अचरज इस बात का है कि जितने प्रश्न आज हमारे पास हैं, उससे कहीं ज्यादा उत्तर हैं। लेकिन इतने पर भी जिन्दगी समस्याओं से भरी और उलझनों से घिरी है। प्रत्येक समस्या के अंकुरित होते ही उस पर चारों ओर से समाधानों की बौछार होने लगती है। पर कुछ ही क्षणों में सारे समाधान मिट्टी में मिल जाते हैं और समस्या का वट-विटप जन जीवन को अपनी विषैली छाँव से घेरता दीख पड़ता है। जैसे इन समाधानों न ही इसे खाद बनकर पोषण दिया और फैलाया हो।
तत्त्ववेत्ता डी. एस. राबिन्सन के शब्दों में “बात सही है। मरे समाधान ज्यादा से ज्यादा खद का काम ही कर सकते हैं।” अपनी पुस्तक “एन्थेलॉजी आफ रीसेन्ट फिलॉसफी में उनने कहा कि समाधान बहुत हैं, लेकिन हैं सब मरे हुए। जैसे मरे हुए आदमी और जिन्दा आदमी के बीच कोई बात-चीत सम्भव नहीं। हर सवाल के साथ एक उलझन है कि वह नया है और उसे हमारी तनिक भी परवाह नहीं। समस्याएँ कभी हमसे पूछकर नहीं आतीं। उनके आ जाने पर भी हम पुराने समाधानों को मजबूती से पकड़े बैठे रहते हैं। हमें ऐसा लगता है कि समाधान हमारे पास है फिर भी समस्याएँ हल नहीं हो पा रहीं। शास्त्रों की पोथियों से हम घिरे बैठे हैं और जीवन है कि उलझता जा रहा है।
इसके पीछे बुनियादी भूल है-नयी खोज का बन्द हो जाना। जबकि नए प्रश्न नए उत्तर चाहते हैं। नयी समस्या नया समाधान माँगती है। नयी परिस्थितियाँ बदले स्वरों में नयी चेतना को चुनौती दे रही हैं। सच कहा जाय तो इनकी उपज ही इसलिए है कि मानवी चेतना अपने नित नए आयाम विकसित कर सके। मनोवैज्ञानिक बाल मन के सामने तरह-तरह की उलझन भरी पहेलियाँ रखने का सुझाव देते हैं। प्रत्यक्ष में इस तरह के कार्य का अर्थ समय और श्रम की बरबादी है। किन्तु जिन्हें मानव मन के गूढ़ रहस्यों का ज्ञान है उन्हें मालूम है कि इस तरह की पहेलियों को हल करने में लगी बुद्धि की विश्लेषण-विवेचन क्षमता अनेकों गुना बढ़ सकेगी। ठीक इसी तरह से सामूहिक और वैयक्तिक जीवन में उभरती समस्याएँ प्रकृति द्वारा प्रस्तुत की जा रही नयी-नयी पहेलियाँ हैं। इन्हें हल करने में संलग्न रहने के कारण ही मनुष्य अपने मन और बुद्धि के इस उत्कर्ष तक पहुँच सका है। ज्ञान की वही विध अपना सर्वाधिक विकास कर सकी, जिसने नए सवालों की चुनौती को स्वीकार कर नए जवाब खोजने में तत्परता बरती। विज्ञान की शाखा-प्रशाखाओं का रोज होता जा रहा विस्तार इसी का परिणाम है।
यदि यह विकास और विस्तार अवरुद्ध है तो तत्त्वदर्शन का, जीवन जीने की कलाओं और इसके विज्ञान का। जिन्दगी के व्यापक परिक्षेत्र में उठने वाली समस्याओं का हल खोजने के लिए अभी भी हम सहस्राब्दियों पुरानी सड़ी-गली पोथियों के बदरंग हो गए पन्ने थामे बैठे रहते हैं, परम्पराओं-प्रथाओं और रूढ़ियों के ढेर में इस कदर उलझ जाते हैं कि विवेक ही गुम हो जाता है। इनमें से किसी की तनिक सी अवहेलना हमें पूर्व पुरुषों का उपहास मालूम पड़ती है।
