संस्कृति-पुरुष से मिले-मर्यादा पुरुषोत्तम

May 1992

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जो भाला चलाना न जाने, जो शिकार न करे और लूट-पाट में उत्साह न रखे, वह भी क्या भील है? बचपन से अल्हड़ ऐसा ही है। पता नहीं क्यों? उसने भी भाला और तीर चलाना सीखा था। बड़ा अच्छा निशाना था उसका। पेड़ के पत्ते और फूलों पर सधा हुआ हाथ पड़ता था। जब सच्चे निशाने का समय आया, उसके हाथ बँध गए। हिरन ठीक सामने से भाग गया पर धनुष पर खींचा हुआ बाण छूटा नहीं। उसने पहले ही शिकार के दिन बाण उतार लिया। न फिर धनुष पर डोरी चढ़ी और न भालों पर सान।

माँस खाना सीख ही नहीं सका। बचपन में जब भी उसे माता ने बलात् माँस का ग्रास दिया, उसे वमन हो गया उसे तो नमक रोटी प्रिय है। फल, कंद और पत्ते उसे रुचिकर हैं। खट्टे-मीठे चरपरे के प्रति उसका कोई रुझान नहीं।

नाच-गाने में तो सम्मिलित होता ही नहीं, उसने कल पिता से स्पष्ट यह कहकर कि मैं शादी नहीं करूँगा । भीलों को चकित कर दिया। उसने शादी की बात सुन ली थी और बिना संकोच के कह दिया। अपने इकलौते पुत्र के प्रति सरदार का बहुत स्नेह है। माता ने रो-रोकर आँखें लाल कर लीं पर वह डिगा नहीं। अन्ततः हार माननी पड़ी सबको।

आज बर्घोरे पर उत्सव है, चलोगे नहीं अल्हड़। एक मित्र ने उसकी तन्मयता को तोड़ते हुए पूछा।

बाबू बीमार हैं, उनके पास रहना है। मैं नहीं जाऊँगा । सरदार को कल से ज्वर आ रहा था।

‘हो आओ बेटा। मैं अच्छा हूँ। मुझे कुछ चाहिए नहीं।’

झोंपड़ी में से आवाज आई। लगता है वृद्ध ने बाहर की बात सुन ली थी।

‘मेरी इच्छा भी तो नहीं है बाबू!’ अल्हड़ भीतर चला गया। पिता जानते थे कि वह जायेगा नहीं। गाँव में दूसरों की बीमारी में वह रात रात भर जागकर सेवा करता है आधी रात को भी जंगल में जड़ी लेने भाग जाता है, फिर अपने पिता को बीमार छोड़कर वह उत्सव देखने जा सकेगा?

“तुम तनिक सो रहो!” रात्रि भर जगने वाले पुत्र से पिता आग्रह कर रहे थे। “मुझे न नींद आती है और न आलस्य।” झूठ तो वह बोलता ही नहीं। बीमार को देखकर उसकी नींद और भूख दोनों भग जाती हैं।

“कुछ खाया भी तो नहीं है! रोटी खा लो।” बीमार का आग्रह था। इच्छा न होने पर भी पिता की आज्ञा थी। आज तक उसने शादी, शिकार और लूट को छोड़कर पिता की कोई आज्ञा टाली नहीं। रोटी नमक लेकर बैठ गया। पानी के सहारे कुछ चीज गले के नीचे ठेल लिए। पिता की चिन्ता में वह भोजन कर नहीं सकता था। बीमारी बढ़ती जा रही थी। जड़ी-बूटियाँ काम नहीं कर रही थीं।

“मेरा तो समय हो गया।” बूढ़े सरदार के समीप सभी भील एकत्र हो गये थे। गाँव के स्त्री बच्चे भी साथ थे। झोंपड़ी भर गई थी। सभी की आँखें डबडबा आई। स्त्रियाँ चीख रही थीं और देखा-देखी बच्चे भी। वृद्ध रुक-रुक कर बोल रहा था “जो कुछ मुझ से कठोरता और भूल हुई हो उसे भूल जाना। यह अल्हड़.....।” वह आगे बोल नहीं सका।कुहराम मच गया। अल्हड़ पिता के पैरों को अब भी हाथ में लिए मूक बैठा था। उसके नेत्र शून्य में कुछ ढूँढ़ रहे थे। वह न रोया न चिल्लाया। चुपचाप ज्यों का त्यों बैठा रहा और जब भील पिता के शव को ले जाने लगे तो वह उनके साथ हो लिया।

