एक मन्दिर बन रहा था। देश भर से आए शिल्पी स्तम्भों से लेकर मन्दिर के शिखर में लगने वाली मूर्तियों हेतु पत्थरों पर छेनी से काम कर रहे थे। एक पत्थर कारीगरों के मुखिया ने बेकार समझकर फेंक दिया। रास्ते में पड़ा वह पत्थर मजदूर राहगीरों की ठोकरें खाता इधर-उधर होता व उदास मन से देखता रहता कि और तो सँवारकर मूर्ति का रूप लेकर निखर रहे हैं व मैं अभागा पैरों के नीचे दबाया जा रहा हूँ।
एक दिन एक राजकलाकार उधर से गुजरा। उसने वह बेकार पड़ा पत्थर उठाया, छेनी चलानी आरंभ की व देखते-देखते कुछ ही घण्टों में एक सुन्दर सी मूर्ति तराशकर खड़ी कर दी। सब ने उसकी प्रशंसा की कि वह बड़ा प्रतिभाशाली है। एक राह के रोड़े को रूपान्तरित कर दिया। कलाकार बोला “मैं तो औरों की तरह ही हूँ। जो पत्थर में से प्रकट किया है, वह था पत्थर के अंदर ही। मैंने तो मात्र उसे पहचाना व उकेरा है।”
हम सब के भीतर महानतम श्रेष्ठतम बनने की संभावनाएँ हैं कभी-कभी जीवन को गढ़ने वाला कोई कलाकार गुरु मार्गदर्शक मिल जाता है तो हम क्या से क्या बन जाते हैं। सौभाग्य का यह अवसर सबके लिए समान रूप से है।
एक युवक ने बुद्ध से दीक्षा ली। इससे पूर्व वह भोगों में पला था व संगीत की सभी विधाओं में पारंगत भी था। किन्तु जब विरक्ति हुई तो ऐसी कि फिर अतिवाद पर उतर आया। भिक्षुगण मार्ग पर चलते, वह काँटों पर जानबूझ कर चलता। अन्य भिक्षु समय पर सोते, वह रात भर जागता। सब भोजन करते, वह उपवास करता। इस तितिक्षा ने छः माह में उसे सुखा डाला। पैरों में छाले पड़ गए, शरीर जीर्ण-शीर्ण हो चला। जिसे वह तप-तितिक्षा माने बैठा था, वह कोरा अतिवाद व भावुकता थी, पर समझे वह कैसे व माने किसकी?
एक दिन बुद्ध ने पास बुलाकर बिठाया व पूछा कि “तुम तो यहाँ आने से पहले संगीत के अच्छे ज्ञाता रहे हो न?” जवाब हाँ में मिला। “वीणा से मधुर ध्वनि निकले इसके लिए क्या किया जाता है?” युवक ने उत्तर दिया “तारों को संतुलित रखा जाता है। न अधिक खींचा, न ढीला छोड़ा जाता है।” बुद्ध बोले “भन्ते यही साधना में भी किया जाता है। शरीर भी वीणा के समान है। यदि इसे समत्व स्थिति में रखोगे तो साधना सिद्धि में परिणत भी होगी। तुम कैसे नियम भूल गए?” युवक की समझ में मर्म आ गया।