संस्कृति का शाश्वत ज्वलन्त प्रश्न!

May 1992

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“वह मेरा नौकर था पर कभी उसने मुझसे वेतन के सम्बन्ध में कुछ कहा नहीं। जो कुछ उसे मिल जाता, वही बहुत था। पहली तारीख को मैं ही उसे बुलाकर वेतन देता। एक बार परीक्षा के लिए मैंने नहीं बुलाया। पूरे महीने नहीं बुलाया। न माँगने आया वह। दूसरे महीने स्वयं बुलाकर दोनों महीने का वेतन देना पड़ा।” साहब अपने एक नौकर की आत्मकथा सुना रहे थे।

नैनीताल सेऊ पर रानीखेत के पास मिस्टर विलियम जोन्स ने अपना बंगला बना लिया था। वहाँ के झरनों में गन्धक बताया जाता है। उसके गरम जल से पेट के समस्त रोग ठीक हो जाते हैं। सम्भवतः इसी लालच से वे वहाँ रहने लगे थे। अपनी काव्य क्षमता से राष्ट्रीय चेतना को झकझोरने वाले मैथिलीशरण गुप्त भी इसी उद्देश्य से लगभग एक महीने से वहाँ रुके थे। साहब बँगले में अकेले ही रह रहे थे। मेम साहब उनके है नहीं। एक माली, एक खानसामा, और एक टॉमी (कुत्ता) बस यही उनका परिवार है।

यहाँ कोई और मिलने-मिलाने वाला न होने से गुप्त जी इन साहब के साथ अवसर मिलते ही जा बैठते थे। एक दिन एक पहाड़ी पर टहलते हुए इन दोनों का परिचय हुआ और फिर इनकी घनिष्ठता हो गई। अँग्रेज सज्जन में वह औद्धत्य तनिक भी नहीं था-जो उन दिनों ब्रिटिश भारत में रहने वाले किसी भी अँग्रेज में होना सामान्य बात थी। घंटों दोनों साथ बैठकर भारतीय संस्कृति, हिन्दी साहित्य पर चर्चा करते। बड़ी शुद्ध हिन्दी थी उनकी, उनका अध्ययन गाम्भीर्य देखकर गुप्त जी हतप्रभ रह गए।

उस दिन भारतीय संस्कृति पर चर्चा आरम्भ ही हुई थी। उसी बीच उन्होंने कहा मि. गुप्त भारत की और पश्चिम की संस्कृति में एक मौलिक भेद है। थोड़ी देर चुप रह कर उनके चेहरे की ओर ताकते हुए बोले भारतीय संस्कृति में श्रेष्ठता का मानदण्ड है “तुम क्या हो?” जबकि पश्चिमी संस्कृति में श्रेष्ठता का मापन “तुम्हारे पास क्या है?” का उत्तर मिलने पर होता है। “उसका मिलना, साथ रहना मेरे जीवन की स्थाई अनुभूति बन गई है।” अँग्रेज सज्जन किन्हीं भावों में निमग्न होने लगे। “तभी मैं समझ सका कि यहाँ की संस्कृति रैदास-कबीर जैसे गरीबों, बेपढ़ों को श्रेष्ठ क्यों मानती है? राज्य छोड़ देने के बाद बुद्ध महावीर श्रेष्ठतम कैसे बन गए? यहाँ के सांस्कृतिक आदर्श को ठीक-ठीक घटित होते मैंने उसके जीवन में देखा है। आज समझता हूँ। सचमुच कोई ऐसा परम तत्त्व है जिसे पा लेने पर मनुष्य आप्तकाम हो जाता है। वह श्रेष्ठता से कहीं अधिक श्रेष्ठ बन जाता है। फिर विश्व का श्रेष्ठतम धनिक, संसार का सर्वोत्कृष्ट विद्वान, सब कनिष्ठ हो जाते हैं। यहाँ की संस्कृति के इस अद्भुत रहस्य को मैं समझ सका हूँ। लेकिन उस समय मैं मोहान्ध था।” दोनों की चर्चा मि. जोन्स की स्मृतियों के टेढ़े-मेढ़े गलियारों से गुजरने लगी।

