जरथुस्त्र जब जन्मे तो हँसते हुए पैदा हुए। अन्य बालकों की तरह रोए नहीं। सभी आश्चर्य चकित कि यह रोए क्यों नहीं। भाँति-भाँति की अटकलें लगाई गयीं। जब जरथुस्त्र बड़े हुए तो लोगों ने जन्म के समय हँसने का वृत्तान्त उन्हें सुनाया व इसका रहस्य जानना चाहा। वे बोले-हम तो करा रहे थे तब भी हँस रहे थे। तब से ही पर्दे के पीछे से हँसते चले आ रहे हैं। हम जन्म के समय ही नहीं हँसे। हर परिवर्तन हँसकर ही झेला जाता है।” समझ में नहीं आया कि मरते समय क्यों हँसे। पूछा गया तो बोले कि “लोगों को रोते देखकर हँसी आ गयी कि कितने नादान हैं। हम मकान बदल रहे हैं तो इन्हें क्यों परेशानी हो रही है।”
यदि हम परिवर्तन इसी तरह मुस्कराकर स्वीकार कर लें तो जीवन जीने का मंत्र आ जाय।
महर्षि पतंजलि योगदर्शन के प्रथम पाठ के 17 वें सूत्र में इसके अन्य आयामों का उद्घाटन करते हुए कहते हैं कि “किसी पवित्र विचार पर लगातार निदिध्यासन करने पर विवेकपूर्ण तर्क प्रवणता से आनन्द मिलता और अहं के आभासी भाव से छुटकारा हो इन्द्रिय विषयों से अहं का तादात्म्य छू जाता है और संप्रज्ञात स्थिति की गति होती है।” महर्षि के उपरोक्त सूत्र से स्पष्ट है कि विचारों का सुगठन न केवल बाह्य जीवन को परिष्कृत, प्रखर और तेजस्वी बनाता है अपितु चेतना के उन्नत स्तरों के द्वार भी उन्मुक्त करने वाला है इसका अवलम्बन ग्रहण कर हममें से प्रत्येक अपने जीवन का बहुआयामी विकास सहजतापूर्वक कर सकता है।