संस्कृति के सनातन कुल की लक्ष्मी; भारतीय नारी

May 1992

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रात गहराने लगी। बाहर शिकारी कुत्तों के भौंकने की आवाज आई। फिर सड़ाक-सड़ाक करके किसी ने चमड़े का चाबुक वहीं पर फटकारा जो हुप-हुप करके लचकने लगा औरत भी फिर एक ओर तलवारों और ढालों की खनखनाहट सुनाई दी तो दूसरी ओर घोड़ों के टापों की आवाज चट्टानी रास्तों पर बजने लगी।

“महारानी”

‘क्या है रे? भैसों के सामने से उठती हुई स्त्री ने कहा। ‘महारानी ! आ”.... आगे के शब्द जैसे बोलने वाली के गले में फँस गए। उसकी आँखों में आश्चर्य गहरा उठा।

‘महारानी उत्तर नहीं दे सकीं। ईसुरी की वह विस्मित आकृति उनमें स्नेह भर गई। ईसुरी हठात् पाँवों पर गिरकर रोने लगी। ‘क्या हुआ री?’ महारानी ने पूछा।

“महाराणा देश और संस्कृति की रक्षा के लिए झोंपड़ों में है और महारानी को भैंस की सेवा करनी पड़े। चम्पा ने पास आकर कहा ईसुरी आप पर नहीं अपने आप पर रोती है।’ चम्पा दोनों आँखें पोंछी।

‘तू रोती है?’ महारानी ने विस्मय से पूछा वह जिसका बेटा साका में केसरिया बाना पहन कर गया था, जिसकी गौने में आई नवेली वधू जौहर की लपटों में सो गई और जो तब न रोई वह आज रो रही है?

ईश्वरी फूट पड़ी, “हमारे हाथों में कीड़े पड़ गए हैं। क्या कहेंगे हमारे मर्द जब सुनेंगे कि ईसुरी के रहते महारानी ने भैंस का काम किया क्या कहेंगे हमारे बच्चे! घृणा से थूक न देंगे हमारे मुँह पर?”

ईसुरी को उठाते हुए महारानी ने कहा “अब आगे न कहना कुछ। तू क्या समझती है देश मेरा नहीं है? समझ ले अपने देश के वासी जब तक एक स्वर, एकलय होकर काम नहीं करेंगे तब तक कैसे काम चलेगा। तू बच्चे को दूध पिला रही थी। एक मेवाड़िन-एक होनहार योद्धा को पाल रही है दूध पिला रही है अपनी ममता से अपने लहू को दूध बना कर उसके मुँह में उतार रही है, उस वक्त मैं उसे टोकूँ! बता चम्पा तू ही उत्तर दे। उस वक्त मैं आराम से बैठूँ? लोक जीवन की आन-बान-शान के लिए लड़ने वाले वीर जब थक कर चूर होकर लौटते हैं तब यही भैंस उनके बुझते प्राणों के दीप को अपना दूध देकर जलाती है। वह भैंस भूखी खड़ी रहे और मैं बैठी रहूँ? स्वातन्त्र्य का शंख फूँकने वाले वीर जंगलों पहाड़ों में हथेली पर जान लिए घूमते रहें और उस वीर वंश की वधू में बैठी रहूँ। वीर बाप्पारावल की खुरासान तक अड़ने वाली भुजा क्या कहेंगी? वीर खुमान का काबुल तक गूँजने वाला गर्जन क्या कहेगा? वीर हम्मीर की शरणागत वत्सलता और वह प्रचण्ड हठ क्या कहेगा? चण्ड की प्रतिज्ञा क्या कहेगी? कुम्भा की तलवार क्या कहेगी? बोलो चम्पा तू ही बता ईसुरी मैंने अपराध किया है?”