“अफ्रीका के बोअर युद्ध में मैं एक कर्नल था। सही मानव को नृशंसता का नंगा चित्र देखने को मिला। घृणा हो गई । भारत के सम्बन्ध में बहुत कुछ पढ़ रखा था। यहाँ आ गया और आगरे में कर ली प्रोफेसरी। यहाँ आने से पहले तक मैं वहीं था।” साहब ने अपना संक्षिप्त परिचय दिया ।

“मेरे बँगले के सामने फूलों का छोटा बगीचा था। जैसा कि तुम यहाँ देख रहे हो। फूलों से सदा मुझे प्रेम रहा है। उन्हीं के लिए एक माली रहता था। वह बुड्ढा था और अकेला ही था। बंगले के कोने में उसकी कोठरी थी, ,खुरपी, फावड़ा, फुहारा, बाल्टियाँ, बड़ी कैंची आदि बगीचे का समान उसी में रहता था। बुड्ढ़े ने एक कोना खाली कर लिया था । वहीं वह अपनी रोटियाँ बना लेती और अपनी चटाई डालकर सो जाता।” उस बुड्ढ़े के स्मरण से साहब की आँखें भर आयीं ।

“एक कम्बल, फटी हुई दो धोतियाँ, दो अँगोछे और एक मिर्जई इतने ही कपड़े थे। एक तवा, एक लोटा, एक बटलोई और एक थाली-बर्तनों के नाम पर और कुछ नहीं था। एक चटाई उसकी गृहस्थी में और बढ़ गई थी। बड़े सबेरे स्नान करके बंगले के सामने मन्दिर में दर्शन कर आता और फिर जुट जाता बगीचे के काम में। दिन में एक ही बार दो बजे के लगभग रोटियाँ बनाता। उजाला रहने तक उसकी खुरपी काम करती रहती और शाम होते ही लालटेन जलाकर फटक पर बैठ जाता और वहीं से सामने मन्दिर की रामायण सुनता। मेरे पास दरबान नहीं था, अतः मैंने उसे शाम को कहीं न जाने के लिए कह दिया था।” साहब यह वाक्य कहते-कहते किन्हीं गहराइयों में खोने लगे।

चिन्तन से क्रमशः उबरते हुए उन्होंने अपनी चर्चा आगे बढ़ाई। “बेल ! तुम पौधों को ठीक सींचता नहीं ! हमारे पौधे सूख गए।” मैं एक दिन उस अप्रसन्न हुआ।

“सींचता तो हूँ हुजूर परसों ओले पड़े थे उन्हीं से शायद ऐसा लग रहा है।” उसने सहज नम्रता से कहा था।

“हम कुछ सुनने नहीं माँगता जुर्माना करेगा तुमको !” मैंने नोट बुक खोली और पेन उठाया “चार रुपया जुर्माना !”

“जो हुजूर की मर्जी!” वह बुड्ढा सलाम करके चला गया। मैं स्तम्भित रह गया। उस झुर्री पड़े सफेद बाल वाले माली ने मुझे चकित कर दिया। एक रुपया जुर्माने पर खानसामा दिन भर रोता रहता है। महीने भर माफी माँगता है। उसकी तनख्वाह पच्चीस है जबकि उस बुड्ढे की सिर्फ आठ। न रोया न प्रार्थना की और न दुःखी हुआ। चार रुपये में क्या खाएगा वह? सामने मन्दिर में जो वह हर महीने पूजा करता है कैसे करेगा? ऐसा नौकर मैंने पहले कभी नहीं देखा था।

“मिली!” दूसरे दिन मैंने पुकारा

“हुजूर!” पौधों की निराई छोड़कर पास आया वह। “हम तुमको माफ करता है! अच्छा काम करने पर तुमको इनाम मिलेगा!” मैंने उस पर दया करते हुए कहा।

“हुजूर की मर्जी” चला गया वह सलाम करके। न खुश हुआ और न कृतज्ञता प्रकट की! कैसा मनहूस आदमी है। मुझे अपने आप पर गुस्सा आया क्यों इसे क्षमा किया। उस दिन मैंने उसे अच्छी तरह तंग करने का निश्चय किया।

