विवेक ही बने हमारा मार्गदर्शक

May 1992

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जीवनक्रम को उचित दिशा में नियोजित करते हुए उपयोगी और औचित्यपूर्ण का चुनाव करना प्रत्येक मनुष्य का अपना कर्तव्य कर्म है। पतन और उत्थान में से किस मार्ग पर चलना है? यह फैसला करना पूरी तरह अपनी इच्छाशक्ति ज्ञानशक्ति एवं क्रियाशक्ति को किसी भी दिशा में किसी भी प्रयोजन के लिए उपयोग करे। इसमें किसी दूसरे का कोई हस्तक्षेप नहीं है।

प्रख्यात दार्शनिक पी.टी. राजू ने अपने एक शोध निबन्ध “डिसक्रिमिनेशन इन लाइफ” में कहा है कि मानवीय शक्तियों के नियोजन का आधार विवेक है। यह उच्चतम जीवन मूल्य है। बात भी सही है। कर्म करने में मनुष्य पूर्ण स्वतन्त्र है। पर परिणाम भुगतने के लिए वह नियोजक सत्ता के आधीन है। क्या करे, क्या न करे, इसके ठीक निर्णय के लिए ही विवेक की अमूल्य कसौटी मिली हुई है अन्यथा हम विष तो अपनी मर्जी से पी सकते हैं, पर मृत्यु का परिणाम भुगतने से बच पाना अपने हाथ में नहीं है। पढ़ना न पढ़ना विद्यार्थी के अपने हाथ में है, पर उत्तीर्ण होने न होने में उसे परीक्षकों के निर्णय पर आश्रित रहना पड़ता है। ऐसी स्थिति न रही होती तो फिर कोई सत्कर्म करने के झंझट में पड़ना स्वीकार ही न करता। दुष्कर्मों के दण्ड से बचना भी अपने हाथ में होता, तो फिर ज्यादा से ज्यादा लाभ लूटने से कोई भी अपना हाथ न रोकता।

डववेक का उपयोग न करने वाले इसी भूल भुलैया में भटकते देखे जाते हैं। वे तत्काल काली देखते हैं और दूरगामी परिणाम की ओर से आँखें बन्द किए रहते हैं। आलसी किसान और आवारा विद्यार्थी आरम्भ में मौज करते हैं, पर जब असफलताजन्य कष्ट भुगतना पड़ता है, तो पता चलता है कि विवेक हीनता कितनी महँगी पड़ी।

वस्तु स्थिति का सही मूल्याँकन कर सकना कर्म के प्रतिफल का गंभीरतापूर्वक निष्कर्ष निकालना उचित अनुचित के सम्मिश्रण में जो श्रेयस्कर है, उसी को अपनाना विवेकशीलता का काम है। इसको ताक पर रख देने से असफलता हाथ लगती है। अवांछनीयता में रहने वाला आकर्षण चिन्तन को ऐसे व्यामोह में डाल देता है कि उसे तात्कालिक लाभ को छोड़ने का साहस नहीं होता भले ही पीछे उसका प्रतिफल कुछ भी क्यों न भुगतना पड़े। इसी व्यामोह में ग्रस्त होकर अधिकांश जन आलस्य प्रमाद से लेकर व्यसन व्यभिचार तक और क्रूर कर्मों की परिधि तक पड़ते चले जाते हैं। इन्द्रिय लिप्सा में ग्रस्त होकर लोग अपना स्वास्थ्य चौपट करते हैं। वासना-तृष्णा की गुलामी में बहुमूल्य जीवन सम्पत्ति यों ही खपती रहती है। इस चक्रव्यूह में पड़कर व्यक्ति किस प्रकार खोखला होता चला जाता है, इसका प्रमाण आत्म समीक्षा करके हम स्वयं ही पा सकते हैं।

बहुधा लोग यह तर्क करते हैं कि यदि अनुपयोगी चीजों व्यर्थ हैं, तो स्रष्टा ने उसका सृजन ही क्यों किया? यह तर्क निज के जीवन की परिधि में रहकर तो युक्ति पूर्ण लगता है। किन्तु परिधि का दायरा बढ़ा लेने तथा सृजेता की दृष्टि से विचार करने पर इसकी निरर्थकता स्पष्ट हो जाती है। जो एक स्थान पर व्यक्ति विशेष के लिए उपयोगी है, वही दूसरी जगह अनुपयोगी और अनौचित्यपूर्ण साबित होता है। प्रत्येक की अपनी महत्ता एवं व्यक्ति विशेष के सापेक्ष है। इसका सही चुनाव तभी सम्भव है, जब विवेक का चश्मा इस्तेमाल किया जाय।

