आइंस्टीन ने समस्त संसार को सात आयामों में सीमाबद्ध बताया है। इसके प्रथम चार आयाम स्थूल जगत का प्रतिनिधित्व करते हैं, जबकि बाद के तीन आयाम सूक्ष्म जगत का। प्रथम को यदि विज्ञान कहें, तो दूसरे को अध्यात्म कहना पड़ेगा। आध्यात्मिक आयाम में व्यक्ति जैसे आत्मिक उन्नति करते हुए प्रवेश करता है, उसे तरह-तरह की विलक्षण अनुभूतियाँ होने लगती हैं। विज्ञान इसे ही चमत्कार कहकर पुकारता है।
वस्तुतः यहाँ चमत्कार जैसा कुछ है नहीं। जो चमत्कार दीखता है, वह अपनी सापेक्षिक दृष्टि होती है और यह परिवर्तित आयाम के कारण उपलब्ध होती है। यदा-कदा जब व्यक्ति इसके कारण किसी उच्च आयाम में कुछ क्षण के लिए पहुँच जाता है, तो उसे ऐसे-ऐसे दृश्य दिखाई पड़ने लगते हैं, जो स्थूल जगत के नियमों के हिसाब से आश्चर्यजनक होते हैं, पर इन्हें असंभव नहीं कहना चाहिए, क्योंकि एक आयाम में जो घटना भूत बन गई है, वह दूसरे में वर्तमान और भविष्य हो सकती है। आध्यात्मिक पुरुषों की अनुभूतियों से इसकी पुष्टि हो जाती है।
विवेकानन्द जब यौवन के प्रवेश द्वार पर थे, उन्हीं दिनों की बात है। एक दिन प्रातः जब वे अपने कमरे में ध्यान कर रहे थे, तो अचानक उनका ध्यान टूट गया। आँखें खुलीं तो सामने की दीवार पर दृष्टि पड़ी। दृश्य देखा तो वे हतप्रभ रह गये। वहाँ चीवरधारी बुद्ध की छवि हाथ में भिक्षा पात्र लिए दीवार छेदती हुई प्रकट हो रही थी। कुछ क्षण तक आकृति मौन खड़ी रही, तदुपरान्त अन्तर्ध्यान हो गई। ऐसे ही एक अन्य अवसर पर उन्हें भगवान नारद के दर्शन हुए थे, जो कुछ आवश्यक बातें बताने के उपरान्त तिरोहित हो गये।
स्वामी रामतीर्थ ने अपने संस्मरण में एक स्थान पर लिखा है कि जिन दिनों वे उत्तराखण्ड व हिमालय क्षेत्र की यात्रा पर थे, उन दिनों एक रोज उनका बड़ा विचित्र हाल हो रहा था। वे भाव की इतनी उच्च अवस्था में थे कि उन्हें यही होश न रहा कि जाना किधर है। वे अपनी कुटिया से विपरीत दिशा में सघन वन की ओर चल पड़े। करीब आधा मील चलने के उपरान्त घना जंगल आ गया। इतने पर भी उनकी भाव-भंगिमा वैसी ही बनी रही। वे लगातार चलते ही चले जा रहे थे । अचानक मार्ग में आदि गुरु शंकराचार्य का चिन्मय विग्रह दिखाई पड़ा जो हाथ के इशारे से उन्हें रुकने का संकेत कर रहा था। जब वे रुके, तो विग्रह ने वस्तुस्थिति समझायी और पीछे लौट जाने को कहा। इसके बाद वह छाया गायब हो गई।
रामकृष्ण परमहंस के एक प्रमुख शिष्य स्वामी शारदानन्द ने एक बार अपने गुरुभाइयों से इस बात का उल्लेख किया था कि जब वे स्वामी विवेकानन्द के आग्रह पर प्रचार कार्य हेतु इंग्लैण्ड आये, तो एक दिन अकस्मात् सामने सुदर्शन चक्र धारी भगवान श्री कृष्ण दिखाई पड़े। उनके चेहरे पर एक दिव्य मुस्कान थी। अभी शारदानन्द कुछ समझ पाते और विवेकानन्द से इसकी चर्चा करते, कि मूर्ति लुप्त हो गई।
इस प्रकार के कितने ही दिव्य दर्शन महापुरुषों के जीवन में घटते ही रहते हैं। इन्हें दृष्टि भ्रम अथवा अवास्तविक कहना ठीक नहीं, क्योंकि वास्तविक-अवास्तविक का सिद्धान्त हमारे द्वारा निर्मित है। जिन घटनाओं को हम स्थूल रूप में घटते देखते हैं, उन्हें वास्तविक और दूसरे को काल्पनिक कह देते हैं, पर चेतनात्मक संसार में इनका कोई अस्तित्व नहीं। वहाँ न तो कुछ वास्तविक है, न अवास्तविक, वरन् सब कुछ शाश्वत व चिरन्तन है। प्रत्यक्ष जगत में वास्तविकता-अवास्तविकता का पैमाना हम स्थूलता को मान लेते हैं। शरीर जब तक जिन्दा रहता है, उसकी सत्ता को स्वीकारते हैं और मरने के बाद सब समाप्त हो गया-ऐसी भ्रांतिपूर्ण धारणा बना लेते हैं।
यथार्थता यह है कि ऐसी घटनाओं के समय आयाम परिवर्तन के कारण हम सर्वथा चेतनात्मक संसार में पहुँच जाते हैं। वहाँ समय का कोई अस्तित्व नहीं। अतः पृथ्वी में जो घटनाएँ घट चुकी होती हैं, वह भी ज्यों-की-त्यों दिखाई पड़ती हैं। विवेकानन्द ने लिखा है कि सामान्य व्यक्तियों की फ्रीक्वेंसी सूक्ष्म सत्ताओं से भिन्न होती है, इसलिए वे उन्हें देखने में असमर्थ होते हैं। जब प्राणों का यही कम्पन दोनों में समतुल्य हो जाता है, तो दिव्य दर्शन प्राप्त होता है। यही आयाम-परिवर्तन है। भावना और चिन्तन चेतना में परिष्कृति द्वारा आयाम का यह बदलाव संभव है। योगीजन इसी प्रक्रिया द्वारा स्वयं को अध्यात्म के उच्च सोपानों में पहुँचाते और जो सामान्यजन देख-सुन नहीं पाते वैसी जानकारियाँ अर्जित करते हैं।