हमारे सामने इसलिए पहला जीता-जागता सवाल है कि इन मरे हुए उत्तरों को कब विदा किया जायगा क्या कारण है कि हमने नए उत्तर नहीं खोजे? अगर हमारे पास उत्तर हैं ही रेडीमेड, तो हम नए खोजने की तकलीफ क्यों उठाएँ? मन की तो सहज इच्छा होती है लीस्ट रेसिस्टेंस-की कम से कम तकलीफ उठानी पड़े।
उत्तर तैयार है तो उसी से काम चला लें। एक बारगी हमें पुराने उत्तरों से मुक्त और रिक्त हो जाना पड़ेगा, तभी हम उस बेचैनी में नयी समस्याओं के लिए समाधान खोजने में तत्पर हो पाएँगे।
भविष्य के भव्य महलों का निर्माण तभी सम्भव है जब पुराने खण्डहरों का मोह छूटे। इसका मतलब यह नहीं कि अतीत सर्वथा निरर्थक या हानिकर है। इसका उपयोग प्राचीनता की वास्तुकला को जानने में उन तकनीकी बारीकियों को पकड़ने में है जिनके आधार पर अतीत की इमारत अपने युग के जीवन को सुखद छाँव प्रदान कर सकी। लेकिन उपयोगिता की सीमा संकेतों को ग्रहण कर नई शोध करने तक सीमित है। नकल करने के फेर में पड़ने पर हमें सब कुछ गँवा बैठने के लिए विवश होना पड़ेगा।
नई शोध-नया समाधान भारत भूमि की गौरवमयी परम्परा रही है। इसमें किसी तरह का प्रमाद यहाँ की संस्कृति में सर्वथा वर्जनीय माना गया है। जिसे हम वैदिक युग का स्वर्ण युग कहते हैं वह नए समाधानों की ढूँढ़ खोज का युग था। अर्थ और कर्म की अपेक्षा ज्ञान महत्वपूर्ण था। ज्ञान की खोज में तत्त्वदर्शन की मीमांसाओं में लगे ऋषि-मुनि समाज में सर्वोपरि सम्मानित पुरुष थे। धर्म सभाओं, यज्ञ आयोजनों का एकमेव उद्देश्य था नए समाधानों से जन सामान्य को अवगत कराना। जब कभी इसमें जड़ता आयी है, समाज और व्यक्ति के कदम पतन की ओर मुड़े हैं। महाभारत कालीन समाज की अव्यवस्थित स्थिति का एक मुख्य कारण यह भी था। उस युग के बौद्धिकवर्ग ने यह मान्यता बना ली थी कि हम सिर्फ प्राचीनता के पूजक होकर जिएँगे नयी शोध नहीं स्वीकारेंगे। वेद तीन हैं इनकी संख्या चार नहीं हो सकती। भगवान व्यास ने अपने पुरुषार्थ और नीति बल से इस मान्यता को ध्वस्त किया। महर्षि महाअथर्वण ने ऐसे ढेरों नए समाधान ढूँढ़े थे जिनकी प्रयोजनीयता को सत्य होने के बाद भी स्वीकारा जा रहा था। व्यास ने इसे लेकर अथर्ववेद की रचना की। नए तत्त्वदर्शन का विस्तार किया।
