नीतिपरायणता और आस्तिकता दोनों एक दूसरे से घनिष्ठतापूर्वक सम्बन्धित हैं। इनको एक सिक्के के दो पहलू के रूप में जाना जा सकता है। एक को छोड़ देने पर दूसरे को समझना मुश्किल ही नहीं असम्भव प्राय है।
पश्चिम के अधिकांश नीतिशास्त्री इस तथ्य को भुला देने के कारण ही जीवन को सुव्यवस्थित स्वरूप नहीं प्रदान कर पाये। यद्यपि इसके लिए ढेरों प्रयत्न किये गये, प्रेम, भाईचारे की न जाने कितनी बातें सोचीं, लिखी गयीं और पोथियों में प्रकाशित भी हुई पर बालू के महल की तरह भोगवादी वृत्ति, तथा संकीर्ण स्वार्थपरक भावनाओं की लहरों ने इसे बिखरा दिया।
आस्तिकता के बिना नीति सम्बन्धी सवालों का जवाब देना बिल्कुल असम्भव है। एक दूसरे से प्रेम क्यों करें? भाईचारे की भावना को स्थान किसलिए दिया जाय? संयमित व सुव्यवस्थित जीवनक्रम की उपयोगिता क्यों है? ऐसा न करने पर किस प्रकार की हानि होगी? आदि। इन सवालों का समाधान नास्तिकता के धरातल पर किसी तरह नहीं किया जा सकता।
इसके लिए जरूरी है किसी ऐसी चीज की स्थापना जो समूची मनुष्य जाति और प्रकृति में सम्बन्ध सूत्र बताए। साथ ही इनका नियन्त्रण व पालन पोषण भी करे। नैतिक व अनैतिक जीवन की लाभ-हानियों की नियामक हो। ये सारी चीजें तभी सम्भव है जब नियामक तत्त्व जड़ न होकर चेतन हो।
आस्तिक दर्शन ने इसे ही ईश्वर, आत्मा, अमरता के रूप में समझाया है। ईश्वर एक ऐसी चेतन सत्ता है जो सब जगह एक सी व्याप्त है। हम सभी में उसी के एक तत्त्व के समाये होने के कारण एक दूसरे से प्रेम व भाईचारे का व्यवहार बन पड़ता है। इस घनिष्ठ सम्बन्ध के कारण पारस्परिक सहयोग का भाव अत्यन्त स्वाभाविक है। आत्मा इसी का अंश है जो व्यक्तिगत जीवन की संचालक सत्ता है प्रकृति से इसका सम्बन्ध ही जीवात्मा के रूप में जाना जाता है। इसी के द्वारा विभिन्न कर्म किए जाते हैं। जिनके नैतिक-अनैतिक रूपों के अनुसार अच्छे बुरे फल प्राप्त होते हैं। इन परिणामों की समाप्ति वर्तमान जीवन तक ही नहीं है। कभी ऐसा दिखाई देता है कि बुरे कामों को करने वाला सुखी है और अच्छे कामों को करने वाला दुखी। इसकी व्याख्या के लिए अमरता का एवं कर्मफल का सिद्धान्त पर्याप्त है। बुरे कामों को करने वाला इसके परिणाम कर्मों के परिपक्व हो जाने पर अवश्य पाएगा भले ही वह अगले जन्म में ही क्यों न मिलें। अच्छे कर्मों के सन्दर्भ में भी यही बात है। जन्म से लूले-लँगड़े प्रतिभावान इसी आधार पर होते हैं।
यही नहीं लगातार अनैतिक कर्मों का किया जाना जहाँ इसी जन्म में विकास की गति रोककर अधोगामी बनाता है। वहीं आदर्शपरायण सुसंयमित जीवन चेतनात्मक उत्कर्ष में सहायक बनता है। आत्मा की प्रखरता और पवित्रता जीवनक्रम को परम-पावन सक्रिय और सतेज बनाती है।
