चतुर नहीं, बुद्धिमान बनें

May 1992

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जीवन क्या है? समय की कड़ियों से बनी हुई एक सुनहरी शृंखला। इसका प्रत्येक घटक बहुमूल्य है। इसका उपयोग किस प्रकार किया जाय और उसका कैसा प्रतिफल उपलब्ध किया जाय-यह पूरी तरह अपने हाथ की बात है।

जिसने उसे कूड़ा करकट समझा उसने उसे घूरे पर ले जा पटका। जिसने भार माना वह उसे ज्यों-त्यों करके ढोता रहा। जिसने उसे बहुमूल्य माना वह उसका सदुपयोग करता रहा, जिसने इसे ईश्वर का वरदान माना और उसका देवत्व अनुभव किया, उसने प्राणप्रिय समझा और हृदय के भीतरी कोने में बिठाकर सम्मानित किया। गेटे कहते थे “मैंने समय को बरबाद किया और अब समय मुझे बरबाद कर रहा है।”

मूल्य न समझ पाने पर कीमती चीजों की भी दुर्गति बन पड़ती है। जो-पहचानते नहीं वे हीरे को भी काँच का टुकड़ा समझकर फेंक देते हैं। अनजानों के लिए मकरध्वज जैसे रसायन भी भूरे रेत की तरह है। अयोग्य हाथ में पहुँचकर चन्दन को भी कोयला बना लिया जाता है। हममें से कितने हैं जो समय का मूल्य समझते और उसका उपयुक्त सम्मान सदुपयोग करते हैं?

औसत आदमी जिन्दगी को एक सपने की तरह देखता है और उसमें कड़ुए मीठे स्वादों का अनुभव करता है। अनगढ़ कहानी की तरह सुनता समझता और अन्त कर देता है। पर क्या वस्तुतः वह ऐसा ही है जिसे ज्यों-त्यों करते, फैलाने और बटोरने का खिलवाड़ करते रहा जाय?

कठिनाई यह है कि उसके एक अंग को ही हम देख पाते हैं-वर्तमान को। न भूत दिखाई पड़ता न भविष्य। चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने के बाद यह मिलता है। उस लम्बी अवधि में कितनी कष्टसाध्य परिस्थितियों से होकर गुजरना पड़ा होगा। इसकी भी स्मृति नहीं रहती और भविष्य की कल्पना भी नहीं उठती जिसमें आज की विडम्बनायें कल विभीषिकाएँ बन कर सामने आयेंगी और पश्चाताप भरे त्रास देने वाली हैं। उत्तरदायित्व वहन करने के अवसर जब तब ही आते हैं। वे उतावली में होते हैं, परीक्षक की तरह अपना काम जल्दी ही पूरा करके चलते बनते हैं। उसके आगमन पर सतर्कता और एकाग्रता बरतने की बात ध्यान में न रहे तो फिर चूक के लिए पश्चाताप के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं रहता।

जीवन की अवधि लम्बी नहीं है, वह खिलवाड़ में भी बिताई जा सकती है। कोल्हू के बैल की तरह एक ढर्रे में चलते हुए भी बिताया जा सकता है। प्रतिकूल परिस्थितियों में रहना पड़े तो उसे रोते कराहते भी किसी प्रकार क्रियान्वित किया जा सकता है। किन्तु यदि इसे अनमोल रतन की तरह संजोकर रखा जा सके तो बदले में वह पाया जा सकता है जिस उपलब्धि के लिए अपने भाग्य को सराहते रहा जा सकता है।

दूरदर्शी विवेकशीलता की एक ही कसौटी है कि समय का वास्तविक मूल्य समझा क्या? और यदि समझा तो श्रेष्ठतम उपयोग किया या नहीं। सदुपयोग की कसौटी यह नहीं है कि पेट भरने और विनोद के साधन जुटाने में कितने क्षण बीते? इसमें मानवी बुद्धि की परीक्षा नहीं होती। इतना तो पशु-पक्षी और कृमि कीटक भी पूरा कर लेते हैं। पेट भरने की दौड़-धूप दीखने के अतिरिक्त बचे समय में मौज मस्ती करते हैं और जब तब अहंता जगती है तो अपनी बलिष्ठता सिद्ध करने के लिए लड़ने झगड़ने पर उतर आते हैं। ऐसी चाँदनी अंधेरी रातों की तरह बिताते गुजारते वह अवधि समाप्त हो जाती है जिसे किसी विशेष प्रयोजन के लिए सौभाग्य के रूप में नियति ने प्रदान किया था और जाँचा था कि बुद्धिमत्ता की डींग हाँकने वाला यह प्राणी वस्तुतः बुद्धिमान है भी या नहीं। इस जाँच पड़ताल के लिए उसने एक ही मापदण्ड रखा है कि जीवन की अवधि को किस निमित्त, किस प्रकार उपयोग किया जाय। जो इस तथ्य को नहीं समझते हैं और दिन को खाने में और रात को सोने में बिताते रहते हैं वो समय बीतने पर सोचते हैं कि जिसके बदले बहुत कुछ पाया जा सकता था उसे ‘कुछ नहीं’ के बदले बिता दिया गया।

