अति सामर्थ्यवान है, यह सूक्ष्मजगत

May 1992

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यदि किसी व्यक्ति के समक्ष किसी मृत की अनुकृति प्रकट हो जाय, तो वह भयभीत होकर भूत-भूत कहता भाग खड़ा होगा, किन्तु यदि कोई व्यक्ति अपने सामने अपनी ही प्रतिकृति को काम करता देखे तो इसे क्या कहा जाय? भ्रम? भय? या मस्तिष्कीय विकार? सामान्य बुद्धि कुछ भी समझ सकती है, पर आध्यात्मिक पुरुषों के लिए यह न तो भ्रम है, न भय की परिणति और न मानसिक दुर्बलता का परिणाम, वरन् एक सात्त्विकता है, जिसकी सत्ता से इंकार नहीं किया जा सकता। आये दिन ऐसी कितनी ही घटनाएँ घटती रहती हैं, जिनमें सूक्ष्म शरीर के मामले प्रकाश में आते रहते हैं।

एक घटना जर्मनी की है। म्यूनिख शहर का एक अभियंता जब दोपहर के भोजन के लिए कार्यालय से अपने निकटवर्ती मकान में आया, तो भोजन से पूर्व किसी कार्यवश अपने शयन कक्ष में प्रवेश किया, किन्तु वहाँ एक सर्वथा अपरिचित व्यक्ति को देख कर आश्चर्य में पड़ गया। वह व्यक्ति दीवार के सहारे कोई चित्र टाँगने में व्यस्त था। उसे क्रोध चढ़ आया। अभी वह कुछ बोल पाता, इससे पूर्व ही पदचाप सुनकर अजनबी उसकी ओर मुड़ा उसे देखते ही एडरिच का गुस्सा शान्त हो गया। सामने उसी का प्रतिरूप खड़ा था। आश्चर्य मिश्रित भय से उसके होठ बन्द हो गये। मुँह से कोई भी शब्द न निकल सका। एक पल तक दोनों आमने-सामने खड़े रहे, फिर प्रतिरूप अचानक गायब हो गया। अब एडरिच को होश आया। दीवार की ओर दृष्टि दौड़ाई ता वह यह देख कर हैरान रह गया, कि जो चित्र लगाया गया है, वह उसी की तस्वीर है। कमरे में सामने ही उसका ड्राईंग बोर्ड था। अकस्मात् ध्यान उस ओर गया, तो वह और विस्मय में पड़ गया। वह जिस नक्शे को महीनों के प्रयास से न बना सका था, वही कागज पर बना पड़ा था।

इसी से मिलती-जुलती घटना का वर्णन डॉ. ग्रिफन ने अपनी पुस्तक “साइकिक पावर” में किया है, वह पेशे से मनःचिकित्सक थे। प्रतिदिन सुबह से शाम तक अपने क्लीनिक में रोगियों को देखते और शाम को घर लौट आते। एक दिन क्लीनिक में अप्रत्याशित भीड़ हो गई। रोगियों को वे जल्दी-जल्दी देखने लगे। सोच रहे थे कि समस्त मरीज आज ही निपटा दिये जायँ। इस कारण उन्होंने दोपहर का भोजन भी नहीं लिया और सिर्फ चाय से संतोष कर लिया। चाय पीने के उपरान्त पुनः वे बीमारों को देखने में जुट पड़े। धीरे-धीरे शाम हो गई किन्तु अब भी 25 मरीज शेष थे। किसी भाँति 20 को निपटा दिया गया। अब तक रात के आठ बज चुके थे और डॉ. ग्रिफन बुरी तरह थक गये थे। आराम की नितान्त आवश्यकता महसूस हो रही थी। सोच रहे थे कि शेष 5 को कल बुला लिया जाय, पर इसी समय विचार आया कि इतनी देर बिठाये रखने के बाद लौटा देना ठीक नहीं। रोगियों को इससे मानसिक वेदना होगी। अस्तु उनने बचे हुओं को भी देख लेना उचित समझा और उनके जीवनवृत्तांत सुनने और सलाह देने में पुनः व्यस्त हो गये। तब सभी रोगी निपट चुके, तो रात के साढ़े नौ बज चुके थे। थककर उनका बुरा हाल था। उनने जैसे-तैसे क्लीनिक बन्द किया, गाड़ी स्टार्ट की और घर की ओर चल पड़े। आधे घंटे बाद गन्तव्य पर पहुँचे। कमरे के अन्दर प्रकाश हो रहा था। यह देख आरंभ में तो उनने सोचा कि संभवतः प्रातः जल्दबाजी में लाइट बुझाना भूल गये हों, इसलिए अब भी वह जल रही है। ताला खोलकर वे कमरे में प्रविष्ट हुए। नजर जैसे ही पलंग पर पड़ी, वे चौंक पड़े, सामने एक अन्य ग्रिफन महोदय लेटे पुस्तक पढ़ रहे थे। वे पलंग के और निकट आ गये और ध्यान से देखने लगे। पता चला दोनों में जरा भी अन्तर नहीं है। वे असमंजस में पड़ गये। आखिर यह हमशक्ल कौन हो सकता है? यहाँ क्यों आया और इतने साहस और सहजता से पुस्तक पढ़ने में तल्लीन कैसे है? इसी उधेड़बुन में वे पड़े थे कि देखा प्रतिरूप शनैः शनैः बिस्तर से ऊपर उठ रहा है और स्पष्टता मलिन होती जा रही है। कुछ क्षण पश्चात् आकृति तिरोहित हो गई। न वहाँ उसका कोई निशान था, न ही वह पुस्तक। अब सब कुछ सामान्य था।