आस्तिकता के अभाव में मात्र बुद्धि के आधार पर बनाए गए नीति-नियमों को आदमी थोड़े दिनों तक तो पालन करता है। बाद में बुद्धि तरह-तरह के प्रश्न खड़े करती है जिनका कोई समाधान उसके पास नहीं होता। इस कारण उसे यही भ्रमवश उचित लगता है कि इस अंधी दौड़ में भागने से अच्छा है कि शौक मौज का जीवन जिएँ तरह-तरह के सुखों का भोग करें। इस तरह धीरे-धीरे सारे नीति-नियम बह जाते हैं। मनुष्य होने के कारण जहाँ उसे सचेतन और जागरूक होना चाहिए था, वहाँ वह पशु की भाँति मात्र चेतन और प्रकृति प्रेरणाओं पर निर्भर रहने लगता है।
मूर्धन्य मनीषी हाइटहेड ने इसी कारण आस्तिकता की अनिवार्यता सिद्ध करते हुए कहा है कि नैतिकता तभी टिक सकती है जब कि उसे आस्तिकता का ठोस आधार मिले। इसके आधार पर ही मनुष्य आन्तरिक सफाई करता, कषाय, कल्मषों से मुक्त होता, विविध सद्गुणों को अपनाता और नीतिवान बनता है। आस्था के अभाव में मनुष्य व्यक्तित्ववान नहीं बन सकता। सर्वव्यापक सत्ता पर बल देते हुए विख्यात दार्शनिक हरबर्ट स्पेन्सर ने कहा है कि ईश्वर विश्वास से ही अन्तः करण के विकास की महत्वपूर्ण प्रक्रिया की शुरुआत होती है। धीरे-धीरे वह विश्वासी व्यक्ति सारे के सारे नैतिक गुणों का घनीभूत पुँज बन जाता है। निश्चित ही नैतिकता का वास्तविक उद्देश्य आस्तिक बनने से पूरा हो जाता है।
स्वार्थपरता की संकीर्ण मनोभूमि में ही अनैतिकता फूलती फलती है। जब तक इस प्रकार की मनोभूमि बनी रहेगी, अनैतिकता के कम या दूर होने की बात तो दूर, उलटे इसे बढ़ावा मिलता रहेगा। सर्वव्यापी सत्ता पर विश्वास से आत्मीयता के विस्तार की प्रक्रिया शुरू होती है। मनुष्य संकीर्णता के दायरे से ऊपर उठ जाता है। उसका हृदय प्राणि मात्र के प्रति प्रेम से भर जाता है। फिर इसमें घृणा-विद्वेष का कोई स्थान नहीं रह जाता।
मनुष्य सही माने में नैतिक, चरित्रनिष्ठ, कर्तव्यपरायण बने, यह मात्र बौद्धिक तर्कों के सहारे सम्भव नहीं। इसके लिए भाव सम्वेदनाओं को उभारना होगा। इसके लिए आस्तिकता के उन तथ्यों को अपनाना जरूरी है जो मानवीय सम्वेदनाओं के मर्मस्थान को स्पर्श करते हैं। क्योंकि नीति सिद्धान्त अपनी समूची तार्किकता के बाद भी दिमाग को ही छू पाते हैं दिल तक उनकी किसी तरह पहुँच नहीं। नीतिशास्त्र का आधार तर्क है, जबकि आस्तिकता का विवेक। विवेक-भावना और तर्क का समन्वित रूप है। इसका संचालन बुद्धि के स्थान पर हृदय से होता है।
नीतिशास्त्र का वैचारिक मन्थन जीवनक्रम में आमूल-चूल परिवर्तन के लिए काफी नहीं है। विचारों से बुद्धि में परिपक्वता आती है जानकारी बढ़ती है। पर उसका प्रभाव अन्तस् पर नहीं के बराबर पड़ता है। आस्तिकता भावनाओं को छूती है। इसके अवलम्बन से जीवनक्रम में आमूल-चूल परिवर्तन लाकर आदर्शपरायण बनना सहज है। दर्शनशास्त्री देकार्त ने इसे बुद्धि का प्रकाश कहा है। जिससे तमाम तरह के संदेहों से छुटकारा मिलता है। जीवन के विकास की गति तेज हो जाती है।