निर्वाह भी एक समस्या है। अन्न, वस्त्र आच्छादन, विनोद सभी को चाहिए। यह सभी वस्तुएँ जुटाने में क्षुद्र प्राणियों को दौड़-धूप करनी पड़ सकती है। पर मनुष्य को जिस स्तर की शरीर संरचना और बुद्धिमत्ता मिली है, उसे देखते हुए वे साधन, स्वल्प श्रम और स्वल्प काल के परिश्रम में जुटाये जा सकते हैं। भूखा उठता है पर भूखा सोता नहीं। जन्म से पहले जिसने माता के स्तनों में दूध के कटोरे भर कर रख दिए थे और असमर्थ होते भी अभिभावकों का लाड़ प्यार भरा परिपोषण मिलता रहा, उसे अब बड़े होने पर निर्वाह के साधन जुटाने में हैरान होना पड़ेगा इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। अभावों द्वारा मनुष्य सताया नहीं जाता, उसकी तृष्णा, लिप्सा और अहंता ही ठाटबाट की वे मृग-तृष्णाएँ संजोती हैं और उसी के लिए मारी-मारी फिरती है। वैभव और विलास की आकांक्षाओं का कोई अन्त नहीं। श्रम के झंझट से बचकर ज्यों-त्यों दिन बिताने के लिए कुछ न कुछ काम खोज ही लिया जाता है। भले ही उसका प्रतिफल बालू से तेल निकालने की तरह कुछ भी हाथ न लगे।

यह नर−वानरों और नरपशुओं की बात हुई। वन-मानुष भी जिन कार्यों में समय बिता लेते हैं उन्हीं में यदि बुद्धिमान भी व्यतीत करे तो समय तो बीता ही रहता है पर वर्तमान में असंतोष और भविष्य में पश्चाताप के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता क्या मनुष्य जीवन इसी के लिए है? क्या इस बहुमूल्य सुयोग की परिणति यही है?

अपने को बुद्धिमान मानने वाला मनुष्य यदि सचमुच ही बुद्धियुक्त रहा होता तो उसने विचारा होता कि भूतकाल में चौरासी लाख योनियों का भ्रमण और भविष्य के प्रमाद के नारकीय प्रतिफलों का कुछ तो स्मरण रखा जाय और बार-बार उसी कुचक्र में परिभ्रमण करने की दुर्गतियों से बचा जाय? यह बचाव आज की दिशा धारा पर ही निर्भर है। भविष्य में कमी की बात सोचते रहने पर तो वह प्रतीक्षित और अपेक्षित दिन कभी आने वाला नहीं है।

स्रष्टा ने अद्भुत मानवी काया इसलिए प्रदान की है वह उसके रहते अपनी अपूर्णताएँ पूर्ण कर ले, मलिनताएँ धो ले, कुत्सा और कुण्ठाओं से त्राण पा ले। अपने को पहचानें और इस प्रकार दिन बिताये जिससे मानवी गरिमा अक्षुण्ण बनी रहें। इसी कलेवर में देवत्व के उदय की संभावना सार्थक होकर रह सकती है।

अन्य प्राणी अपने पुरुषार्थ से अपने बलबूते जीवन बिता लेते हैं पर मनुष्य जिस स्थिति तक आ पहुँचा है उसे असंख्यों का अविराम सहयोग चाहिए। अन्न, वस्त्र, बिस्तर, आच्छादन तक वह दूसरों के श्रम से उपार्जित को ही प्रयोग में लाता है। विद्या दूसरों के ही माध्यम से मिलती है। आजीविका उपार्जन किन्हीं समाज के घटकों के माध्यम से ही होता है। धर्मपत्नी किसी के अनुग्रह से ही मिलती है। जीवन की अनेकों सुविधायें, सरलताएँ, सफलताएँ दूसरों की कृपा पर निर्भर हैं। अतएव मनुष्य को समाज का जितना ऋणी बनना पड़ता है उतना अन्य किसी को नहीं। अस्तु इन ऋणों से उऋण होने के लिए उसे प्रयास करना ही चाहिए। ऋणों का बोझ सिर पर लादकर भगोड़े की तरह विदा नहीं होना चाहिए।

