भाव संवेदना की चमत्कारी शक्ति

May 1992

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मानवी काया में अनेकों अंग-अवयव हैं। वे सभी अपनी हलचलों से शरीर यात्रा के साधन भर जुटाते और जड़तत्त्वों से विनिर्मित समझे जाते हैं। हृदय ही शरीर का एक ऐसा अवयव है जिसकी स्थिति सर्वथा भिन्न एवं उच्चस्तरीय है। इसका सम्बन्ध मात्र रक्ताभिसंचरण से ही नहीं वरन् करुणा की भावसंवेदनाओं के साथ अध्यात्म विभूतियों के साथ भी जुड़ा हुआ है। रक्त फेंकने वाली यह थैली यों तो सभी के सीने में विद्यमान है, पर जिस अर्थ में हृदय का उल्लेख होता है वह करुणा और मैत्री की भावसंवेदना ही है। इसके अभाव में मनुष्य को हृदयहीन कहा और आततायी माना जाता है। देवताओं का वैभव जिस आधार पर बना और बढ़ा है उसे सहृदयता ही कह सकते हैं। इस विश्व में जो कुछ अभिनन्दनीय और अनुकरणीय है, उस सबका उद्भव सहृदयता की पृष्ठभूमि पर ही संभव हुआ है।

अध्यात्मवेत्ताओं ने चेतना की उच्चस्तरीय विभूतियों में से मस्तिष्क को बुद्धि का और हृदय को भावना का केन्द्र माना है। जड़ शरीर के साथ चेतना का समीकरण करने वाले इन दो अवयवों का अपना विशेष स्थान है। इसलिए आत्मिक प्रगति के प्रयोजनों में समय-समय पर इनका विशेष उपयोग होता रहता है। ध्यान-धारणा की साधनायें प्रायः इन्हीं दो केन्द्रों के इर्द-गिर्द घूमती रहती हैं।

इतने पर भी सूक्ष्म संस्थानों में हृदय का महत्व सर्वोपरि है। सामान्य वैज्ञानिक विश्लेषण करने पर तो यह आकुंचन-प्राकुंचन या लप-डप करता हुआ रक्त से भरी थैली मात्र जान पड़ता है, जो शरीर के विभिन्न अंगों को रक्त भेजता, अशुद्ध रक्त को एकत्रित एवं परिशोधित करता मात्र प्रतीत होता है। जीवविज्ञानी इसी सीमा तक हृदय का महत्व स्वीकार करते रहे हैं और कहते रहे हैं कि यह संस्थान शरीर में रक्त संचार की भूमिका सम्पन्न करता है। पर यह तो इसका स्थूल पक्ष है। आध्यात्मिक प्रतिपादनों में इस संस्थान को सर्वाधिक महत्व दिया गया है। योगियों ने इस अंग को चेतना का केन्द्र माना है। गीताकार ने इसे ही आत्मा का निवास स्थल बताया है। तीन शरीरों से बनी मानवी काया में सबसे महत्वपूर्ण शरीर ‘कारण शरीर’ को बताया गया है। इसे जाग्रत एवं विकसित कर लेने पर मनुष्य ऋद्धि-सिद्धियों का स्वामी बन जाता है। अध्यात्मवेत्ताओं द्वारा इस क्षेत्र को विकसित करने के लिए अत्यधिक जोर दिया गया है जो अकारण नहीं है। इस आग्रह के पीछे ठोस वैज्ञानिक आधार हैं जिन्हें समझा और उनका लाभ उठाया जा सके तो मनुष्य का व्यक्तित्व एवं उसकी सामर्थ्य कई गुना अधिक प्रखर हो सकती है।

