महत्वाकांक्षाओं की भटकाव भरी पगडंडी

May 1992

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महत्वाकांक्षाएँ देखने में निर्दोष लगती हैं और प्रतीत होता है कि आगे बढ़ने तथा बढ़-चढ़ कर सफलता प्राप्त करने में क्या दोष है? तर्क सीधा-सा प्रतीत होता है और सही भी। किन्तु जब उनके फलितार्थों पर विचार किया जाता है तो उसके साथ अगणित दोष समाविष्ट प्रतीत होते हैं।

महानता से सम्बन्धित व्यक्तित्व की प्रामाणिकता और समाज सेवा की परमार्थ परायणता यदि उत्कर्ष का आधार बने तो उससे आन्तरिक उल्लास और संपर्क क्षेत्र के सहयोग, सम्मान का लाभ मिलता है। आदर्शवादिता के अभाव वाले इन दिनों में ऐसा अनुकरणीय उदाहरण बनता है जिसका अनुगमन कर के अनेकों को ऊँचा उठने का अवसर मिले। इस स्तर की महत्वाकांक्षाएँ सराही जा सकती हैं। उनसे सर्वजनीन हित साधन भी हो सकता है। इस दिशा में बढ़ने वाले यही पुरुष देवमानवों का स्थान प्राप्त करते हैं।

इससे विपरीत है भौतिक स्तर का वैभव संचित करने की महत्वाकांक्षा। इस अवलम्बन की प्रतिक्रिया स्पष्टतः व्यक्ति के संकीर्ण स्वार्थ परायण बनने में दृष्टिगोचर होती है। साथ ही अहंकार भी बढ़ाती हैं। अहंकार की तुष्टि दूसरों पर छाप छोड़ने में होती है। इसके लिए ठाठ-बाट रोपने पड़ते हैं। अपव्यय करने पड़ते हैं। सस्ती वाहवाही लूटने के लिए चाटुकारों की मंडली एकत्रित करनी पड़ती है। उस प्रकार का जुगाड़ बिठाने में चाटुकारों को भी पोषण देना पड़ता है जो कई बार बहुत महँगा पड़ता है। विज्ञापनबाजी की कला अपनाये बिना कोई अपने बड़प्पन को, वैभव को बहुचर्चित नहीं बना सकता। इस प्रकार के विज्ञापन भी समान स्तर के विज्ञापनों से कहीं अधिक महँगे हैं। इतने पर भी महत्वाकांक्षी को वे भुगतान करने पड़ते हैं, अन्यथा उसकी विशिष्टता का ढिंढोरा कैसे पीटे?

बड़प्पन का विज्ञापन करने के लिए कुछ आधार चाहिए। आडम्बर भी हवा में तो नहीं ठहरते। उनके लिए पैर जमाने जितनी जगह तो चाहिए। धर्मात्मा, पुण्यात्मा, भाग्यवान सुसम्पन्न, प्रतिभावान सिद्ध करने के लिए कुछ कृत्य तो उस स्तर के करने ही पड़ते हैं, भले ही उन्हें तिल का ताड़ बनाया गया हो। इस प्रकार का आधार खड़ा करने में भी समय, श्रम और धन लगता है भले ही वह छोटा ही क्यों न हो। मात्र प्रदर्शन के लिए ही क्यों न किया गया हो। यदि यह सब न किया जाय तो महत्वाकांक्षा की पूर्ति कर लेने पर भी उसकी चर्चा कुछ घनिष्ठ लोगों तक ही सीमित रहेगी। इतने भर से किसी महत्वाकांक्षी को संतोष नहीं होता, उसे मात्र दृश्य लाभ ही नहीं, यश भी चाहिए। चर्चा का विषय बने बिना अहंकार की तृप्ति कहाँ होती है?

धन की लिप्सा यदि बढ़े-चढ़े स्तर पर जा पहुँचती है तो वह एक प्रकार के उन्माद जैसी बन जाती है। उस ललक से ग्रसित व्यक्ति उचित-अनुचित का, नीति-अनीति का भेद भूल बैठता है और जिस प्रकार भी बने उस हवस को पूरा करने के लिए कृत्य-कुकृत्य करने में संलग्न हो जाता है। अनाचार, अत्याचार करने में नहीं हिचकता। अपराधी-दुष्प्रवृत्तियाँ अपनाने में भी उसे झिझक नहीं लगती। कामुक व्यक्ति की कुदृष्टि किसी को भी नहीं बख्शता । उसके मस्तिष्क में रिश्तों की पवित्रता का कोई महत्व नहीं रह जाता। नारी मात्र उसे वेश्या प्रतीत होने लगती है। रमणी, कामिनी के अतिरिक्त और कुछ किसी महिला को समझ ही नहीं पाता। ठीक इसी प्रकार वर्चस्व का उन्माद भी ऐसा है जिससे ग्रसित होने पर व्यक्ति सबसे बड़ा बनने के लिए आकुल-व्याकुल रहने लगता है।

