उज्ज्वल भविष्य की झाँकी, मस्तिष्क के झरोखों से

May 1992

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“लोगों के आचार-व्यवहार में क्रान्तिकारी परिवर्तन आ रहा है। असुरता क्रमशः घटती जा रही है। शालीनता का साम्राज्य बढ़ रहा है। लोग अध्यात्म के पृष्ठ पोषक बनते दिखाई पड़ रहे हैं। देवत्व के प्रति उनकी अभिरुचि जगती और बढ़ती जा रही है। विज्ञान का विलय-विसर्जन अध्यात्म में हो रहा है। इससे एक समग्र और सर्वांगपूर्ण विज्ञान का उद्भव होता है। अन्ततः दुनिया इसी में प्रतिष्ठित होती है, जो लम्बे काल तक नव विकसित विज्ञान की बहुआयामी क्षमता और योग्यता के आधार पर विश्व को प्रकाश प्रेरणा देती रहती है।”

प्रस्तुत पंक्तियाँ मूर्धन्य भविष्य द्रष्ट जे. हिल्टन की हैं। उन्होंने अपनी पुस्तक “द् कमिंग मिलेनियम” में इसी शैली का प्रयोग करते हुए आने वाले समय के संबंध में भविष्यवाणी की है। उनकी पुस्तक को पढ़ने से ऐसा जान पड़ता है, मानों उनके नेत्रों के सम्मुख ही भविष्य का विहंगम दृश्य घूम गया, जिसे लिपिबद्ध कर उन्होंने पुस्तकाकार रूप दे दिया हो। इस संदर्भ में पूछे जाने पर उनने कहा-निश्चय ही ऐसा है मेरी उक्त पुस्तक न तो कोई अनुमान है, न संभावना, वरन् एक ऐसी भवितव्यता है, जिसका अटल निर्धारण असंदिग्ध है।”

इसी पुस्तक में वे आगे लिखते हैं-भौतिकता घटती-मिटती जा रही है। उसका स्थान अध्यात्मवादी मान्यताएँ ले रही हैं, किन्तु धर्म-अध्यात्म के नाम पर न आज जैसी कुरीतियाँ हैं, न अनगढ़ प्रथा-परम्पराएँ सब कुछ औचित्य पर आधारित है। अनौचित्य कुछ भी नहीं। नीतिमत्ता को जो स्वीकार्य है, विवेक-बुद्धि जिसका समर्थन करती है, जो सबके हित में है, वैसे ही प्रचलन अस्तित्व में रह गये हैं जिससे अनीति को प्रश्रय मिलता हो, अश्लीलता की वंश-वृद्धि होती हो, जो कुमार्ग की ओर बढ़ चलने की कुत्सित इच्छा उभारती हो, वैसी सभी वर्जनाओं पर नैतिकता का दृढ़ अंकुश लगा हुआ है। अपरिग्रही जीवन का सर्वमान्य सिद्धान्त प्रचलित है। इसी में सभी संतुष्ट हैं। न कोई सम्पदा जोड़ कर धनकुबेर बनने की इच्छा रखता है, न संतानों के लिए साधन सामग्री इकट्ठी करने में अभिरुचि दिखाता है। सबों के लिए रोज कुआँ खोदने और रोज पानी पीने का समान नियम लागू है। सामाजिक दृष्टि से न कोई बड़ा है न छोटा न ऊँच न नीच। समानता का समान अधिकार समाज की ओर से सब को उपलब्ध है।”

“इन सब परिवर्तनों की पृष्ठभूमि लम्बे समय से चली आ रही है। इन दिनों उसी का चरमोत्कर्ष अनेकानेक प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं, बीमारियों, विग्रहों उत्पातों के रूप में दिखाई पड़ रहा है। इस सदी के अन्तिम दशक में इनका उफान और बढ़ता स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है। इसके बाद आगामी सदी के आरंभिक दो दशाब्दियों में ये धीरे-धीरे शान्त होते प्रतीत हो रहे हैं। नव-निर्माण प्रक्रिया पहले भी जारी थी, पर अब इसकी गति अधिक तीव्र होती जान पड़ती है। परिवर्तन की स्पष्ट अनुभूति लोगों को इसी अन्तराल में मिलती है। सब हतप्रभ हो रहे हैं कि यह क्रान्तिकारी परिवर्तन क्योंकर व कैसे बन पड़ा?”

इस प्रकार हिल्टन ने आगामी स्वर्णयुग की रूप-रेखा ही खींच कर रख दी है। भविष्य का वर्णन वर्तमान काल में करने की उनकी इस अनूठी शैली से अनेकों को इसके यूटोपिया होने का विश्वास हो सकता है। कइयों ने पुस्तक में वर्णित तथ्यों और वर्तमान के प्रसंगों में कोई संगति न होने के कारण उसकी वास्तविकता पर संदेह प्रकट किया है और उसे कपोल-कल्पना कह कर टालने का प्रयास किया है। ज्ञातव्य है कि हिल्टन ने इसी आशंका को ध्यान में रखते हुए पुस्तक के प्रारंभ में ही इसे स्पष्ट कर दिया है कि यह कोई कल्पना जल्पना नहीं, अपितु नियति की एक सुनिश्चित वास्तविकता है।