सरदार पुत्र होने के कारण भील उसे ही सरदार बना रहे थे। यह बात कड़खू को सहन नहीं हुई। वह बलवान था, उसका हाथ शिकार में सधा हुआ था, निशाना पक्का था। उसके हृदय में स्वयं सरदार बनने की तीव्र इच्छा थी। इसी बलवती इच्छा के कारण वह अल्हड़ से द्वेष करता था। वही उसकी महत्वाकांक्षा में बाधक जो था।

कल बाघ ने दो-बकरियाँ गाँव में मारी थीं। रात्रि में सोते समय वह घुस आया होगा। आज उसे जंगल में ढूँढ़ना है, नहीं तो वह बार-बार आता रहेगा और आदमियों पर भी चोट करने लगेगा। कड़खू कल से ही सबको भड़का रहा था। पर कल तो दिवंगत सरदार के क्रिया कर्म में समय व्यतीत हो गया। आज वह अगुआ बनकर सरदार से साफ-साफ पूछने आया है।

“इस तरह कैसे चलेगा?”

आप ठीक कहते हैं। अल्हड़ ने उसकी महत्वाकांक्षा और द्वेष वृत्ति को समझते हुए प्रस्ताव रखा “आप स्वयं इस जिम्मेदारी को सम्हाल लें।” ऐसे विचित्र प्रस्ताव की किसी ने कल्पना तक नहीं की थी। सभी हतप्रभ थे कड़खू को तो जैसी मन माँगी मुराद मिली।

सरदार का झोंपड़ा, उनके बाण, धनुष और बाघ चर्म क्या होंगे? कड़खू ने पूछा। ये वस्तुएँ सरदार को उपहार मिलती थीं और दूसरों से श्रेष्ठ होती थीं। बीच का बड़ा झोंपड़ा सरदार का समझा जाता था। ‘मुझे कुछ नहीं चाहिए। मैं तो पेड़ की छाल लपेटने जा रहा हूँ। सचमुच अल्हड़ ने जब बाघ चर्म हटाया तो लोगों ने देखा कि वह नीचे भोजपत्र पहने है। मेरे लिए वह गुफा काफी है। पहाड़ी में एक सूनी गुफा थी। उसी की ओर उसका संकेत था।

कोई कुछ कहे, इससे पहले ही अल्हड़ ने उनके बीच से निकल कर गुफा का रास्ता ले लिया। एक-दो जनों ने पुकारा पर उसने ध्यान दिया नहीं। कड़खू ने रोक दिया। “उसे जाने दो! देर करने से काम नहीं होगा। आज बाघ को शाम से पहले ही मार डालना है।” वह ध्यान बटाना चाहता था।

“वह कुछ भी नहीं ले जा रहा है!। एक भील ने कहा। “उसे चाहिए क्या? फल, कंद जंगल से ले आएगा और शिकार करना नहीं जो हथियार ले जावे। कुछ ले जाना चाहेगा तो फिर आकर ले जाएगा।” कड़खू ने सब को जंगल में चलने को प्रस्तुत कर लिया।

इधर अल्हड़ सरदार पद छोड़कर अपने को बहुत सन्तुष्ट अनुभव कर रहा था। पर कर्तव्य और सेवाकर्म उसके अभिन्न अंग थे। रोगियों की सेवा, भूले भटके यात्रियों को आश्रय और चुपचाप एकान्त में किसी का चिन्तन-किसी अज्ञात का जिसे वह भी नहीं जानता। यही उसकी दिनचर्या बन गई। जंगल से लाए कंदों से पेट भर जाता था।

ऐसे आदमी से कौन शत्रुता करेगा? एक बाण सन् से आया और कानों के पास से गुफा की दीवार में जाकर गड़ गया, लगा कि यह तो उसे मारने का प्रयास था। वह डरा या घबराया नहीं गुफा के बाहर देखने लगा।” वह सोच ही रहा था कि सहसा एक चीख सुनाई पड़ी। दौड़ा वह गुफा के बाहर की ओर।

एक रीछ ने कड़खू को पकड़ लिया था। पास में बेर की झाड़ियाँ पड़ी थी उन्हीं में कटी कुछ टहनियाँ लिये अल्हड़ दौड़ा । रीछ के बालों में उसने जाकर उन्हें उलझा दिया और पीछे खड़े होकर रीछ के दोनों नेत्र दोनों हाथों से बन्द कर लिए। घबराकर उसने कड़खू को छोड़ दिया। वह भागा और अल्हड़ भी कूदकर अलग जा खड़ा हुआ। रीछ झपटा पर बड़े-बड़े बालों में जंगली बेर की टहनियाँ उलझी थी, वह उन्हें छुड़ाने में व्यस्त हो गया।