लगभग ऐसी ही घटना इंग्लैण्ड के एक प्रशासनिक व्यक्ति से संबंधित है। बात बीसवीं सदी आरंभिक दशक की है। उन दिनों हाउस आफ लार्ड्स में बहस चल रही थी। विपक्षी दल तरह-तरह के अभियोग लगाकर सरकार को गिराने के लिए उतारू थे। संसद के एक महत्वपूर्ण व्यक्ति इन्हीं दिनों बीमार पड़ गये थे। उनकी अनुपस्थिति सरकार के लिए खतरनाक हो सकती थी। इलाज जारी था, पर वे स्वस्थ नहीं हों पा रहे थे। उधर सदन की बहस भी जारी थी। जिस दिन अविश्वास के प्रस्ताव पर विपक्षी सांसदों के मत लिए जा रहे थे, उस दिन सरकारी पार्टी के सांसदों ने जब सर कार्न रॉस को अपनी कुर्सी पर मौजूद पाया, तो उन्हें आश्चर्य भी हुआ और प्रसन्नता भी किन्तु तब लोगों ने यह समझ कर कुछ नहीं पूछा कि शायद वे स्वस्थ हो गये हों, पर वास्तविकता का पता तो बाद में ही चल पाया, जब उस दिन के उपरान्त वे दो सप्ताह तक सदन की गतिविधियों में हिस्सा नहीं ले सके। पता लगाने पर ज्ञात हुआ कि वे अब तक स्वस्थ नहीं हो सके हैं, अस्तु संसद में उपस्थित होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता किन्तु उनकी उपस्थिति के साक्ष्य के रूप में उस दिन की सामूहिक तस्वीर आज भी सदन की दीवार पर लटकी देखी जा सकती है।

ब्रिटिश परामनोविज्ञानी रिचर्ड बुलकर ने अपने जीवन के महत्वपूर्ण संस्मरणों को “मेमोयर्स” नामक पुस्तक में प्रकाशित किया है। इसमें अनेक संस्मरण सूक्ष्म शरीर से संबंधित भी हैं। एक संस्मरण का उल्लेख करते हुए वे लिखते हैं कि एक बार उनकी माँ गंभीर रूप से बीमार पड़ी। घर से, तुरन्त चले आने संबंधी तार आया। जब तार प्राप्त हुआ, उस समय तक वहाँ जाने वाले सारी गाड़ियाँ जा चुकी थीं। अतः उनका जाना एक दिन बाद ही संभव हो सकता था, किन्तु समाचार से उनका मन इतना बेचैन हो उठा कि एक दिन रुक पाना भी भारी होने लगा। निदान उनने एक प्रयोग करने को सोचा। परामनोविज्ञानी होने के नाते सूक्ष्म शरीर से यात्रा के अनेक प्रसंग उनने सुन और पढ़ रखे थे, अतः उसी शरीर से वहाँ पहुँचने का निश्चय किया। वे एक एकान्त कमरे में जाकर मन को एकाग्र करने लगे। जब एकाग्रता प्राप्त हुई, तो दृढ़ इच्छा की कि वे अपने घर रोगग्रस्त माँ के पास अवश्य पहुँचेंगे। लगभग आधे घंटे के उपरान्त उन्हें माँ चारपाई पर पड़ी स्पष्ट दिखाई पड़ी। वह स्वस्थ तो नहीं हो सकी थीं, पर इतनी अस्वस्थ भी नहीं कि मामला गंभीर माना जाता। उनने माँ के शरीर का स्पर्श करने की कोशिश की, पर सफल न हो सके। इसके पश्चात् ही दृश्य दिखाई देना बन्द हो गया। दूसरे दिन जब वे घर पहुँचे तो माँ ने बड़े विस्मय भरे शब्दों में इस घटना का अक्षरशः वैसा ही उल्लेख किया जैसा उनने देखा था।

इन घटनाओं को विज्ञान भ्रम अथवा मन की काल्पनिक संरचना कहकर टाल सकता है, पर अध्यात्मवादी जानते हैं कि ऐसी घटनाएँ सर्वथा असंभव भी नहीं। योगी-यति ऐसी क्षमताएँ कठिन तपश्चर्याओं द्वारा स्वयं को साध और शोध कर अर्जित करते हैं, किंतु जहाँ मनोभूमि पहले से परिष्कृत होती है, वहाँ शोधन की कष्टसाध्य प्रक्रिया से नहीं गुजरना पड़ता और थोड़े से प्रयास-अभ्यास द्वारा इसे सम्पन्न किया जा सकता है। उपरोक्त प्रसंगों में यही हुआ ऐसी अध्यात्म-विज्ञान की मान्यता है।


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