जब मनुष्य क्रोध करता है तो अन्धा हो जाता है। उसकी सहज वृत्तियाँ अन्धकार में पड़ जाती हैं। वह नीचता के गढ्ढे में गिरता है और गिरता चला जाता है। मैं नीचता पर उतर आया था मि. गुप्त । मि. जोन्स ने मैथलीशरण की ओर देखते हुए अपने अतीत को कुरेदा।

मैंने खानसामा से कहा चुपके से बुड्ढे का कम्बल उठा लाओ! माघ की रात्रि एक दिन पहले ओले पड़ चुके थे। उस दिन भी बदली थी । बुड्ढा शाम को खूब चिल्लायेगा कोई दूसरी बात मेरे मन में नहीं थी ।

दस बजे रात को मैं चौंक कर उठा । खानसामा बुलाने आया था उसने रिपोर्ट दी माली न तो बड़बड़ाया न तो गालियाँ दी! केवल इतना ही कहा किसी बेचारे की ठंडी रात सुख से कटेगी! अच्छा हुआ। अब वह सूखी घास बगीचे से ले आया है उसी की ढेर बनाकर उसमें पड़ा है!

“कम्बल दे आओ! मेरा नाम मत लेना। “ “मैंने दया तो अवश्य दिखलाई पर पराजय स्वीकार नहीं की। इस जिद के मारे मैं उस वर्ष गर्मियों की छुट्टी में नैनीताल नहीं गया। ज्येष्ठ की कड़ी दुपहरी में बगीचे की सघन छाया में बैठकर बुड्ढे से ठीक निर्जला एकादशी को पूरे दिन घास छीलवाई मैंने। वह एक बार भी असमर्थता बताता, गिड़गिड़ाकर छुट्टी माँगता तो मैं प्रसन्न हो जाता, पर वह चुपचाप काम करता रहा।”

खानसामे ने शाम को बुड्ढे से कहा “साहब पूरा जल्लाद है। व्रत के दिन भी.....।” मैं सुन रहा था। “छिः मालिक की निन्दा करते हो? काम नहीं लेंगे तो क्या मुख देखने को रखा है। वैसे बड़े दयालु हैं।” मैं अधिक सुन नहीं सका। बंगले में आकर आराम कुर्सी पर धम्म से बैठ गया।

“लेकिन अभी मेरा अहंकार हारा नहीं था, मैंने दूसरे दिन खानसामा को कुछ इधर-उधर की समझा कर भेज दिया। मुझ से पूछ कर ही वह मालियों की पंचायत में गया था। पंचायत का चौधरी था वह। भरी पंचायत में जाकर खानसामा ने उसे गालियाँ दी और थप्पड़ लगाया चोर कहकर खानसामा उसे पकड़कर मेरे पास ले आया। मेरे पूछने पर उसने कहा मुझे कोई शिकायत नहीं है! हुकुम हो तो पंचायत का काम पूरा कर आऊँ । सुना मालियों में बड़ी उत्तेजना थी। वे खानसामा की खूब मरम्मत करना चाहते थे। बुड्ढे ने उन्हें समझाकर शान्त किया बेचारे के पैसे खो गए ! मुझ पर सन्देह न होता तो वह ऐसा क्यों करता? हानि से दुखी है भूल हो गई। मैं सुनकर ठक् रह गया। सोचने लगा कि ईर्ष्या मनुष्य को कितना नीच बना सकता है।”

“मैंने दूसरा माली रख लिया। बुड्ढे को केवल निगरानी का काम दे दिया और वेतन दुगुना कर दिया। कोई खुशी नहीं दिखाई दी उसके चेहरे पर। दूसरे दिन वह ज्यों का त्यों काम करने में जुटा था और नया माली जो उसका असिस्टेंट था, बैठा हुआ चिलम पी रहा था। अन्ततः एक महीने में नये माली को मुझे निकालना पड़ा । बुड्ढे ने कभी उसकी शिकायत नहीं की । न उसे निकालने की प्रार्थना करने आया। वह वही आठ रुपये लेने को तैयार था, पर मैंने किसी तरह स्वीकार नहीं किया। वह अब प्रत्येक पूर्णिमा को सत्यनारायण की कथा सुनने लगा था। मैं जानता था कि वेतन के बढ़े रुपये प्रसाद और दक्षिणा में दे आता है। मुझ से पूछ कर पूर्णिमा को सामने के मन्दिर में कथा की व्यवस्था करके सुनने चला जाता था।”