महत्वाकांक्षी प्रकारान्तर से अहंकारी ही होता है। वैभव अर्जित करके सुख-सुविधाओं का उपभोग करने तक भी बात सीमित नहीं रहती। उसे यह भी सनक सवार रहती है कि सब उसे अपने से बड़ा मानें। प्रशंसा, प्रतिष्ठा के योग्य कोई काम नहीं बन पड़ते और यश पाने का द्वार बंद दीखता है तो फिर आतंक अनाचार पर उतर आता है और उत्पीड़न के सहारे यह अनुभव कराता है कि उसे सज्जनता की दृष्टि से नहीं, दुष्टता के क्षेत्र में तो बढ़ा-चढ़ा मानना ही पड़ेगा। दस्यु, ठग, पाखंडी, प्रपंची प्रायः इसी आधार पर मूँछें ऐंठते देखे गये हैं कि वे अन्यों की तुलना में अधिक चतुर अधिक प्रपंची और अधिक सफल हैं। इस आधार पर भी वे अपने अहंकार की पूर्ति कर लेते हैं। बदनाम होने में भी उन्हें प्रतीत होता है कि दूसरों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर सकें। अपनी कृतियों से अनेकों को चौंका सकें, भयभीत, आतंकित कर सकें। इस प्रकार और कितने ही नरपिशाच स्तर के दुरात्मा अपनी छाप छोड़ते और चर्चा का विषय बनते हैं। यह अहंकार की ही एक घिनौनी शाखा है। महत्वाकांक्षा इस स्थिति तक भी घसीट ले जाती है।

यही हैं वे लाभ जिनको पाने के लिए महत्वाकांक्षी चित्र-विचित्र कृत्य करता रहता है। उसकी मनःस्थिति प्रेत-पिशाच जैसी बनी रहती है वह यह भूल जाता है कि इस प्रकार अपने को संतोष देने की चेष्टा में अन्य प्रकार के कितने अनर्थ उसके साथ जुड़ जाते हैं। ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा का उसे पग-पग पर शिकार होना पड़ता है।

वस्तुतः नम्रता के आधार पर सद्भाव और सहकार मिलता है। साथ ही यह भी देखा गया है कि बड़प्पन की शेखी बघारने वाले उसका पाखण्ड रचने वाले दूसरों की आँखों में गिर भी जाते हैं। सम्मान देने में तो सोच विचार एवं विलम्ब भी किया जाता है, पर जब धूर्तता की गंध आने लगती है तो उतने भर से व्यक्ति को हेय, अधम, पतित माना जाने लगता है। सद्भावना अनायास ही विलीन हो जाती है। मनुष्य के स्वभाव में यह दोष भी सम्मिलित है कि वह अपने से छोटों को तो सहन करता है किन्तु जो बड़प्पन जताता है, उसके बारे में समझा जाता है कि इसके द्वारा हमारा अपमान हो रहा है। इस अनुभूति के होते ही ईर्ष्या जगती है और नीचा दिखाने की चेष्टा चल पड़ती है। कई बार तो ईर्ष्या शत्रुता से भी अधिक भयंकर रूप धारण कर लेती है। और परोक्ष रूप से ऐसे षड्यंत्र रचते हैं जिससे अहंकारी को आघात पहुँचे। इस स्थिति में फँसकर कितनों को ही भारी संकटों का सामना करना पड़ता है। इस अकारण के जंजाल का मूल कारण एक ही रहा होता है कि महत्वाकांक्षा अहंकार के रूप में प्रकट हुई और उसने सम्बन्धित लोगों की सोती हुई ईर्ष्या को अपने उद्धत आचरण से छेड़कर जगाया।

कभी बड़े आदमी भाग्यवान, पुण्यात्मा, क्रियाकुशल-संपन्न समझे जाते थे, पर समय बदल गया। अब हर बड़े आदमी के सम्बन्ध में तरह-तरह के लाँछन लगते हैं और सोचा जाता है कि इतनी प्रगति कर लेने के पीछे अवश्य ही कोई चालबाजी रही है। वैसा प्रमाण न मिलने पर भी अनुमान यही लगाया जाता है कि जब असंख्य लोग सामान्य स्थिति में रह रहे हैं तो उसे ही वैभव बटोरने के अवसर कैसे मिल गया? साम्यवादी विचार धारा में मालदारों को ही गरीबों को गिरी स्थिति में रखने का दोषी ठहराया जाता है। यह मान्यता उनके मन में भी जमी पाई जाती है जो साम्यवादी विचारधारा के नहीं है। अमीरों के नौकर सम्बन्धी, मित्र, कुटुम्बी प्रायः रुष्ट रहते हैं कि उनके बड़प्पन से उन्हें लाभ नहीं मिला। इस मनोमालिन्य के कारण कई प्रकार से जोखिम भी उठानी पड़ती है। ऐसी मुसीबतें प्रायः महत्वाकांक्षियों पर ही आती हैं। औसत नागरिक स्तर का निर्वाह करने में संतोष रखने वाले इन व्यर्थ जंजालों से बच जाते हैं और अपनी क्षमता को दूसरे उपयोगी कार्यों में लगाकर अपेक्षाकृत अधिक सुखी, संतुष्ट रहते हैं।

उत्कर्ष की अभिलाषा को पूर्ण करने का सी तरीका यह है कि अपनी विद्या, योग्यता, कुशलता को बढ़ाया जाय। प्रामाणिक एवं प्रतिभावान बना जाय। सद्गुणों की दृष्टि से दूसरों की तुलना में अधिक उत्कृष्ट बनकर दिखाया जाय। आदर्श अपनाने में अपने उत्साह और साहस का परिचय दिया जाय।

अनायास ही सराहना का अधिकारी बनने का सीधा मार्ग यह है कि लोकमंगल के लिए अपनी सेवाएँ समर्पित की जायँ। सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन में अपने को अग्रिम पंक्ति में खड़ा किया जाय और अनेकों के लिए प्रेरणा स्रोत बना जाय। पुण्य परमार्थ के अनेकों अवसर हर किसी के साथ सर्वत्र विद्यमान रहते हैं। उन्हें अपना कर आत्मपरिष्कार और जनकल्याण का दुहरा लाभ अर्जित किया जा सकता है। सच्ची महत्वाकांक्षा वही हैं जिसमें व्यक्ति की गरिमा और महिमा बढ़े। भले ही भौतिक वैभव की दृष्टि से सामान्य स्तर का रहना पड़े।


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