धड़कते हृदय एवं उससे निकलने वाली ध्वनि तरंगों में भाव संवेदनाओं की आत्मीयता की सघनता हो तो उसका चमत्कारी प्रभाव परिणाम दिखायी पड़ता है। दूसरों को प्रभावित करने, अनुकूल बनाने तथा श्रेष्ठ मार्ग पर बढ़ने के लिए प्रेरित करने में भाव संवेदनाओं की ही प्रमुख भूमिका होती है। ऋषि-मनीषियों संत, महात्माओं, महापुरुषों में यह विशेषता देखने को मिलती है कि वे अन्तःकरण की महानता द्वारा ही दूसरों को अनुवर्ती बनाते हैं। अन्यों को श्रेष्ठ जीवन जीने, परमार्थ प्रयोजनों में जुटने को बाध्य करते हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र में हृदय की महत्ता, उसमें उठने वाली भाव संवेदनाओं की उपयोगिता को बहुत पहले से ही स्वीकार किया जाता रहा है।

इस तथ्य को अब वैज्ञानिक परीक्षणों द्वारा भी मान्यता मिल रही है। सामान्यतया माताएँ नवजात शिशुओं को अपने बायें वक्षस्थल कसे चिपकाए रहती हैं। इसका मारण दाहिने हाथ का कामों से व्यस्त रहना माना जा सकता है, पर वास्तविक कारण यह नहीं है। सर्वेक्षणकर्त्ता वैज्ञानिकों का कहना है कि बायें हाथ से काम करने वाली महिलायें भी अपने शिशुओं को बायीं गोद में ही लिये रहती हैं। पुरातत्त्व संग्रहालयों में संकलित मूर्तियों, प्राचीन तैल चित्रों में उन चित्रों, कलाकृतियों का अध्ययन किया गया जिनमें नवजात शिशु को माँ के साथ चित्रित किया गया है। निष्कर्षों में पाया गया कि अस्सी प्रतिशत महिलाएँ अपने शिशुओं को बायें सीने से चिपकाए हुए हैं। इसे चित्रकारी की परम्परागत विशेषता कहकर नहीं टाला जा सकता।

इस संदर्भ में कार्नेल विश्वविद्यालय, अमेरिका के मूर्धन्य वैज्ञानिकों ने नये तथ्यों का रहस्योद्घाटन किया है। सुप्रसिद्ध मानवशास्त्री डा. ली. साल्क ने अपने अनुसंधान निष्कर्ष में बताया है कि माताओं द्वारा अपने शिशुओं को बायीं ओर चिपकाए रहने के विशेष कारण है॥ हृदय बायीं ओर अवस्थित होता है। जाने-अनजाने माँ अपने बच्चे को उसका अधिक से अधिक सामीप्य देना चाहती है। मातृहृदय की धड़कन के साथ भावसंवेदनाएँ भी तरंगित होतीं और उभरती रहती हैं। उनके आदान-प्रदान से वे स्वयं तो संतोष की अनुभूति करती ही हैं, बच्चे के ऊपर भी अनुकूल प्रभाव पड़ता है। हृदय की ध्वनि तरंगों को सुनकर बच्चा एक अनिर्वचनीय आनन्द में डूबा रहता है। इस सम्बन्ध में डा. डिस्पाण्ड मॉरिस ने महत्वपूर्ण खोजें की हैं। अपनी अनुसंधानपूर्ण कृति “द् इन्टिमेट बिहेवियर एण्ड द् नेकेड एथ” में उनने कहा है कि हृदय की ध्वनि ही एक मात्र वह शाश्वत ध्वनि है जिसे शिशु गर्भावस्था में सुनता है। माँ के गर्भ से बाह्य संसार में आने पर वह विभिन्न प्रकार की ध्वनियाँ सुनकर परेशान रहता है और पूर्व परिचित ध्वनि की आस लगाये रहता है। माँ जब उसे गोदी में लेती है तो उसे सुखद अनुभूति होती है। देखा गया है कि रोते हुए बच्चों को सीने से चिपकाते ही वे चुप हो जाते हैं। माँ के धड़कते हुए संवेदनशील हृदय की ही यह प्रतिक्रिया है जिसकी सुखद ध्वनि तरंगों को सुनते ही बच्चे रोना बन्द कर देते हैं।

