चिन्तन गढ़ता है, हमारा-आचरण

May 1992

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जीवन एक बहुमूल्य यन्त्र के सदृश है। इसे सुघड़ता के साथ इस्तेमाल करना एक महती कला है। जो इस कला में भिज्ञ हैं वे सुखपूर्वक रहते और अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त करते हैं। पर जिन्हें इसे इस्तेमाल करना नहीं आया वे उपकरण के बिगाड़ के साथ अपने भी हाथ-पैर तोड़ लेते हैं। स्वस्थ शरीर, उद्विग्न मन, पारिवारिक कलह, आर्थिक असन्तुलन, शत्रुओं के उपद्रव, लोकापवाद, एवं असफलताजन्य शोक-सन्ताप इस बात के चिन्ह हैं कि जीवन यंत्र के कल-पुर्जे दुर्घटनाग्रस्त होकर टूट-फूट गए हैं। जिसका सुस्पष्ट तात्पर्य है कि संचालक अनाड़ी है। वही इस प्रकार की दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सकता है। अन्यथा जीवन प्रत्येक प्राणी के लिए हर घड़ी आनन्द देते रहने वाला ईश्वरीय वरदान है। इसे अभिशाप में बदलने का दोष न तो इसके निर्माता, को है, नहीं वातावरण, को अपितु उस संचालक को है जिसने सही संचालन की कला नहीं सीखी।

बाह्य शरीर के विभिन्न अंग अवयव अपना काम करते दिखाई देते हैं किन्तु गहराई में झाँकने पर प्रतीत होता है कि उनका संचालन करने वाली प्राण चेतना है, व्यक्त मन शरीर की समस्त गतिविधियों का संचालक और नियामक है। प्राण के शरीर में न रहने पर काया के समस्त घटक एवं पदार्थ यथावत् बने रहने पर भी स्तब्ध हो जाते तथा सड़ने लगते हैं। हाथ, पैर चलाने, बोलने आदि की क्रियाएँ तो चेतन मन द्वारा संचालित होती हैं पर रक्त संवाहन, श्वास, प्रश्वास आकुंचन, प्राकुंचन आदि कार्य अचेतन की प्रेरणा से अनायास होते दीखते हैं, उनके पीछे अव्यक्त मन की स्वसंचालित प्रक्रिया ही है।

इस समूची प्रक्रिया का यदि ग्राफ बनाया जाय तो इसमें स्पष्टतया उतार-चढ़ाव के विविध स्वरूप दीख पड़ेंगे। मनोवैज्ञानिकों के अध्ययन स्पष्ट करते हैं कि यह स्वरूप की विधियाँ ठीक हमारे विचारों के अनुरूप होती हैं। भले ही हमारी पूर्व मान्यता में इनका कोई स्थान न रहा हो। किन्तु वास्तविकता यही है कि ये सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं।

सुप्रसिद्ध विद्वान प्राध्यापक एलीशाग्रे ने अपनी कृति “मिरैकिल्स आफ नेचर” में लिखा है कि प्रकाश की तुलना में विचार विद्युत की प्रवाह गति कहीं अधिक है। अभी यन्त्रों के द्वारा पूर्णतया नापा न जा सकने पर भी यह एक तथ्य है कि विचार मात्र कल्पनाओं का उभार न होकर एक शक्तिशाली पदार्थ है उसकी गति तथा क्षमता ज्ञात भौतिक शक्तियों में सबसे अधिक है कुछ विज्ञानविदों ने इसे सूक्ष्म भौतिक भी कहा है। वैज्ञानिकों के इस सूक्ष्म विज्ञान को श्रीअरविन्द अतिभौतिक (सुप्राफिजिकल) कहकर निरूपित करते हैं।

प्रख्यात अध्येता राबर्ट. जे. फ्लेमिंग ने भी अपने पुस्तक “आइडिया एण्ड इट्स प्रॉपर्टीज” में लिखा है कि ताप विद्युत आदि की ऊर्जा मात्र भौतिक पदार्थों को ही नरम-गरम करती है तथा उनके स्वरूप को परिवर्तित करती है। पर विचार विद्युत न केवल व्यक्ति विशेष, वरन् समूचे वातावरण को ही आश्चर्यजनक मात्रा में परिवर्तित कर सकती है। चेतना से सर्वाधिक घनिष्ठ तथा इसे प्रभावित कर सकने वाली क्षमताओं में विचारों को ही शीर्षस्थ माना गया है। वे अपने उद्गम स्थल-विचारक को सर्वाधिक प्रभावित करते और फिर अपने समीपवर्ती क्षेत्र पर असर डालते हुए निस्सीम दूरी तक बढ़ते चले जाते हैं। प्रेरक व्यक्तित्व की प्रतिभा के अनुरूप ही उसकी सामर्थ्य का स्तर रहता है तद्नुरूप अन्यान्य व्यक्तियों और प्राणियों पर उनका प्रभाव पड़ता है।

