साधना से सिद्धि का अकाट्य सिद्धान्त

May 1992

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आत्मोत्कर्ष का लक्ष्य प्राप्त करने के लिये दो कार्य करने पड़ते हैं-एक उपासना दूसरा साधना। उपासना में भजन-पूजन के संदर्भ में किये जाने वाले जप, ध्यान, प्राणायाम, हवन, कीर्तन आदि क्रिया-कृत्यों को करते हैं । साधना जीवनयापन की चिन्तन एवं कर्मपरक पद्धति है। उपासना उच्चस्तरीय कक्ष का योगाभ्यास कहलाती है और साधना अपने परिष्कृत स्वरूप में तपश्चर्या कहलाती है दोनों के समन्वय से ही जीवन लक्ष्य को प्राप्त करने का, पूर्णता तक पहुँचने का लक्ष्य पूरा होता है, यही ईश्वर प्राप्ति है।

उपासना अंतरंग को परिष्कृत करने के लिये और साधना बहिरंग को सुव्यवस्थित कर बनाने के लिये है। लक्ष्य तक पहुँचने की यात्रा इन्हीं दो कदमों को अनवरत क्रम से उठाते रहने पर सम्पन्न होती है। उपासना का प्रतिफल है सुसंस्कारिता। साधना का प्रयोजन है-शालीनता इन्हीं दोनों को संस्कृति और सभ्यता कहते हैं। जीवन सम्पदा का स्तर उठाने और उसका श्रेष्ठतम सदुपयोग करने से ही मनुष्य व्यक्तित्ववान बनता है। इसी विकास क्रम पर चलते हुये मनुष्य सामान्य आत्मा से अगली सीढ़ियाँ प्राप्त करता है। महामानव, ऋषि, देवदूत एवं अवतार बनने का सौभाग्य इसी मार्ग की मंजिल है।

उपासना किसी के सामने गिड़गिड़ाना या वैभव सम्पत्ति का उपहार-अनुदान सहज ही प्राप्त करने का ताना-बाना नहीं है। देवता न चापलूसी से प्रसन्न होते हैं और न रिश्वत लेने में उन्हें कोई रुचि है। उनका अनुग्रह बादलों की तरह अनवरत बरसता है जिसके पास जितना पात्र है उसे उतना अनुदान मिलता है। आत्म परिष्कार ही साधना का उद्देश्य है। इस प्रयास में जिसे जितनी सफलता मिलती है, वह उतना ही बड़ा संत होता है। आत्मकल्याण और लोक-कल्याण में समर्थ अति महत्वपूर्ण क्षमता ऐसे ही लोगों को उपलब्ध होती है पेड़ों के आकर्षण से बादल बरसते हैं। चुम्बक के खिंचाव से लौह कण खिंचते चले जाते हैं। फूल खिलता है तो उस पर मधुमक्खियों, तितलियों और भ्रमरों के झुण्ड मँडराते हैं।

विकसित व्यक्ति को अंतरंग से संतोष बहिरंग से सहयोग और अंतरिक्ष से वरदान बरसने का लाभ मिलता है। दैवी अनुग्रह उपलब्ध करने का एक ही मार्ग है-आत्म परिष्कार। उपासना और साधना के दोनों ही प्रयोग मिलकर इसी एक उद्देश्य की पूर्ति करते हैं। ब्रह्मविद्या का तत्त्वदर्शन और धर्मानुष्ठानों का साधना प्रकरण इसी एक उद्देश्य की पूर्ति के लिये मनीषियों द्वारा सृजा गया है।

