सामूहिक तप-शक्ति चाहिए, नवयुग के निर्माण को। हर युग ने स्वीकार किया है, तप के इसी विधान को॥
त्रेता से कम नहीं भयंकर, इस युग का परिवेश है। फिर अनीति अत्याचारों में, द्वापर-सा आवेश है॥
पुनः राम वनवासी जैसी, होनी है युग-साधना-और पाण्डवों जैसी युग-परिवर्तन की आराधना॥
करें नहीं अनसुनी, तपस्वी , युग-ऋषि के आह्वान को॥
रागों का रावण हावी है, सदाचार की सीता पर-कुत्सा-कौरव की कुदृष्टि है, सत्-द्रौपदी पुनीता पर॥
लोभ-मोह की लंका में अंधा है, स्वार्थ-अहं रावण। सद्भावों में जहर घोलता, राग-द्वेष का दुर्योधन॥
लिप्सा ने शैतान बनाया, इस युग के इनसान को॥ आगे पुरश्चरण चलना है, अग्रिम वर्षों के लिये।
जन-जन में जीवट भरना है, युग-संघर्षों के लिये ॥ विकसित करनी होगी तप के द्वारा, आत्म-शक्ति अब तो।
और आत्मबल ऊँचा रखना होगा, सैनिक-सब को रीछ-वानरों ग्वालों-बालों अर्जुन को हनुमान को॥
सविता है आधार सृष्टि का, सुर-संस्कृति का प्राण है। उनके ही ओजस्-तेजस्-वर्चस् का करना ध्यान है॥
प्रज्ञा के प्रकाश में, आलोकित करनी है चेतना। और लोक-मंगल की करनी है, मिलकर के साधना॥
आध्यात्मिक सामर्थ्य जगाकर, चलो उछालें प्राण को॥
-मंगल विजय