आत्मावलम्बन पर टिकी हैं -समस्त सिद्धियाँ

May 1992

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सहयोग का आदान-प्रदान मानवी स्वभाव भी है और सामाजिक प्रचलन भी। इस संदर्भ में कुशलता बरतना उचित है। किन्तु भूल तब होती है। जब किसी पर पूरी तरह आश्रित होकर यह आशा लगाई जाती है कि वह बिना किसी प्रत्युपकार के हमारे ऊपर अनुग्रह की वर्षा करेगा और उदारतापूर्वक निहाल कर देगा। ऐसी आशा देवताओं, सिद्धपुरुषों या धनी मानी लोगों से भी नहीं करनी चाहिए। वे भी अपनी विभूतियों को बहुत समझ बूझकर सोच समझ कर खर्च करते हैं और यह देखते हैं कि सदुपयोग होने पर दाता को जो श्रेय मिलना चाहिए वह उन्हें मिलेगा या नहीं। घाटे का सौदा कौन करता है? दान-अनुदान में भी इन तथ्यों का समावेश रहता है। हर कोई चाहता है कि उसकी सम्पत्ति किसी ऐसे काम आवे जो श्रेयस्कर परिणाम उत्पन्न करे।

सयानी कन्या को किसी सुयोग्य हाथों में सौंपने की हर पिता की इच्छा होती है उसके लिए सत्पात्र ढूँढ़ने में वह समुचित दौड़-धूप करता है। जब बात बन जाती है तो वह मात्र लड़की को ही नहीं, वरन् कुछ उपहार भी साथ देता है। देते हुए प्रसन्नता भी अनुभव करता है और लेने वाले का मन टटोलता है कि जो दिया गया है उसे उसने पर्याप्त माना या नहीं। यही है सत्पात्र की सहायता करने की प्रथा-प्रक्रिया

इसके विपरीत किसी कुपात्र द्वारा कन्या माँगने पर पिता न केवल असहमत ही होता है वरन् उसे भला बुरा भी कहता है। कारण कि वह सोचता है कि दान सम्पदा की यदि दुर्गति हुई तो सदा शोक-संताप करना पड़ेगा।

देने के बाद दाता की जिम्मेदारी पूरी तरह समाप्त

नहीं हो जाती वरन् तब तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है जब तक कि उसका सदुपयोग नहीं होने लगता, सत्परिणाम दृष्टिगोचर नहीं होने लगता। कोई भी सर्वथा निस्पृह नहीं। सहायता भी एक प्रकार का कर्ज है। उसे देने के उपरान्त मात्र धन्यवाद, जय-जयकार से ही काम नहीं चलता वरन् यह भी देखना पड़ता है कि प्रतिफल क्या मिला। बदले में क्या मिलने की संभावना है। प्रत्यक्ष न सही तो वह परोक्ष तो होना ही चाहिए। पुण्य परमार्थ की पूर्ति तो उससे होनी ही चाहिए। यदि दोनों में से एक भी प्रयोजन न सधता दिखाई पड़े तो फिर कोई किसी को सहायता देने का साहस नहीं करेगा। कसाई का बूचड़खाना खोलने के लिए कोई सहायता दे तो उसके कारण जो पशुवध का व्यवसाय चलेगा उसमें पाप का भागी उस दानी को भी बनना पड़ेगा।

देने की समर्थता से भरी पूरी शक्तियों की कमी नहीं है। समुद्र में अथाह जल भरा है जो बादलों के माध्यम से भूमि पर उदारतापूर्वक बरसता रहता है। पर

उसमें ग्रहण उतना ही किया जाता है जितना कि अपने पास पात्र हो। जोहड़, सरोवर भी उतना ही जल एकत्रित कर पाते हैं जितनी कि उनमें गहराई होती है। सूर्य में प्रचंड ऊर्जा के भण्डार भरे पड़े हैं। पर उसे ग्रहण कर सकना उन्हीं के लिए संभव होता है जो खुली धूप में बैठते हैं। जिनने अपने मकान के दरवाजे खिड़कियाँ बन्द कर रखी हैं। उनके लिए यह कठिन है कि धूप या हवा उस बन्द कमरे में प्रवेश कर सके। प्रवेश पाना, उपलब्धियों को ग्रहण कर सकना सामान्य बात नहीं है।