विचारणा को यदि सुगठित तथा उच्चस्तरीय उत्कृष्टता सम्पन्न बनाया जा सके तो जीवन भी उसी के अनुरूप परिचालित हो सकेगा। शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को इसी विधा का अनुगमन कर रखा जा सकता है। पर इसके विपरीत यदि मानसिक क्षेत्र को अवांछनीय कूड़े-करकट से भर दिया गया हेय विचारों से परिपूरित कर लिया गया तो उसकी सड़न से जीवन के समूचे अणु-परमाणु विषाक्त हो जाएँगे और सामान्य दैनन्दिन जीवन की समस्याओं का हल ढूँढ़ निकालना भी सम्भव न बन पड़ेगा। मानसिक चेतना की यह विषाक्त स्थिति जीवन के लक्ष्य एवं स्वरूप दोनों पर कुठाराघात करती तथा स्वयं भी कुंठित हो जाती है।

जिस जीवन के द्वारा शिवत्व व सौंदर्य की अभिव्यक्ति होनी थी सत्ता के मूल सत् को पाना था, कुरूपता ही पल्ले बँध जाती है। इस कुरूपता को हटाने तथा सौंदर्य को प्रतिष्ठित करने के लिए आवश्यक है विचारों के स्वरूप को समझा जाय। विचार ही मनुष्य को ऊँचा उठाते अथवा पतन के गर्त में धकेलते हैं।

विचार तरंगों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम सृजनात्मक एवं द्वितीय विध्वंसात्मक। सृजनात्मक विचारणाएँ अपनी अभिव्यक्ति प्रसन्नता सन्तुष्टि, आशा, हिम्मत, करुणा, सहृदयता, सहानुभूति आदि भावों के रूप में करती है। ध्वंसात्मक विचारणाओं की अभिव्यक्ति क्रोध, घृणा, ईर्ष्या, आदि के रूप में होती है। विचारों के सृजनात्मक स्वरूप का शरीर पर पड़ने वाला प्रभाव उत्साहवर्धक होता है। इसके विपरीत ध्वंसात्मक चिन्तन मानसिक ऊर्जा का क्षय कर अपनी कार्यक्षमता नष्ट कर डालता है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति किंकर्तव्य विमूढ़ हो जाता है और संकट से उबरने की राह पाने में अपंग असमर्थ बन जाता है। ऐसी स्थिति में उलटे विचारों की शृंखला नई उलझनें पैदा कर अधिकाधिक दल-दल में डुबोती जाती हैं।

सृजनात्मक चिन्तन हमारे आचरण व्यवहार को गढ़कर उसको सौंदर्यवान बनाने वाला होता है। इससे व्यक्तित्व में प्रभाविकता आती है विख्यात मनोविद् जे.जे. मैकडरमॉट ने अपने अध्ययन “द् रायटिंग्स आफ विलियम जेम्स "कम्प्रीहेन्सीव एडीसन" में कहा है कि विचारों से ही जीवन को गढ़ा जाता है। इसी के अनुरूप जीवन की अभिव्यक्ति तत्संबंधी क्रियाकलापों गतिविधियों के रूप में होती है उसकी उत्कृष्टता-निकृष्टता प्रेम, उदारता, सहानुभूति अथवा परपीड़न घृणा आदि के रूप में दृष्टिगत होती है।

इनको परिष्कृत करने तथा चेतना के उच्चतम आयामों को प्राप्त करने के लिए भारतीय मनीषियों ने विविध अध्यात्म उपचार ढूँढ़ निकाले थे। इसके लिए एक सर्वांगीण व्यवस्थित विचार-विज्ञान ही सृजित किया गया। जिसके अनुसार पहले उन्नत विचारों से मन में जमे गंदे विचारों को साफ किया जाता है। रामकृष्ण परमहंस इसे पहली और अनिवार्य आवश्यकता मानते हुए अपनी सरल भाषा में बताते हैं कि संसार में कहीं कष्ट नहीं है। अनुभूत होने वाला कष्ट हमारे अपने कुविचारों का है। कुविचारों का काँटा हमें चुभ गया है। उसी के कारण सारा कष्ट है। इसको दूर करने के लिए सुविचारों का एक दूसरा काँटा लेकर इससे चुभे एक काँटे को बाहर निकाल कर फेंक दिया जाता है। निकाल फेंकने की यह विधा-स्वाध्याय है यही वह बुहारी है जिससे मन की समस्त गंदगी को बुहारा जाता है। श्री अरविन्द “लेटर्स आन योग“ में स्वाध्याय की प्रभावोत्पादकता के बारे में कहते हैं कि इससे उच्च मन का परिक्षेत्र खुलता है। जिससे चेतना के उन्नत स्तरों से विचारों का अवतरण होता है। इसे विचारों के प्रकाश मान संसार का उदय कह सकते हैं।


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