प्रकृति के गर्भ में घटित हो रहे कुयोग व सुयोग

May 1992

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कुयोगों और सुयोगों के संबंध में कोई प्रत्यक्ष तर्क तो इतना लागू नहीं होता कि अमुक वस्तु, पल विशेष, या घटना को किस कारण शुभ या अशुभ होना चाहिए, क्यों उसके कारण दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएँ घटनी चाहिए और क्यों उसकी उपस्थिति से सुखद संभावनाओं की शृंखला चल पड़नी चाहिए। फिर भी देखा यह गया है कि कभी-कभी यह कुयोग-सुयोग के संयोग इस तरह वस्तुओं के साथ जुड़ जाते हैं, मानों व जड़ न होकर चेतन हो, मानों उनकी भी बुरी या भली प्रकृति हो।

‘मेरी सेलीस्टी’ नामक जलयान सदा ऐसे ही कुयोग से जुड़ा रहा। वह जब तक जिया, मालिकों, चालकों एवं यात्रियों को त्रास ही देता रहा। सन् 1861 में स्पेंसर द्वीप नोबा स्कोशिया में जब वह बना तो उसका नाम ‘आमेजन’ रखा गया। उसका कप्तान अपनी नियुक्ति के दो दिन पश्चात् ही एक दुर्घटना में मारा गया। क्षतिग्रस्त जहाज की मरम्मत कराते समय दूसरा कैप्टन आग से जल कर मर गया। जब तीसरे की नियुक्ति हुई तो जहाज लेकर वह चला और ‘डोवर की खाड़ी’ में एक अन्य जलयान से टकरा गया, स्वयं हानि उठायी और दूसरे जहाज को भी नुकसान पहुँचाया। अपनी चौथी यात्रा में वह ‘केप ब्रेटन द्वीप’ में जमीन में धँस गया, जिससे उसका निचला हिस्सा टूट गया। मरम्मत पुनः करायी गई। अब तक जेम्स इस्ट्रीच इससे काफी क्षति उठा चुके थे। उन्होंने उसे बेच दिया। जेराल्ड स्नुफर अब इसके स्वामी बने। जहाज से जुड़े दुर्भाग्य ने उनका भी पीछा न छोड़ा। अनेक दुर्घटनाओं में उन्हें भरी घाटा उठाना पड़ा, अस्तु उसे बेच देना ही उपयुक्त समझा गया। इस क्रय-विक्रय से होते हुए जलयान अन्ततः जेम्स विंचेस्टर के स्वामित्व में आया। उन्होंने जहाज को नयी शक्ल दी। पुराने यंत्र-उपकरण बदल दिये गये। नाम भी परिवर्तित कर दिया गया अब वह मेरी-सेलीस्टी था। 1872 के उत्तरार्ध में उसमें व्यापारिक सामान पुर्तगाल ले जाने के लिए लादा गया। कप्तान थे वेंजामिन स्नूपर। स्नूपर के अतिरिक्त जहाज में उनकी पत्नी, दो पुत्रियाँ एवं सात अन्य कर्मचारी सवार थे। नवम्बर के प्रथम सप्ताह में यात्रा आरंभ हुई। इसके दस दिन पश्चात ‘डीग्रेशिया’ नामक जहाज ने भी पुर्तगाल के लिए प्रस्थान किया। इसके कैप्टन थे एडवर्ड मोरहाउस कुछ दिन बाद जब ‘डीग्रेशिया’ पुर्तगाल से लगभग 500 मील दूर था, तो कप्तान ने एजोर्स और पुर्तगाल के मध्य एक जहाज को ऐसी स्थिति में देखा, जिससे यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता था कि जलयान नियंत्रण से बाहर है। कैप्टन मोरहाउस और कुछ साथी नाविक एक नाव में बैठ कर उस ओर चल पड़े, ताकि वस्तुस्थिति का पता लगाया जा सके। कई घंटे के प्रयास के बाद जब वे वहाँ पहुँचे, तो पता चला कि यह ‘मेरी सेलीस्टी’ है, किन्तु जब उन्होंने अन्दर कदम रखा, तो आश्चर्यचकित रह गये। वह सर्वथा खाली था। उसमें जीवित या मृत कोई भी व्यक्ति न था। सामान सभी ज्यों-के त्यों लदे पड़े थे। जहाज को देखने से किसी प्रकार की दुर्घटना की भी आशंका नहीं होती थी। फिर इसके नाविक कहाँ अन्तर्ध्यान हो गये? मोरहाउस और उसके साथियों के लिए यह रहस्यमय बन गया। निरीक्षण आरंभ किया, तो पता चला कि मेज पर अधखाया भोजन पड़ा हुआ था एवं कुछ पकने के लिए स्टोव पर रखा हुआ था।