इस तथ्य को परीक्षण की कसौटी पर कसने के लिए अमेरिकी वैज्ञानिक डॉ. ली साल्क ने अपने सहयोगियों के साथ मिल कर कुछ अन्य प्रयोग किये जिसके आश्चर्यजनक परिणाम निकले। चह परिणाम मातृ हृदय के साथ जुड़ी संवेदनशीलता की महत्ता का प्रतिपादन करते हैं। वैज्ञानिकों ने इस प्रयोग में जब मातृ हृदय की धड़कन की ध्वनि को टेप करके रोते हुए नवजात शिशुओं को सुनाया तो उन्होंने रोना बन्द कर दिया। उनके मुख मंडल पर शान्ति एवं प्रसन्नता के भाव उभरने लगे। इससे निष्कर्ष निकाला गया कि माताओं के धड़कते हृदय के साथ उनकी सुकोमल वात्सल्य भावनायें भी जुड़ी रहती हैं। इस ध्वनि से पूर्व परिचित होने के कारण शिशु सहज ही आकर्षित हो जाते हैं। ध्वनि तरंगों में घुली भावसंवेदनाएँ बच्चे के हृदय को उद्वेलित करती और सुखद प्रभाव डालती हैं।

यह तो प्रकृति प्रदत्त मातृ हृदय के साथ जुड़ी भाव संवेदनाओं का सामान्य पक्ष रहा जिसका लाभ बच्चे सहज ही उठाते रहते हैं। असामान्य पक्ष की सामर्थ्य एवं संभावनाएँ अनन्त हैं। कारण शरीर में विद्यमान भावसंवेदनाओं को-आत्मीयता को उभारा उछाला जा सके, तो उससे न केवल मनुष्य जाति को एकता, स्नेह, सौहार्द्र के सूत्र में बाँधा जा सकता है, वरन् जीव-जन्तुओं पशु-पक्षियों एवं पेड़ पौधों को भी वाँछित दिशा में मोड़ा-मरोड़ा तथा वशवर्ती बनाया जा सकता है।

कैलीफोर्निया के विलक्षण संत लूथर बरबैक अपनी भाव साधना में इतने सिद्ध हस्त हो गये थे कि प्रकृति के कण-कण से वे प्यार करने लगे और प्यार बाँटने लगे। उनकी सहृदयता से प्रभावित होकर वनस्पतियों को भी अपने गुण, कम, स्वभाव में परिवर्तन लाने को मजबूर होना पड़ा। उनके बगीचे में जो भी वृक्ष-वनस्पति हैं, उनसे वे पुत्रवत् आत्मीयता रखते हैं। इससे उनके बगीचे में काँटे रहित गुलाब उगते हैं और दिन में कुमुदिनी खिलती है। अख़रोट के वृक्ष जो 32 वर्ष में फल देने योग्य होते हैं, 17 वर्ष में ही फलने फूलने लगते हैं। यह सब भावनाओं का, आत्मीयता का ही चमत्कार है।

इस दृष्टि से शरीर के अन्य अंगों की तुलना में हृदय का महत्व कहीं अधिक है। सामान्य बोलचाल के प्रसंगों में सबसे प्रिय वस्तु व्यक्ति का सम्बन्ध हृदय से जोड़ने के पीछे यही कारण है। प्रार्थना, उपासना, साधना में भावनाओं का महत्व प्रतिपादित करने, उन्हें विकसित करने पर जोर देने के पीछे यही मनोवैज्ञानिक आधार है कि परमात्मा द्वारा दिये गये भावसूत्रों में ही मनुष्य को बाँधा जा सकता है। भावसंवेदनाओं से भरपूर व्यक्ति असंख्यों को अपना बना लेते और सहयोग करने के लिए विवश कर देते हैं। वस्तुतः यह भावनाओं का ही खेल है। मनुष्य को एकता के सूत्र में बाँधने के अन्य प्रयत्नों की सफलता तब तक संदिग्ध ही बनी रहेगी जब तक कि भव संवेदनाओं की सहृदयता को विकसित करने की उपेक्षा होती रहेगी। मनुष्य जीवन का सौभाग्य और आनन्द सहृदयता-आत्मीयता के सहारे ही उपलब्ध होता है।


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