“लेकिन एक दिन ! ओफ !! उस दिन !!!” साहब का कण्ठ स्वर भर्रा गया। गुप्त जी उनकी भाव-भंगिमा में आये परिवर्तन से चौंक गए। मि. जोन्स कह रहे थे-पता नहीं मुझे क्या हो गया था। मुझे कौन सा शैतान दबाए बैठा था। मैंने उसे आज्ञा नहीं दी। तुम्हारी रामनवमी । उसे दो दिन से ज्वार आ रहा था। बगीचे का काम वह दरबार करता था। आज का काम उसने निबटा दिया था पौधे सींच दिये थे और उखड़ने योग्य क्यारियाँ गाड़ दी थीं। रामजन्म के समय मन्दिर में जाना चाहता था वह। आधे घण्टे के लिए जाएगा। आरती हो जाने पर लौट आएगा।” साहब ने सूनी दृष्टि ऊपर उठाई।

“सबेरे बिल्ली ने दूध गिरा दिया था। चाय देर से मिली थी। सुबह का अख़बार नहीं आया था। पैर में सीढ़ी से उतरते समय बूट फिसलने से मोच आ गई थी । झल्लाहट थी ही। कह दिया-फाटक से बाहर नहीं जा सकते! चुपचाप काम करो! साहब ने आँखें पोंछी।

बन्दूक का शब्द हुआ। मैं बंगले से बाहर आ गया! कहाँ फायर हुआ? पूछते ही मन में आ गया कि मन्दिर में जन्म के समय धड़का किया गया है माली! अपने सामने फाटक के पास स्टूल पर उसका बैठना मुझे बुरा लगा। उत्तर न पाकर मैं झपटा। उसे ढकेल कर ठोकर लगाना चाहता था। हाथ लगाते ही मैं चौंक की दो कदम पीछे हट गया। धक्के से बुड्ढा लुढ़क गया था। वह माली कहाँ था? वह तो उसका शरीर भर था ।” मैं चीख पड़ा।

“और मैं “? साहब जैसे कुछ खोजने लगे। सामने बैठे मैथिलीशरण गुप्त को ऐसा ताका जैसे अपनी खोई वस्तु उन्हीं के अन्दर ढूँढ़ रहे हों, कुछ क्षण चुपचाप रह कर वह कहने लगे “वह सुख-दुःख से ऊपर था । हानि लाभ उसे छू नहीं सकते थे। छूते भी कैसे वह महानता के सर्वोच्च शिखर पर जो था। मानापमान के सिर पर उसने पैर दिया था। दोष देखना तो जैसे उसे मालूम ही नहीं था। किसी निन्दा के नाम पर कह उठता दूसरों के दोष देखने से व्यक्ति आत्म विमुख हो जाता है। भारत में ही सम्भव हैं ऐसे व्यक्ति । सचमुच यहाँ की संस्कृति महान है

महानतम है। इस देश के पास, इसी देश के पास वे विचार हैं जो मनुष्य को देवता बना देते हैं। यहीं जीवन जीने की उस कला का विकास हुआ है जिसे अपनाने पर श्रेष्ठता के सारे मानदण्ड बौने हो जाते हैं।”

“इस देश की संस्कृति का शाश्वत प्रश्न “तुम क्या हो?” मुझे बेचैन किए है। इस प्रश्न का हल ही मेरा प्रायश्चित है उस परम सन्त को सताने का।” कहते हुए मि. जोन्स मौन हो गए। महाकवि मैथिलीशरण अवाक् हो पश्चिमी गौरव को नतमस्तक होते देख रहे थे। अपनी संस्कृति का शाश्वत प्रश्न उन्हें भी मथने लगा था।


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