सन्त भी पानी के जहाज से यात्रा कर रहे थे। यात्रा लम्बी थी यात्री उनके सत्संग का लाभ उठाते। वे सत्संग में एक बात अवश्य याद दिलाते। याद रखो संसार नश्वर है। सदैव मृत्यु को याद रखो। सन्त का सूत्र था-मृत्यु का सदैव ध्यान” किन्तु मुसाफिरों को सन्त की बात जँची नहीं और वे ढर्रे की बातों में, आदत के अनुसार निमग्न रहते। एक दिन समुद्र में भयंकर तूफान उठा। समूचे जहाज में कुहराम मच गया। त्राहि-त्राहि में कुछ सुनाई नहीं पड़ता था। सब प्राणों को बचाने की चिन्ता में थे, किन्तु असहाय करते क्या? सभी प्रार्थना में लीन हो गये। तभी देखा सन्त बड़े सहज स्वभाव से अनुद्विग्न और शान्त बैठे हैं। धीरे-धीरे समुद्र का तूफान शान्त हुआ तभी एक यात्री ने सन्त से जाकर पूछा आप को मृत्यु का डर नहीं लगा। आप बड़े शान्त बैठे रहे। सन्त ने कहा-मृत्यु का फन्दा समुद्र में ही नहीं, पृथ्वी पर भी सदैव इसी प्रकार झूलता रहता है। फिर डरना किस बात का। अज्ञानी- अविवेकी ही डरते हैं मृत्यु से। फिर भी डर कर व बचते नहीं।