कड़खू दूर भाग नहीं सका था। रीछ के नखों ने बड़े घाव कर दिये थे। रक्त बह रहा था। अल्हड़ ने सहारा दिया। गुफा में लाकर लिटाया और घावों पर कुछ जड़ियाँ पीस कर लगा दीं। एक पखवाड़ा इसी प्रकार बीत गया।

“अल्हड़ उस दिन तुम्हारे हाथ में जो बाण लगा था, मैंने मारा था।” ज्वर और पश्चाताप ने उसे व्याकुल कर दिया था।

“जानता हूँ!” अल्हड़ ने छोटा उत्तर दिया। “कुछ भील मुझे अब भी सरदार बनाना चाहते हैं। वे बाबू के कृतज्ञ हैं और उनके लड़के को इस प्रकार गुफा में नहीं रहने देना चाहते। सरदार का झोंपड़ा और सामान तुम्हारे पास देखकर तुम से वे द्वेष करते हैं।”

“इस झंझट को दूर करने और अपनी सरदारी को निर्विघ्न करने का रास्ता मैंने सोचा था तुम्हें मार देना। उस दिन का गुफा में आया बाण भी मेरा था। अब मुझे मार दो।” वह रोने लगा। “रोओ मत। तुम्हें देखते ही मैं समझ गया था। चलो जो हुआ उसे भूल जाओ।” अल्हड़ में न रोष था और न क्रोध।

“तुमने सब जानकर मुझे बचाया क्यों?” रोगी की हिचकी बँध गई। पश्चाताप ने उसे मूर्छित सा कर दिया।

“वह मेरा कर्तव्य था। अब रो-रो कर अपनी तबियत बिगाड़ोगे तो मैं नाराज हो जाऊँगा।” सगे भाई के समान स्निग्ध स्वर में उसने कहा। जड़ी पिसी उसके हाथ में थी। रोगी ने उसके मुख की ओर भरे नेत्रों से देखा। दवा पीना अस्वीकार न कर सका। चुपचाप मुख खोल दिया।

उस दिन शाम को स्वस्थ प्रायः ठीक हो जाने पर कड़खू को उसके घर छोड़कर वह लौटा ही था अभी एक मधुर और चिर आत्मीय स्वर उसके कानों में पड़ा। “अल्हड़ हम आज तुम्हें गुफा में नहीं रहने देंगे। हमारे लिए इसे खाली कर दो।” भगवान राघवेन्द्र जानकी और लक्ष्मण के साथ खड़े मुस्करा रहे थे। जो प्रार्थना करने पर भी महर्षियों के आश्रमों में कदाचित् ही ठहरते हैं, बड़े-बड़े भील सरदारों के आग्रह पर जो पेड़ के नीचे एक घड़ी भी नहीं ठहरे वे अल्हड़ से स्वयं उसकी गुफा माँग रहे हैं। माँग कहाँ रहे हैं? अपनी समझ कर बिना माँगे ले लिया।

माता जानकी के साथ प्रभु उसी शय्या पर लेटे। वे पत्ते उन्होंने उठाने नहीं दिये। थोड़े किसलय उसने और बिछा दिये। लेटते हुए प्रभु भगवती सीता से कह रहे थे “देवि! आज इस देश के परम सुसंस्कृत व्यक्ति के आवास में रहने का सौभाग्य मिल रहा है।” “सुसंस्कृत?” जानकी के नेत्रों में आश्चर्य घना हो गया। उन्हें लगा अनेकानेक तपस्वी, ज्ञानी, ऋषियों, शक्तिशाली और वैभववान् राजाओं के रहते एक भील...। वह कुछ अधिक कह न सकीं।

मुसकराते हुए प्रभु का स्वर उभरा “देवि! संस्कृति की प्रतिष्ठा सदाचार में है और जिसमें सदाचार अपनी पूर्णता के साथ प्रतिष्ठित है वही सुसंस्कृत है, संस्कृति पुरुष है और अल्हड़ से अधिक...।” आगे के शब्द भाव में डूब गए। प्रभु की यह वाणी गुह्याद्वार पर लक्ष्मण के साथ बैठे उसके कानों में भी पड़ी। लक्ष्मण की स्नेहिल आँखें उसकी ओर उठीं। प्रातः जब प्रस्थान करने लगे वह उनके श्री चरणों में मस्तक रखने के लिए बढ़ा। पर पुरुषोत्तम ने इस संस्कृति पुरुष को उठाकर छाती से लगा लिया। यह लक्ष्य और मार्ग का मिलन था।


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