उपासना में गायत्री मंत्र का अवलम्बन सर्वश्रेष्ठ है। इस महामंत्र में सन्निहित 24 अक्षरों में उन सभी शिक्षाओं, प्रेरणाओं एवं सिद्धान्तों का समावेश है, जिनको अपनाकर व्यक्तिगत सुख-शांति और समाजगत प्रगति समृद्धि के द्वार खुल सकते हैं। इन अक्षरों का गुन्थन ऐसी विशेषताओं के साथ हुआ है कि उनके जप पाठ से व्यक्ति के अंतराल की प्रसुप्त विशेषताएँ जाग्रत होती हैं। उनके सामान्य जप-ध्यान और असामान्य अनुष्ठान पुरश्चरण प्रक्रिया से ऐसा आत्मबल जाग्रत होता है, जिसके द्वारा आत्मिक विभूतियों और सांसारिक सफलताओं को प्रचुर परिमाण में उपलब्ध कर सकना सम्भव होता है। उपासना का विधान अन्यत्र बताया गया है। उतना न बन पड़े तो रास्ता चलने या बिस्तर पर पड़े हुये मौन मानसिक जप एवं ध्यान हो सकता है। न्यूनतम बीस मंत्र जप लेने से भी आद्य शक्ति गायत्री के साथ उपासना सूत्र जुड़ा रह सकता है।

साधना का तात्पर्य है-अनगढ़ जीवन को सुगढ़ बनाना। जंगली जानवरों को उपयोगी एवं पालतू और जंगली झाड़ियों को सुरम्य उद्यान के रूप में विकसित करने के लिये जो उपाय अपनाने पड़ते हैं, लगभग वही कुसंस्कारी व्यक्तित्व को संस्कारवान, शालीन बनाने के लिये भी कार्यान्वित करने होते हैं, यही साधना है।

ईश्वर का अनुग्रह, पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त करने के लिये एकमात्र उपाय साधना है। इसके परम पुरुषार्थ माना गया है। अपने कुसंस्कारों से निरन्तर लड़ते रहना, जीवन क्षेत्र में सत्प्रवृत्तियों की फसल उगाना, पशुता को देवत्व में परिणत कर देना यही है साधना का का स्वरूप। विभिन्न पूजा उपचारों के द्वारा मनन, चिन्तन, स्वाध्याय, सत्संग जैसे विचारमंथनों द्वारा आत्मशोधन की जो प्रक्रिया चलती है उसी को देखते हुये यह जाना जा सकता है कि साधना में कितनी प्रगति हुई। साधक को सिद्धि मिलती है, बिना आत्मशोधन का भजन निरर्थक जाता है। अपवाद रूप में किसी को कोई दैवी अनुग्रह मिल भी जाय तो उसका परिणाम अंततः भस्मासुर, रावण, कुँभकरण, मारीच, कंस, हिरण्यकश्यप, आदि की तरह घोर विपत्ति के रूप में सामने आता है। फलित तो विभीषण, हनुमान जैसे सद्भाव सम्पन्न लोगों की साधना ही होती है।

जीवन कल्पवृक्ष है उसकी साधना यदि सही रीति से की जा सके तो वही अपने अमृत फलों से साधक को कल्पवृक्ष बना देता है। ईश्वर ने श्रम, समय, बुद्धि, प्रतिभा जैसी दिव्य सम्पदायें हर व्यक्ति को प्रचुर परिमाण में हर व्यक्ति को प्रचुर परिमाण में दी हैं। इनका सदुपयोग ही उस बुद्धिमत्ता का परिचायक है जिसे शास्त्रकारों ने “ऋतम्भरा “प्रज्ञा या ब्रह्म विद्या गायत्री कहा है। मानवी निर्माण की आवश्यकता नितान्त स्वल्प है। उपार्जन की क्षमता असीम है। ऐसी दशा में किसी के अभावग्रस्त या पिछड़े रहने का कोई कारण नहीं। दरिद्रता और दुर्गति तो आंतरिक पिछड़ेपन की ही प्रतिक्रिया है। साधना द्वारा अपने दृष्टिकोण, स्वभाव और व्यवहार में सुधार किया जाता है।