“महारानी!” ईसुरी और चम्पा रोती हुई महारानी से लिपट गई। “अपनी संस्कृति का विजय अभियान कभी नहीं रुकेगा महारानी” दोनों के मुख से लगभग एक साथ स्वर फूटे।

“तुम ठीक कहती हो।” महारानी ने कहा “यह देश जब-जब पतन की ओर मुड़ा है कायरता अकर्मण्यता और स्वार्थ के कारण। इस देश की नारियाँ जिस दिन मनुष्यों की जगह दहकते हुए अंगारों को जन्म देने लगेंगी उस दिन इस देवभूमि की शृंखलाएं सदा के लिए खण्ड-खण्ड हो जाएँगी। पर यह तभी होगा-जब नारी स्वयं शौर्य और कर्मठता की जीवन्त मूर्ति बने।”

तभी कहीं प्रतिध्वनित होती शंखध्वनि सुनाई दी। वनप्रान्त की नीरवता और भी गहरी हो गई और दूर-दूर की पर्वत श्रेणी पर अब भी जोगी की छतरी आकाश की गहरी नीलिमा पर और भी काली सी होकर दिखाई दे रही थी।

“महाराणा! महाराणा!!” भील बालक चिल्लाए।

आ गए” ईसुरी ने कहा।

बीसल बाहर की ओर भागा।

“देवर।” महारानी ने पुकारा

“भाभी!” कुँवर शक्तिसिंह ने आगे आकर कहा “रोटी तैयार है?” “बस अभी लो।”

तभी महाराणा आगे आ गए और झाला ने फरफराती मशाल को आगे बढ़ाया। उस आलोक ने पहले महाराणा के मुख के गौरव को झलकाया। शक्तिसिंह की प्रचण्ड भुजाएँ चमकी और तभी महारानी की तनी हुई गम्भीर भवें दिखाई दीं।

थोड़ी देर में सब लोग भोजन के लिए बैठ गए। धीरे-धीरे खाना खत्म हुआ। महाराणा लेट गए। महारानी पास बैठ गई। कहा “थक गए महाराणा जी?” “नहीं सोच रहा था।” “क्या भला?”

“यही कि जब से तुम आई तब से तुम्हें कोई सुख नहीं मिला।”

“मुझे जो सुख मिला है स्वामी वह किसी को नहीं मिला। इस अनूठे सुख की प्राप्ति भारतीय संस्कृति की सनातन परम्परा है।”

महाराणा की धीरे-धीरे साँस लेने की ध्वनि सुनाई पड़ रही थी। वे कहती रहीं “भगवान राम के साथ क्या जानकी नहीं घूमी वन-वन में मारी-मारी नहीं फिरी। अपनी संस्कृति के गौरवपूर्ण राज्य में नारी को त्याग का सर्वोच्च सिंहासन मिला है।”

कुछ देर नीरवता छाई रही। फिर महाराणा ने कहा “सोचता हूँ तो मुझे याद आता है। जिस दिन मैंने पहली बार तुम्हें देखा था उस दिन ही मुझे कुछ अजीब-अजीब सा लगने लगा था। मैं बार-बार उस पहेली को सुलझाना चाहता था, और वह पहेली जिस दिन मेरे सामने सुलझी उस दिन तुम पहले से भी बड़ी उलझन बन चुकी थीं।”

“मैं समझी नहीं ।” महारानी ने हलकी सी जम्हाई ली। “तुम्हें नींद आ रही है।”

“आप कह देंगे तभी सोने जाऊँगी मैं।” महारानी के स्वर में मनुहार थी। “तो सुनो लक्ष्मी, जिस दिन तुम्हें देखा था मुझे लगा था मैं इस कठिन राह पर अधिक दिन नहीं चल सकूँगा क्योंकि तुम अत्यन्त कोमल थीं। परन्तु तुमने प्रमाणित किया तुम देखने में जितनी कोमल और निर्बल हो उतना ही तुम्हारे भीतर एक हठी और सबल मन भी है। फिर भी मेरे सामने यह उलझन बनी रह गई है कि तुम इतनी दृढ़ और कठोर होते हुए भी सबके लिए यह समान स्नेह कहाँ से दे पाती हो?” एकाग्र मन सुन रही महारानी का मन विभोर होकर एक अतीन्द्रिय आनन्द से स्निग्ध हो उठा कि उत्तर नहीं दे सकीं। सुनती रहीं। जी करता था महाराणा कहते जायँ वे यों ही सुना करें इस कथा का कहीं भी अन्त न हो। परन्तु महाराणा ने शृंखला झनझना दी। कहा बताओ लक्ष्मी!”

महारानी ने क्षण भर देखा और कहा “गुरुदेव कहते थे इस देश की संस्कृति सनातन है इसमें शाश्वत जीवन के बीज निहित हैं और कुछ कहते हुए महारानी रुक गई उनकी नजरें महाराणा के भव्यमुख पर केन्द्रित हो गई। राणा बोल पड़े “कहो। रुक क्यों गई?”