अनर्थमूलक भ्रम-जंजालों से निकलकर श्रेयस्कर दिशा देने की क्षमता सिर्फ इसी में होती है। इसके उपयोग की कला जो जानता है, समझना चाहिए कि उसी के लिए औचित्य अपनाना सम्भव होगा और वही कुछ महत्वपूर्ण कार्य कर सकने में समर्थ होगा। विवेकशीलता की कमी अन्य किसी गुण से पूरी नहीं की जा सकती। अन्य गुण कितनी ही बड़ी मात्रा में क्यों न हों पर यदि विवेक का अभाव है तो सही दिशा का चुनाव न हो सकेगा। दिग्भ्रान्त मनुष्य कितना ही श्रम क्यों न करे, अभीष्ट लक्ष्य तक पहुँच सकना उसके लिए सम्भव न होगा।

विवेकशीलता को ही सत्य की प्राप्ति का एक मात्र साधन कहा जा सकता है। यथार्थता तक पहुँचने का यही आधार है। हीरे पेड़ों पर फूल की तरह लटके नहीं मिलते। उसे कोयले की गहरी खदानें खोदकर निकालना पड़ता है। सत्य किसी को अनायास ही नहीं मिल जाता उसे विवेक की कुदाली से खोदकर निकालना पड़ता है। दूध और पानी को पृथक् कर देने की आदत हंस में पायी जाती है। यह कथन तो अलंकार मात्र है। पर यह सत्य है कि विवेक रूपी हंस वृत्ति उचित और अनुचित के चालू मिश्रण में से यथार्थता को ढूँढ़ निकालती है और उस पर चढ़े कलेवर को उतार फेंकती है।

शरीर की आन्तरिक स्थिति का पता ऊपरी जाँच पड़ताल से नहीं चलता। एक्सरे, शल्यक्रिया, मलमूत्र, रक्त आदि के परीक्षण से उसे जाना जा सकता है। सत्य और असत्य का विश्लेषण करने के लिए विवेक ही एक मात्र परीक्षा आधार है। मात्र मान्यताओं, परम्पराओं, शास्त्रीय आप्त वचनों से वस्तुस्थिति को जान सकना अशक्य है। धर्म क्षेत्र का ही सर्वेक्षण करें तो पता चलता है कि संसार में हजारों सम्प्रदाय, मत-मतान्तर प्रचलित हैं। उनकी मान्यताएँ एवं परम्पराएँ एक दूसरे के सर्वथा विपरीत हैं। नैतिकता के थोड़े से सिद्धान्तों पर आँशिक रूप से वे जरूर सहमत होते हैं, बाकी सृष्टि के इतिहास से लेकर ईश्वर की आकृति प्रकृति अन्त उपासना तक के सभी प्रतिपादनों में घोर मतभेद है। प्रथा परम्पराओं के सम्बन्ध में कोई ताल-मेल नहीं। ऐसी दशा में किसको सही माना जाय, यह निर्णय नहीं हो सकता।

प्रत्येक मत के अनुयायी अपने मार्गदर्शकों के प्रतिपादन पर इतना कट्टर विश्वास करते हैं कि उनमें से किसी को झुठलाना उनके अनुयायियों को मर्मान्तक पीड़ा पहुँचाने के बराबर है। सभी मतवादी अपनी मान्यताओं का अपने-अपने ढंग से ऐसा प्रतिपादन करते हैं मानों उनका विश्वास ही एक मात्र सत्य है। इसका अर्थ यह हुआ कि अन्य सभी झूठे हैं। अपने-अपने पक्ष की कट्टरता के कारण अब तक असंख्यों बार रक्त की नदियाँ बही हैं। समन्वय और सहिष्णुता की बात कह कर इस विद्वेष को सह्य बनाने का भी बुद्धिमानों ने प्रयत्न किया है पर उससे भी कुछ बात बनी नहीं। ऐसे सारे प्रयत्न एक प्रकार से निष्फल ही सिद्ध होते रहे हैं।

समाधान जब कभी निकलेगा तब विवेक की कसौटी का सहारा लेने पर ही निकलेगा। अन्य सभी क्षेत्रों की तरह इस क्षेत्र में भी औचित्य अनौचित्य का मिश्रण है। कहाँ कितना अंश उपयुक्त है, यह देखते हुए यदि खिले हुए फूल चुन लिए जायँ तो एक सुन्दर गुलदस्ता बन सकता है। बिना दुराग्रह के यदि सार संग्रह की दृष्टि लेकर चला जाय और प्राचीन नवीन का भेद न किया जाय तो जो आज की स्थिति के अनुरूप है उसे सर्व साधारण के लिए प्रस्तुत किया जा सकेगा। वह सामयिक एवं सर्वोपयोगी हो सकेगा। ऐसे सार संग्रह में विवेक की प्रमाणिकता ही माननी होगी।

औचित्य इसी में है कि विवेक को अपना मार्गदर्शक बनाया जाय। यही अपरिवर्तनशील शाश्वत सनातन और सुस्थिर है। विवेक के आधार पर और सब कुछ तो बदला जा सकता है पर वह स्वयं सदा सर्वदा एक रस यथा स्थान बना रहता है। इसीलिए इसे सर्वोच्च जीवन मूल्य मानते हुए जीवन क्रम के दिशा निर्धारक के रूप में स्वीकारा जाना चाहिए।


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