जब कभी भूकम्प, बाढ़, महामारी, दुर्भिक्ष आदि संकट आते हैं तो संकटग्रस्तों की सहायता करने अनेकों उदारमना दौड़ पड़ते हैं और तन, मन, ध्यान से उनकी सहायता करते हैं। पर जो समर्थ होते हुए भिक्षा व्यवसाय अपनाते हैं उन्हें जहाँ तहाँ धक्के खाने और तिरस्कार के वचन सुनने पड़ते हैं। यह कुपात्रता का ही प्रतिफल है।

मोती हर सीप में पैदा नहीं होता। स्वाति बूँदों को धारणा कर सकने की क्षमता विशेष आकृति की सीपों में ही होती है। लोहा पारस को छूकर तभी सोना बनता है जब वह किसी आवरण में लिपटा हुआ न हो। महत्वपूर्ण घास, फल, या फूल अपने ढंग की भूमि में ही पैदा होते हैं। जिस भूमि में उर्वरता या अनुकूलता नहीं है, उसमें जो बोया गया है वह भी निरर्थक चला जाता है।

उदारमना समृद्ध व्यक्ति या योगी-तपस्वी अपनी विभूतियाँ हर किसी याचक पर नहीं उड़ेल देते। मुफ्तखोरों की कहीं कमी नहीं। वे बिना परिश्रम के बिना बदला चुकाये जहाँ तहाँ से मनमर्जी का चीज बटोरने की फिक्र में रहते हैं। देवी-देवता उन्हें सब से अधिक बेअकल प्रतीत होते हैं, जिनकी थोड़ी सी पूजा−पत्री या मनुहार करने से मनोकामना पूर्ति का वरदान हाथ लगे। यह एक प्रकार की जेब कटी का धंधा है, जिसकी सफलता सदा संदिग्ध रहती है।

सहायता पर निर्भर रहना न तो बुद्धि संगत है और न नैतिक । बिना मूल्य चुकाये किसी की कमाई हड़प लेना, बेईमानी या विश्वासघात में गिनी जाती है। इतना होने पर किसी समझदार को चकमा देना चूना लगाना सरल नहीं है। जो अपना खर्च चला लेता है किसी की सहायता नहीं माँगता साथ ही इतना बचा भी लेता है तो समझना चाहिए कि उनकी बुद्धिमानी में कमी नहीं है। जिनमें बुद्धि है वही कमाते हैं, चाहे आध्यात्मिक सम्पदा हो या भौतिक। जिनने गाढ़ी से कुछ संचय किया है वह इतनी अकल भी रखते हैं कि उसे मुफ्तखोरों पर न लुटाया जाय। उस कमाई को उस कार्य के लिए उस व्यक्ति को दिया जाय जा उपलब्ध सहायता से अपना ही नहीं दूसरों का भी कल्याण कर सके। जिसमें मनुहार करके झटकने और फिर उसे गुलछर्रे उड़ाने के लिए आँखें मूँद कर उड़ेल दें, यह नहीं हो सकता। जो अपनी पात्रता सिद्ध करेगा वही अधिकारी बनेगा। सरकारी ऑफिसर भी प्रतिस्पर्धा जीत कर ही नियुक्ति पत्र प्राप्त करते हैं। कोई अनपढ़ व्यक्ति उस प्रतिफल को प्राप्त करना चाहे तो उसके लिए लोमड़ी खट्टे अंगूरों की ही शिकायत करती रहेगी।

जिसके पास आत्म-क्षमता है, उसे दूसरे लोग भी सहायता करते हैं। फूलों की शोभा बढ़ाने के लिए तितलियाँ कहीं से भी दौड़ आती हैं। सोना खरा हो तो उसके आभूषण बना देने वाले कई स्वर्णकार मिल जाते हैं। पर जहाँ अपनी मूलसत्ता में ही खोट भरी हो, वहाँ इस प्रकार की उपलब्धियाँ हस्तगत नहीं होती।

जो सुयोग्य सत्पात्रों के लिए सुरक्षित है। जो लोकप्रिय नेता या व्यक्ति जन समर्थन प्राप्त करते और वोट पत्र पाते हैं उन्हें ही शासन तंत्र में प्रतिनिधि की हैसियत से चुने जाने का अवसर मिलता है।

अच्छा हो हम अपनी सहायता आप करें। अपने निर्माण में स्वयं जुटें। अपने पंखों पर खड़े हों और अपनी प्रतिभा का परिचय दें। योग्यता और पात्रता की अभिवृद्धि होने पर सहायता तो सारा संसार करेगा भगवान भी?


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