पाश्चात्य दार्शनिक काण्ट के अनुसार-मनुष्य को नैतिक बनाने के लिए ईश्वर को मानना आवश्यक है। इसके बिना उसे नीतिपरायण नहीं बनाया जा सकता। ईश्वर सारी नैतिक विशेषताओं एवं उच्चस्तरीय आदर्शों का एकीकृत पुँज है। इस विश्वास के साथ अवलम्बनकर्त्ता भी धीरे-धीरे वैसा ही बनता जाता है। दैनिक जीवन में ऐसे तमाम उदाहरण मिलते हैं जिनसे पता चलता है कि ईश्वरपरायण व्यक्ति नैतिक दृष्टि से सामान्य लोगों से कहीं अधिक बढ़े-चढ़े होते हैं। वह कहीं अधिक शांति, सन्तोष की उपलब्धि करने में समर्थ होता है। महर्षि रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार ईश्वर विश्वास स्वयं में एक सृजनात्मक शक्ति है, जो हमेशा पारस्परिक सेवा व सहयोग के फूलों का चयन करती है। इससे आदमी खुद ही नीतिपरायण बनता और दूसरों को भी अपने अनुसरण की प्रेरणा प्रदान करता है। सामान्य व्यक्ति के लिए ईश्वर इस संसार का निर्माता, पोषक और संहारक बन सन्मार्ग अपनाने और उस पर बढ़ चलने के लिए प्रेरणा का स्रोत है। असामान्य व्यक्ति उस सत्ता को आदर्शों एवं सिद्धान्तों के प्रकाश पुँज के रूप में देखता है। उसी के अनुरूप स्वयं को ढालने का प्रयास करता है।
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विचार करने पर पता चलता है कि किसी न किसी रूप में हर आदमी की चाहत है कि उसका अपना कोई संरक्षक हो, जो समर्थ हो उसे मार्गदर्शन दे और सहयोग करे। ऐसी समर्थ सत्ता परमात्मा के सिवा और कौन हो सकती है? जो मनुष्य को हर समय सूक्ष्म संरक्षण प्रदान कर सके। इसी भाव की व्याख्या करते हुए मनोविज्ञानी कार्ल गुस्ताव युँग का मानना है कि आस्तिकता इसी तरह संरक्षण प्रदान करती है जैसे नन्हे-मुन्ने शिशु के लिए माँ की गोद। इसी के समग्र विकास से नैतिक सत्य का ज्ञान होता है। यह ठीक है कि हम बाद में उसके विचार विमर्श से विभिन्न कारण एवं तर्कों की खोज कर लें। जिसका जीवन इसके अनुसार संचालित होता है वह अपने जीवन को कवि या कलाकार की भाँति कविता या चित्रों में नहीं दर्शाता, वरन् एक उच्चतर किस्म के व्यवहार में अभिव्यक्त करता है।
बात भी सही है। आस्तिक बनने का मतलब ईश्वर-ईश्वर की रट लगना नहीं है। इसका सही अर्थ यही है कि हम ईश्वर को सर्व व्यापक मानकर सभी में उसी की अनुभूति करें। यह अनुभूति व्यावहारिक धरातल पर प्रेम स्नेह, भाईचारे के रूप में प्रकट होती है। आत्मा को ईश्वर का अंश मानकर उसे सद्गुणों के समुच्चय के रूप में माना जाय। इन्हीं सद्गुणों को एक-एक करके व्यवहार में लाना होगा। साथ ही इस तथ्य पर विश्वास करना होगा कि वर्तमान जीवन विकास यात्रा का एक कदम है न कि इसकी समाप्ति। धीरे-धीरे किन्तु लगातार विभिन्न गुणों के द्वारा अपने आधार व व्यवहार को सजाना होगा। आचरण व व्यवहार को इस तरह ढालना ही सही माने में आस्तिक बनना है। इस प्रयास में जुटे लोगों की नैतिकता तर्क-कुतर्क व पोथियों के पन्नों में कैद नहीं रहती। अपितु इसका उच्चतर स्वरूप अपनत्व के भाव तथा चिन्तन कर्तृत्व की उत्कृष्टता के रूप में प्रकट होता है। जीवन को सही ढंग से गढ़ कर सर्वांग सुन्दर बनाना इसी के द्वारा सम्भव है।