इसी प्रकार की एक अन्य पुस्तक उनने लिखी है-द् एज ऑफ विज्डम।” वैसे तो यह पुस्तक कलेवर की दृष्टि से अत्यन्त छोटी है, पर आगामी समय के संबंध में इसमें जो प्रकाश डाला गया है, वह अतिशय महत्वपूर्ण है। वे लिखते हैं “अभी जिस पर्यावरण प्रदूषण से संसार त्रस्त है और जिसके कारण वर्तमान में अनेक संकट उठ खड़े हुए हैं, अगली शताब्दी के मध्य तक उसका नामोनिशान न रहेगा। तब मनुष्य में एक ऐसी परिष्कृत बुद्धि का विकास होगा जो कुछ भी करने से पूर्व उसकी फलश्रुति पर सर्वप्रथम विचार करेगी। इस क्रम में उन मानवी प्रयासों व गतिविधियों का लेखा-जोखा लिया जायेगा, जिसने इतने भयावह संकट पैदा किये। पुनर्मूल्यांकन के बाद उन प्रवृत्तियों पर नैतिकता का कठोर अंकुश लगा दिया जायेगा, जो प्रस्तुत सर्वग्राही समस्या का निमित्त बनी। वन-संरक्षण और वृक्षारोपण को प्राथमिकता मिलेगी और उस त्रुटि को अतिशीघ्र पूरा करने की कोशिश की जायेगी, जो पिछले दिनों स्वार्थवश बन पड़ी। पर्यावरण को सुधारने-सँवारने में मनुष्य को दैवी सहयोग भी प्राप्त होगा। नियति इसके लिए ऐसी व्यवस्था करेगी कि इससे संबंधित समस्या को उत्पन्न करने और प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ने वाला दूसरा बड़ा कारण वाहन न रहे। इस हेतु प्रकृति-व्यवस्था के अंतर्गत पृथ्वी के गर्भ में जमा कच्चा तेल चुक जायेगा। भले ही तब इसका कारण वर्तमान का अतिशय दोहन माना जाय, पर यह सब होगा नियन्ता की निर्धारित व्यवस्था क्रम के अंतर्गत ही। इसी प्रकार इन्धन का अभाव स्वचालित गाड़ियों के अस्तित्व को समाप्त कर देगा। फिर वैसे ही वाहनों का अस्तित्व रहेगा, जिससे प्रकृति को कोई खतरा न हो। इससे पर्यावरण-संकट तीव्रता से दूर हो जायेगा, जिससे स्वास्थ्य संबंधी समस्या में भी कमी आयेगी। व्याधियाँ अब जितनी न दिखाई पड़ेंगी। वह होगी अवश्य पर तब उसका कारण प्रमाद न होकर परमात्म सत्ता की कर्मफल व्यवस्था होगा। अनेक दोषों के निमित्त कारण-स्वार्थ और स्वार्थियों के वंशधर न रहेंगे। इस अवगुण का सर्वथा लोप हो जायेगा। इसका स्थान इसका विपरीत गुण-धर्म और अध्यात्मवाद का चिर-सहचर-परमार्थ ले लेगा। लोग इसे अपना सर्वोपरि कर्तव्य मानेंगे और कर गुजरने में कोई कोताही न बरतेंगे। समय और समाज को अपरिमित हानि पहुँचाने वाले लोभ लालच भी अपनी मौत मरेंगे। मानवी व्यक्तित्व में अहंता एवं बड़प्पन का अवशेष न रहेगा। इन दो दुर्गुणों ने, लोभ-लालच के बाद वर्तमान समाज को सर्वाधिक हानि पहुँचायी है यह निश्चय कर इसे त्यागने व इससे बचे रहने में ही लोग अपनी भलाई समझेंगे। सादगी को सर्वोच्च प्राथमिकता मिलेगी। विलासिता का भौतिकता के साथ ही अन्त हो जायेगा सभी परिश्रमी एवं कर्मनिष्ठ जीवन पर विश्वास करेंगे। धर्म पूजा-पत्री और मन्दिर पूजागृहों तक सीमित न होकर अध्यात्म का अविच्छिन्न अंग बन जायेगा और दिनचर्या में काया-छाया की तरह सम्मिलित रहेगा। इससे सर्वत्र शान्ति व संतोष का साम्राज्य दृष्टिगोचर होगा, जो लम्बे काल तक बना रहेगा, किन्तु इसका सम्पूर्ण श्रेय उस सद्बुद्धि को मिलेगा, जो तब के लोगों में विवेक के रूप में विद्यमान होगी।”

हमें प्रस्तुत भविष्य कथन को सत्य सिद्ध करने और नियन्ता की परिवर्तन-प्रक्रिया में भागीदारी निभाने के लिए इन्हीं दिनों जुट पड़ना चाहिए। कालचक्र को परिवर्तित करने में परमसत्ता के साथ हमारी गिलहरी जितनी भूमिका भी स्वयं के लिए महत्वपूर्ण साबित हो सकती है। कहीं ऐसा न हो कि प्रस्तुत समय हम निद्राग्रस्तों की तरह खुमारी में बिता दें और उस श्रेय सौभाग्य से वंचित रह जायँ, जो हमें इतिहास पुरुष बनाने वाला है।


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