“देव! इसकी सुरक्षा सुव्यवस्था की सर्वोच्च जिम्मेदारी नारी पर है। दो अक्षरों के इस शब्द में दो ही तत्त्व समाए हैं त्याग और ममता। अपने विवाह के अवसर पर दिया गया कुल पुरोहित का आशीर्वाद अभी भी मेरे मन में गूँज रहा है। उन्होंने कहा था बेटी। तू भारतीय नारी बनना-संस्कृति की अमर ज्योति।” “तुम सच कहती हो लक्ष्मी। नारी का त्याग ही पुरुष के गतिशील संघर्ष की प्रेरणा है। देश और जाति तभी अपमानित हुई हैं जब उसने नारी की अवमानना की है। उसे कामिनी और रमणी माना है। यदि पुरुष ने उसे अपने अविराम संघर्ष की सहचरी माना होता। यदि उस अविरल बहते ममता के निर्झर की सच्ची पहचान हो सकी होती......।”

महाराणा का वाक्य पूरा हो पाता इसके पहले बाहर से आवाज आई

“महारानी!”

“कौन बुला रही है?” महाराणा ने कहा। चम्पा द्वार पर आ गई। कहा “अभी तक नहीं गई महारानी।” महाराणा ने पूछा “क्या है, चम्पा?”

“घणी खम्भा महाराणा जी। चम्पा ने कहा “माना जी और सालूमर के सरदार नहीं लौटे थे इसी से महारानी भूखी बैठी थीं। मैंने कहा तो कहने लगीं कि जब सब खा चुकेंगे तभी मैं खाऊँगी पहले नहीं। मैंने समझाया पर मेरी एक नहीं चलने दी।”

महाराणा ने महारानी की ओर देखा। उन आँखों में अपार स्नेह था और था वह सम्मान जो आश्चर्य की परिधियों को लाँघ जाने के आवेश में प्रारम्भ होकर स्थिरतम प्रज्ञा में मूर्तिमान् हो जाता है।

महारानी ने संकोच से सिर झुका लिया। कहा “तू रहने

दे चम्पा दे। देखती नहीं और जहाँ चाहे जो कुछ कह

उठती है।” महाराणा ने देखा और कहा “लक्ष्मी! तुम सचमुच इस संस्कृति के सनातन कुल की लक्ष्मी हो।” महारानी ने गर्व और गदगद विभा से विभोर होकर कहा “नहीं महाराणा जी मैं भारत की नारी हूँ और भारत की नारी माता होती है। क्या माँ कभी बच्चों से पहले अन्न ग्रहण करती है? राष्ट्र के गौरव के लिए प्राण दे डालने वाले ये वीर इसीलिए तो नहीं डटे हैं कि हम आनन्द भोगें और ये लोग भूखे रहें।”

अचानक ही दो व्यक्ति भीतर आए और माँ, माँ! कहकर महारानी के चरणों पर लोट गए। वे माना और सालूमर के सरदार थे जो बाहर खड़े सब सुन रहे थे।

महारानी के हृदय का आनन्द पिघल कर आँखों में आ भरा। उन्होंने दोनों को उठाते हुए कहा “माना जी! सालूमर जी! उठो। तुम यह न समझो कि मैंने कोई अहसान किया है। मेरे द्वारा जो कुछ हो रहा है वह अपने गौरव की रक्षा के लिए है।”

दोनों अवाक् से देखते रहे। महारानी उठ खड़ी हुई। जब वे चली गई उन्होंने देखा महाराणा अपने को भूले हुए शून्य दृष्टि से देख रहे हैं।

माना ने कहा “महाराणा जी!”

प्रताप चौंक उठे और उन्होंने उसी विभोर चिन्तन में ही डूबे हुए कहा “नहीं माना जी नहीं। भले ही रात भर जलकर यह दीपक बुझ जाए परन्तु प्रभात अवश्य आएगा। भले ही हम सब मर जायँ, किन्तु भारत माँ की संस्कृति का विजय ध्वज अवश्य फिर फहराएगा अवश्य आकाश के वक्षस्थल पर फिर नर्तन करेगा।”


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