त्याग ही वरेण्य

May 1992

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“गुरुदेव, मेरा कर्तव्य मुझे पुकार रहा है राजन”

“विजय नगर ने क्या अपराध किया? आचार्य के एकान्त एवं त्याग में कब बाधा दी है इस सेवक ने? हम सब किसके चरणों में प्रणिपात करके प्रेरणा करेंगे?”

एक मात्र जगदीश्वर ही प्रणम्य एवं शरण्य है राजन आचार्य माधव जब कोई निश्चय कर लेते हैं हिमालय के समान स्थिर होता है उनका निश्चय । उन्होंने प्रव्रज्या के महाव्रत को स्वीकारने का निश्चय कर लिया है। विजयनगर राज्य के नागरिक हिन्दू और यवन सब अनाथ की भाँति रो रहे थे। महाराज हरिहर हाथ जोड़े खड़े थे। लेकिन जो त्रिलोकी के वैभव को त्याग देने का संकल्प कर चुका हो, उसे क्या मोह?

ब्राह्मण यदि ब्राह्मण हो तो उसे कहीं कोई विघ्न नहीं होता। आचार्य ही हैं जो इस क्रन्दन करती भीड़ के मध्य भी मुस्करा सकते हैं । विजयनगर का वैभव जिसके आशीर्वाद से एकत्र हुआ और जिसके संकेत पर चलता है, वह राजगुरु, महामंत्री , राज्य का सर्वेसर्वा लेकिन वह कच्ची दीवारों से घिरी तृणों से आच्छादित कुटीर में गोबर से लिपी वेदी पर कुशासन बिछा कर ग्रन्थों के अम्बार में निमग्न रहने वाला तपस्वी-भला ऐसे त्यागमय तपोमूर्ति कहीं कोई विघ्न हो कैसे सकता है?

हम सबका ही कोई अपराध? नरेश का स्वर व्यथा से विगलित था।

ब्राह्मण कृपा करना जानता है, अपराध देखना नहीं, आचार्य ने मस्तक पर अभय कर रखा-त्याग ब्राह्मण का सहज स्वरूप हैं। मेरे जैसा ब्राह्मण त्याग न करे तो समाज आदर्श किससे प्राप्त करेगा

“गुरुदेव न संग्रह तो कभी किया नहीं ।

तुम जिसे संग्रह कहते हो वह तो भोग है और अपनी संस्कृति में भोग तो सदा निषिद्ध है। आचार्य कह रहे थे राजन धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष समाज रूपी बगीचे को सींचने वाली चार नदिया हैं इन चारों धाराओं प्रवाहमान रखने की जिम्मेदारी समाज के ही चार वर्गों पर हैं धर्म अर्थात् विद्या और तप को ब्राह्मण प्रवाहित रखता है। यह समाज की जीवनी शक्ति है।”

आचार्य के शब्दों में स्वयं के जीवन का अनुभव प्रवाहित हो रहा था। उपस्थित जन मूक किन्तु एकाग्र थे। वह बता रहे थे अर्थ अर्थात् सम्पदा-इसे व्यापारी वर्ग प्रवाहित करता है। काम का तात्पर्य है उल्लास इसे जन जीवन में प्रवाहित करने का दायित्व शासन और राज कर्मचारियों पर है। ये तीनों धाराएँ रुकें नहीं ठीक-ठीक संचालित रहें इसी के लिए चौथी शक्ति धारा मोक्ष है जिसका अर्थ है त्याग। त्याग अहंता से तृष्णा से वासना से। यह त्यागवृत्ति प्रवाहित करने का महान दायित्व परिव्राजक पर है।”

“गुरुदेव!” कई कातर स्वर एक साथ फूटे।

“कातर मत बनो!” आचार्य कहते गए “मैंने अब तक गृहस्थ ब्राह्मणों के लिए शास्त्र का संकलन किया है किन्तु परमदान है ज्ञान का दान-त्याग की वृत्ति को जीवित रखने वाले मोक्ष की प्रतिष्ठ।”

“श्री चरणों ने अब तक ज्ञानदान ही किया है।”

नरेश ने चरण पकड़े-वह ज्ञान यज्ञ अखण्ड चलता रहे इस प्रकार की प्रत्येक सेवा......।”

विजयनगर सम्राट के इन शब्दों पर आचार्य उसी प्रकार हँस पड़े जैसे शिशु की बचकानी बात पर प्रौढ़ पिता हँसता है। वह हँसते हुए कहने लगे “त्याग वृत्ति के प्रतिपादन को सेवा सम्पत्ति या सहायता की आवश्यकता नहीं और इसका समाज में जीवित रहना ही नहीं सर्वोच्च होना भी आवश्यक है। अन्यथा शेष तीनों धाराएँ सूख जाएँगी-समाज निर्जीव निष्प्राण होने लगेगा। अपनी संस्कृति का प्रधान सूत्र है त्यागे नैकेव अमृतत्व मानशुः इसे जीना अब मेरा कर्तव्य बन चुका है।”

‘आशीर्वाद!’ बड़ी कातर याचना थी किसी में साहस नहीं था अधिक अनुरोध करने का।

“कर्तव्य पालन स्वयं आशीर्वाद है।” आचार्य ने निरपेक्ष भाव से कहा। प्रव्रज्या का निश्चय करके अब जैसे वे संसार से सर्वथा ऊपर उठ चुके थे।

“सफलता होगी या असफलता यह मत सोचो। शुभ के लिए प्रयत्न सफल हो या असफल, वह कर्ता को तो पवित्र करता ही है।”

इतिहास जानता है कि आचार्य माधव प्रव्रज्या लेकर स्वामी विद्यारण्य हुए और उन्होंने संसार को उससे भी अधिक महत्वपूर्ण ग्रन्थावली दी, जितनी पूर्वाश्रम में दे आए थे। विजय नगर को उनकी त्याग की प्रेरणा और कर्तव्य पालन करते रहने का आशीर्वाद सदा मिलता रहा।


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