मनःस्थिति में परिवर्तन आते ही परिस्थिति बदलने लगती है। आँख की पुतली ही दृश्य जगत का परिचय कराती है। कान की झिल्ली में भरी सामर्थ्य से ही संसार में संव्याप्त शब्द सम्पदा से लाभान्वित होने का अवसर मिलता है। अपना मस्तिष्क ही इस विश्व वसुधा में बिखरे हुये वैभव को पहचानने और चुनने का सौभाग्य प्रदान करता है इन्द्रिय शक्ति की प्रखरता से ही अनेकानेक रसास्वादनों का सुख मिलता है। अपने आँख, कान, मस्तिष्क एवं इन्द्रिय तंतु यदि विकृत हो उठें तो इस संसार में निराशा और निस्तब्धता के अतिरिक्त और कुछ भी शेष न रहेगा। आत्म सत्ता का स्तर ही संसार के पदार्थों या प्राणियों को उपयोगी अनुपयोगी बनाता रहता है। समस्याओं की उत्पत्ति भी भीतर से ही होती है और उनका समाधान भी अपनी ही अनुपयुक्तताओं के समाधान होने पर संभव होता है। जड़ें जमीन में रहती हैं, पेड़ ऊपर दीखता है। व्यक्ति की आंतरिक स्थिति ही बाह्य परिस्थितियों की संरचना करती है। बाहरी सुविधा, सफलता प्राप्त करने के लिये तद्नुरूप विशिष्टताएँ अपने ही व्यक्तित्व में उत्पन्न करनी पड़ती हैं, इसी दूरदर्शी पराक्रम को साधना कहते हैं। अपना प्रसुप्त अंतरंग ही सर्वसिद्धि-दाता देवता है। उसी को जगाने, प्रखर बनाने के लिये पूजा-उपचारों की विधि व्यवस्था शास्त्रकारों ने बनाई है। जो तथ्य को समझते हैं, भजन पूजन के साथ जुड़े रहस्यों को ढूँढ़ते हैं और अपनी कुसंस्कारिता को परास्त करने का पराक्रम करते हैं वे ही सच साधक हैं। साधनात्मक उपचारों में सन्निहित आत्म निर्माण के मर्म को जो जान लेते हैं

सत्र पूरा होने पर आचार्य ने शिष्यों की बुद्धि एवं धैर्य की परीक्षा लेनी चाही। सभी शिष्यों के हाथ में बाँस की टोकरियाँ थमाते हुए कहा कि इनमें नदी से जल भर कर लाना है और विद्यालय भवन की सफाई करना है। शिष्य चकराए कि भला बाँस की टोकरी में जल। यह कैसे सम्भव है। सभी ने टोकरियाँ उठाई, नदी पर गये, प्रयास किया, किन्तु बाँस की टोकरियों के छिद्रों से जल रिस जाता। हताश शिष्यों ने लौटकर गुरुदेव को वस्तुस्थिति बताई किन्तु एक छात्र जो कर्तव्य के प्रति गम्भीर और जिस में गुरु के प्रति पूर्ण निष्ठ और आस्था थी यह सोचकर बार-बार जल भरता कि गुरुदेव के वाक्य मिथ्या हो ही नहीं सकते। प्रातः से सायं तक जल में बाँस की टोकरी के रहने से बाँस की तीलियाँ फूल चुकी थीं और छिद्र बन्द हो चुके थे, अतः शाम को वह टोकरी में जल लेकर ही विद्यालय वापस लौटा। अब गुरु ने शिष्यों को इकट्ठा किया और परिश्रम का महत्व बतलाते हुए कहा-कार्य तो मैंने तुम्हें अकल्पनीय और दुरूह सौंपा था, किन्तु विवेक, धैर्य, लगन और निष्ठ तथा निरन्तर प्रयास से कठिन कार्य भी सम्भव हो सकता है।

उसके लिये बिना हारे संघर्ष और शिक्षण का अभ्यास करते हैं वे अपने आपको सरकस के सिंह की तरह मनस्वी और कमाऊ बना लेते हैं साधना उपक्रमों के साथ जुड़े हुये इस दिशा निर्धारण को जो समझते हैं और बिना हारे अनवरत प्रयास करते हैं उन्हें सिद्धि पुरुष होने का अवसर निश्चित रूप से मिलता है। साधना से सिद्धि का सिद्धान्त अकाट्य है। प्रयास के साथ जुड़ी हुई उपलब्धि का प्रमाण, परिचय हर साधक कभी भी, कहीं भी प्राप्त कर सकता है।


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