कैप्टन के केबिन की तलाशी ली गई, तो उसमें लॉग, बुक पड़ी मिली जिसमें आठ बजे प्रातः 25 नवम्बर की की तिथि अंकित थी साथ ही यह नोट था-सान्तामेरिया द्वीप से हम आगे बढ़ गये।” डीग्रेशिया के कप्तान मोरहाउस ने जिस दिन यह देखा, उस दिन 5 दिसम्बर था, अर्थात् लॉग-बुक में अन्तिम प्रविष्टि के दस दिन बीत चुके थे और जलयान बिना किसी नाविक के 600 मील की यात्रा कर चुका था।

मोरहाउस उसे अपने साथ जिब्राल्टर ले आया। सुरक्षित जहाज और सामान को उसके मालिक तक पहुँचा देने के पारिश्रमिक के रूप में कप्तान को लदे सामान की कुल कीमत का पाँचवाँ हिस्सा विंचेस्टर की ओर से प्राप्त हुआ। न्यूयार्क पहुँचने पर विंचेस्टर ने ‘मेरी सेलीस्टी’ को तत्काल बेच दिया। उसे एक दूसरी व्यापारिक कम्पनी ने खरीद लिया पर बदकिस्मती का वहाँ भी अन्त न हुआ। कई कप्तान और कर्मचारियों की आकस्मिक मृत्यु हो जाने पर वर्तमान मालिक ने भी उसे अपने पास न रखा। इस प्रकार खरीद फरोख्त का यह सिलसिला अनेक वर्षों तक चलता रहा। इस क्रम में अन्ततः वह जलयान 1884 में गिलमैन पार्कर नामक व्यापारी के पास पहुँचा। जहाज के विगत इतिहास को ध्यान में रखते हुए उसने उसका बीमा करा लिया। इन्हीं दिनों एक बार जब वह वेस्ट इण्डीज की खाड़ी से होकर गुजर रहा था, तो दुर्घटनाग्रस्त हो गया। घटना के आठ माह बाद गिलमन की अचानक मृत्यु हो गई। कर्मचारी दल में से चार पागल हो गये और दो ने आत्महत्या कर ली।

‘मेरी सेलीस्ट’ के दुर्भाग्य का यह अन्तहीन सिलसिला तब तक चलता रहा, जब तक समुद्र में डूब कर उसका अस्तित्व समाप्त न हो गया। टाइटैनिक जलयान के बारे में कहा जाता है कि वह भी दुर्भाग्य का शिकार हुआ था होप डायमंड और कोहिनूर हीरे का भी ऐसा ही इतिहास है। व जब, जहाँ जिसके पास भी गये, वहीं विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा। न जाने कितनों को इनके कारण जान से हाथ धोना पड़ा कितने ही पागल हो गये। अनेकों ने आत्महत्या कर ली। फिर भी इनसे जुड़ी विपदा का अन्त न हुआ।

अभिशप्त वस्तुओं के अनगिनत घटनाक्रमों से यहाँ कुछ का जिक्र मात्र किया गया है। सौभाग्य या दुर्भाग्य कभी-कभी जड़ वस्तुओं के भी सिर पर चढ़कर बोलता है व ऐसे ऐसे क्रियाकलाप कर दिखाता है जिनसे दाँतों तले उँगली दबा कर रह जाना पड़ जाता है। जब नितान्त जड़ समझे जाने वाले पदार्थ भी कुयोगों के कुचक्र में चेतन जगत के जीवधारियों को इस प्रकार खींच-घसीट लेते हैं तो चेतना के समुच्चय मनुष्य का तो कहना ही क्या? वह चाहे तो कुयोग पैदाकर अपने ही पैरों कुल्हाड़ी मार ले अथवा सुयोग पैदाकर अपना भविष्य अपने हाथों विनिर्मित करले।

देखने में यह आता है कि मनुष्य अपने मनःस्थिति अभिशप्त बनाए हुए अपने लिए दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियों का चयन स्वयं करता है। वस्तुतः अभागा कोई होता नहीं, बनता है स्वयं को बनाता है वातावरण भी सहधर्मी विचारों के एकत्र होते चले जाने के कारण वैसा ही बन जाता है। “द् रुट्स आफ कॉ-इन्सीडेन्स तथा “आर्ट आफ क्रिएशन” के विद्वान लेखक आर्थर कोसलर का मानना है कि हर संयोगों के मूल में प्रकृति का गणितीय क्रम चलता रहता है। कहीं न कहीं कोई मनुष्यकृत ऐसी विपत्ति इस परिस्थिति का मूल कारण होती है जो हमें बहिरंग में विभिन्न घटनाक्रमों के रूप में दिखाई देती है।” इस प्रकार उनके अनुसार यहाँ कुछ भी संयोग नहीं सुव्यवस्थित है व क्रिया की प्रतिक्रिया है। सर्वज्ञ के इस स्वरूप को समझते हुए यदि हम मनःस्थिति उत्कृष्ट बनाकर वैसे ही कृत्य करें तो निश्चित ही परिस्थितियाँ भी श्रेष्ठतर होगी। यह अध्यात्म का सनातन ध्रुवपक्ष है जो सदा से व्यक्ति को आत्मावलम्बन का पुरुषार्थ पढ़ाता चला आया है।


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