अच्छा होता इन सुविधा के दिनों में ऐसी कुछ कमाई कर ली होती जो अगले दिनों काम आती और प्रगति में सहायता करती। यह परमार्थ ही हो सकता है। अन्य प्राणी स्वेच्छा और उदारतापूर्वक परमार्थ नहीं कर पाते। उन्हें बाधित और विवश किया जाता है। वे शोषण के शिकार भर होते रहते हैं। पर स्वेच्छापूर्वक उदार सहयोग कर सकने जैसे अन्तःकरण के धनी नहीं होते। केवल मनुष्य ही इस स्थिति में है कि अपनी जीवनचर्या में उदार सहयोग समावेश कर सके। विश्ववाटिका को सुरम्य और सुविकसित बनाने वाले क्रियाकृत्यों में संलग्न होने की जिम्मेदारी भी उसे सौंपी गई है। यह मनुष्य जीवन का मूल्य है। स्वार्थ की दृष्टि से अपने व्यक्तित्व का निखार और प्रतिभा का उभार। उच्च प्रयोजनों के निमित्त इस प्रकार की परमार्थ परायणता ही उसके निज के गुण, कर्म, स्वभाव को परिष्कृत करने का निमित्त कारण बनती है। ऋण चुकाने की दृष्टि से विश्ववाटिका को सींचने के सौंपे हुए दायित्व को पूरा करने के लिए इस दिशा में कदम पूरा करने के लिए इस दिशा कदम बढ़ने ही चाहिए। बुद्धिमत्ता साथ दे तो हमें इसी प्रयास के लिए अग्रसर होना चाहिए।

आत्मशोधन की पवित्रता और परमार्थ के लिए जुटाये हुए साहस की प्रखरता ही वे दो अवलम्बन हैं जिन्हें अपनाने पर मनुष्य सच्चे अर्थों में मनुष्य बनता है और जीवन के वास्तविक प्रयोजन की पूर्ति में सफल होता है। इस दिशा में बरती गई उपेक्षा तत्काल तो चतुरता जैसी लगती है किन्तु समय निकल जाने पर प्रतीत होता है कि भटकाव कितना महंगा पड़ा। चयन की चूक कितना दुःखदायक सिद्ध हुई।

भौतिक जीवन में निर्वाह की समस्या किसी के सामने नहीं है। औसत भारतीय स्तर का निर्वाह जुटा लेना उतना कष्टसाध्य नहीं है कि उसी के निमित्त समूची जीवन अवधि खपा देनी पड़े। जो व्यस्तता और आकांक्षा से उबरने नहीं देती वह तृष्णा ही है, जो कुबेर का धन और इन्द्र का वैभव पाकर भी तृप्त नहीं हो सकती। जो असंभव है उसमें लगा रहता है और जो सरल संभव है उससे कतराता है, यही बुद्धिमान कहे जाने वाले मनुष्य की मूर्खता है। इसी को माया या अज्ञानान्धकार कहते हैं। यही अविद्या है।

कोई कितना ही पढ़ा लिखा हो सकता है। उपार्जन में कितनी ही चतुरता एवं बहुलता दिखा सकता है। बड़प्पन के अनन्त अलंकरणों से शोभित हो सकता है। दीर्घजीवी और साधन सम्पन्न हो सकता है पर इसमें उसकी चतुरता भर ही सिद्ध होती है, बुद्धिमत्ता नहीं। यदि उसने बुद्धिमत्ता का परिचय दिया होता हतो जीवन लक्ष्य के चयन और तद्नुरूप गतिविधियों के निर्धारण में चूक न की होती। तब वह दूसरे ही ढंग से सोचता। दूरदर्शिता के रहते मनुष्य यही सोच सकता है कि अपनी पवित्रता गरिमा और महानता की अभिवृद्धि करे। इसलिए अपने चिन्तन, चरित्र और व्यवहार का स्तर ऊँचा उठाये, सन्त, सज्जनों की तरह जीना सीखे। अपने को पार करने की कला सीखे। साथ ही यह भी करे कि अपने कंधों पर बिठाकर दूसरों को पार लगा सके।

परमार्थ ऊँचे दर्जे का स्वार्थ है उसमें मनुष्य कुछ खोता नहीं, पाता ही पाता है। बीज अपने को गलाता है पर इसका तात्पर्य यह नहीं कि वह नष्ट हो गया वह अंकुरित होता, बढ़ता, लहलहाता, फूलता और फलता है। जो खोया उससे अधिक पाता है। परमार्थ की बात यदि मन में सूझे तो समझना चाहिए कि ऊँचा उठने का, आगे बढ़ने का समय आ गया। मनुष्य स्वार्थी, संकीर्ण बने तो समझना चाहिए कि यह संचय और सड़न का श्रीगणेश है जिस स्वार्थ में अपना और दूसरों का हित सधे वह परमार्थ है। परमार्थ ही बुद्धिमत्ता है।


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