इन दिनों की स्थिति बहुत कुछ वैसी ही है, कारण कि दुनिया एक बहुत बड़ी क्रान्ति से गुजर रही है। इस क्रान्ति का काफी कुछ भाग सम्पन्न हो चुका है बहुत कुछ सम्पन्न होना बाकी है। अगर हम यह न समझ सके तो सवाल रोज बढ़ते जाएँगे और एक भी हल न निकाल सकेंगे। इस क्रान्ति की तीव्रता को समझाते हुए मूर्धन्य मनीषी जे. वाट्स कनिंघम ने अपने ग्रन्थ ह्यूमिनिटी इन इवॉल्युशन में कहा है कि ईसा के मरने के अठारह सौ पचास वर्षों में दुनिया का जितना ज्ञान बढ़ा, जितनी तेजी से बदलाव आया पिछले डेढ़ सौ सालों में उतना सम्पन्न हो गया और पिछले डेढ़ सौ सालों में जो कुछ हुआ उतना पिछले पन्द्रह वर्षों में हो सका। अब आगामी नौ सालों में जितना कुछ सम्पन्न होने जा रहा है, उसको देखते हुए इन सभी प्रतिमानों को टूटना पड़ेगा।
पुरानी दुनिया को एक सुविधा थी। उसमें बदलाव का फासला इतना लम्बा होता था जिसका कोई हिसाब नहीं। हजारों साल तक वही उत्तर काम देता था इतने पर भी यहाँ जीवन विद्या के तत्त्वदर्शी ऋषियों ने नए हल की खोज के लिए “माप्रमदितव्यं” का निर्देश दिया था। अब जबकि बदलाव बहुत तेज है, नौ सालों में दुनिया का नया स्वरूप गढ़ा जाना है। तब बदली हुई दुनिया के लिए नए समाधान की खोज सर्वोपरि आवश्यकता बन चुकी है। बाप-बेटे की उम्र का फासला यों तो बीस साल का दीखता है। लेकिन अगर गिनती ठीक से करें तो अन्तर अठारह सौ साल का मालूम पड़ने लगेगा। क्योंकि पुरानी दुनिया के अठारह सौ सालों में जो बदलाव आता था वह अब पन्द्रह सालों में आ जाता है। ऐसे में इस बदली हुई स्थिति में हल के लिए पुरानी पोथियाँ उलटे तो निराशा का हाथ लगना सहज है क्योंकि सारी परिस्थितियाँ बदली हुई हैं।
अब सारा विश्व एक गाँव हो गया है। जितनी देर एक गाँव से दूसरे गाँव पहुँचते थे, आज उतनी देर में हम दिल्ली से लन्दन पहुँच सकते हैं। इन दिनों न केवल मनुष्यता जुड़ गई है बल्कि उसके जुड़ने के तरीके बदले हुए । पहले एक जाति अथवा एक धर्म के अनुयायी ही एक स्थान में रहते थे। अब यह स्थिति नहीं है। वर्ग और आश्रम के मूल आधार बिखर चुके है। सामाजिक सम्बन्ध ही नहीं राजनीतिक खाँचा-ढाँचा बदला हुआ है। राजतन्त्र की परिपाटियों को लागू करने की सोच भी अप्रासंगिक बन चुकी है। ऐसे में अनिवार्य बन चुकी है नए तत्त्वदर्शन की खोज। बदले हुए परिवेश में मनुष्य के भौगोलिक और भावनात्मक सम्बन्धों की व्याख्या समीचीन है। प्रकृति और ईश्वर के साथ मधुर सम्बन्ध आज कैसे बन सके इसका स्पष्टीकरण अनिवार्य है।
महाकाल की अदृश्य शक्ति, दृश्य हलचलें भविष्य के इसी तत्त्वदर्शन का ताना-बाना बुनने में लगी हैं। पर इतना ही तो पर्याप्त नहीं। पूर्णता तो तभी आ सकेगी जब मनुष्य पुरातन परम्पराओं, प्रथाओं का मोह छोड़ सके। विचार क्रान्ति अभियान द्वारा प्रस्तुत किए जा रहें नए समाधानों से समस्याओं के चक्रव्यूह का बेधन शुरू कर दे। स्वयं चिन्तन के सागर में उतर कर विवेक के मोती बीनने लगे। ऐसा हो सके तो समझना चाहिए कि युग परिवर्तन के महान दायित्व में हमारी भागीदारी बन पड़ी। आज के भागीदार ही तो कल के युग संचालक का गौरव प्राप्त कर सकेंगे।