत्सव मनाया जाय।”

मोरोपन्त के इन शब्दों के साथ छत्रपति के नेत्रों में आश्चर्य उभरा “उत्सव?” वीर के लिए शाश्वत उत्सव है उसका कर्तव्य। यह सब सामान हमारी ही प्रजा से लूट कर ले जाया गया माल है। उसे इन्हीं ग्रामवासियों को लौटा दो और जो हमें वे खुशी से दे दें हमारे लिए वही बहुत है।”

छत्रपति के इन शब्दों के साथ सभा की दर्शक दीर्घा में बैठे ग्रामीणजनों के मध्य से हल्की आवाजें आयीं “छत्रपति शिव है स्वयं कष्टों का जहर पीकर हम सबके लिए खुशियों का जीवन उड़ेलता है।” इन वाक्यों के स्पन्दन दूर तक फैलते जा रहे थे-तभी एक स्वर गूँजा “एक प्रार्थना है महाराज।” “कहो वीर।”

“जीत का एक विशिष्ट रत्न अभी बाकी है जिसे मैंने विशेष रूप से आपके लिए रख छोड़ा है।”

“विशेष रत्न! मेरे लिए!!” उनके स्वर में असमंजस था जैसे वह समझ नहीं पा रहे हों। फिर एक पल रुक कर बोले “कौन सा रत्न है स्पष्ट करो सोनदेव।” उत्तर था-गौहरबानू

इस एक शब्द में पता नहीं क्या था छत्रपति चौंक पड़े। उन्हें ऐसा लगा जैसे हजारों बिच्छुओं ने उनके सारे शरीर में अपने डंक चुभो दिये हों। वेदना की छाप उनके चेहरे पर घनीभूत हो गई।

“गौहरबानू तो स्त्री है।” स्वर कहीं दूर से आता प्रतीत हुआ। “हाँ कल्याण के किलेदार मुल्ला अहमद की पुत्रवधू “तब तुमको मेरी आज्ञा कैसे भूल गई, अपनी महान संस्कृति के पवित्र सूत्रों को कैसे भूल गए? तुम अपराधी हो नायक।” इस आवाज में दृढ़ता थी, शासक का तेज मुखर हो उठा था।

सोनदेव के पैर काँपने लगे। जैसे-तैसे उसने अपने साहस को समेटते हुए कहा “देव! विधर्मियों के किसी धर्मस्थल का अपमान नहीं किया गया। किसी भी बालक वृद्ध को सताया नहीं गया। इसे छोड़कर किसी अन्य स्त्री को अपमानित अथवा बन्दी नहीं किया गया। अपमानित यह भी नहीं हुई बस कैद कर लिया गया था”

“कैद लेकिन क्यों?” छत्रपति की गर्जना से सभी काँप उठी एक पल रुककर सन्नाटे को भंग करते हुए कहा जाओ उसे ससम्मान दरबार में लाओ।

थोड़ी देर में बुर्के में ढंकी हुई नारी सभा के रत्नजटित दीपकावलियों के चन्द्रिका मनोहर प्रकाश में आ खड़ी हुई । उसे सामने खड़ा देख-छत्रपति अपने सिंहासन से उठे। उन्हें उठते देख सामन्तों एवं सभा में उपस्थितजनों के हृदय काँप उठे। पर वह इन सबसे बेखबर धीर पदों से चलकर उसके पास पहुँचे घुटने मोड़कर बैठते हुए उन्होंने हाथ जोड़कर कहा “माँ! अपने सरदार द्वारा किये गए अपराध के लिए मैं आपके सामने क्षमा प्रार्थी हूँ।”

“मुझे शर्मिंदा न करें श्रीमन्त।” इन शब्दों के साथ “माँ” शब्द के जादू ने उसे बुर्के का आवरण उठाने के लिए विवश किया। सभा में बैठे जन स्तब्ध-मुग्ध और मूक थे। कोमल कदली के समान पैरों पर सुनहरी जरी की गाँठ से बाँधे हुए लहँगे के ऊपर चमकती मेखला में से किसी सुन्दर मन्दिर के निकले हुए अद्भुत शिखर की भाँति उसकी कमर और बालक के समान अत्यन्त मनोहर मुख बुर्के के बाहर प्रकट हुआ। उसके मुख पर पार्थिव सुन्दरी की अपूर्व रेखाएँ नहीं थीं, देवाँगनाओं की भव्यता नहीं थी, मात्र छोटी बालिका की सुकुमारता न थी, वह तो किसी सुन्दर स्वप्न में क्षण भर देखा हुआ एक निर्दोष बाल वसन्त का मुख था।

नीरवता को भंग कर रहे, छत्रपति के स्वर सभा ने सुने-वह कह रह थे “देवि! हमारी देव संस्कृति की पुण्य शपथ है नारी माँ है उसके अक्षुण्ण सम्मान को विस्मृत करना इस महान संस्कृति की संतति के लिए आत्मघात है। मैं आपके सम्मुख बार-बार क्षमाप्रार्थी हूँ।” उनके प्रत्येक शब्दों से भावों का अमृत झर रहा था। “धन्य है यह अमर संस्कृति। धन्य है यह पुण्य भूमि!! और धन्य उसके आपन सदृश रक्षक!!!” हृदय में अविराम उमड़ रही भावनाओं से मुश्किल से गौहरबानू अपने शब्द पूरे कर पाई। अपनी भरपूर कोशिश के बावजूद वह भाव बिन्दु को आँखों से लुढ़कने से रोक न पाई।

“सोनदेव!” छत्रपति ने उठकर पास में सहमे खड़े नायक को पास बुलाते हुए कहा “ये माँ है हम सब की वन्दनीय-इनसे क्षमा माँगो।”

सोनदेव को जैसे प्राणदान मिला वह घुटनों के बल बैठकर माफी माँगने लगा। इतने में शिवाजी ने पेशवा को सम्बोधित करते हुए कहा “इन्हें अभी बीजापुर गए मुल्ला अहमद के पास भेजने का प्रबन्ध किया जाय। सम्मान और सुरक्षा का पूरा ध्यान रहे।”

“जो आज्ञा श्रीमन्त।” पेशवा का स्वरभाव गदगद था। आज्ञा देकर ही वे सन्तुष्ट न हुए बाहर खड़ी शानदार बग्घी तक उसे छोड़ने आए। बग्घी के साथ पाँच सौ मराठों की टुकड़ी सुरक्षा के लिए जा रही थी। थोड़ी देर तक वह घोड़े के पाँवों से उड़ती धूल को देखते रहे फिर सामन्तों, सभासदों, नागरिकों की ओर देखकर कहने लगे “देख रहे हो किले के कगूँरे पर फहरा रही ध्वजा को श्री-समर्थ ने इस थमाते हुए मुझसे कहा था शिवा! इस ध्वज को झुकने न देना।” सभी जनों की आँखें ऊपर उठ गई। किले के ऊपर वह भगवा ध्वज ऐसे फहरा रहा था जैसे ऊपर जाकर सहस्रदल कमल खिल गया हो। आकाश के अनन्त विस्तार में उसकी फरफराहट देखकर सभी को ऐसा लगा जैसे अगाध समुद्र पर शेषशायी नारायण के नाभिकमल पर बैठे ब्रह्मा देवसंस्कृति का सनातन उद्घोष कर रहे हों। सचमुच संस्कृति के इस पुरोधा ने अपने गुरु के आदेशों को अक्षरशः निभाया था।


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