एक व्यक्ति गृहस्थी के दायित्वों से निवृत्त हो चुका था। मन तो बार-बार कहता कि अब समाज के प्रति दायित्वों को भी निभाना चाहिए किन्तु पोते-नाती का मोह बारबार घर खींच लेता। एक दिन वह प्रातः भ्रमण के लिए जा रहा था। एक घर के करीब से निकलते ही एक माँ की आवाज आयी। बंद दरवाजे के पास वह आवाज सुनकर ठिठक कर खड़ा हो गया। अन्दर माँ बच्चे को जगा रही थी व कह रही थी “ज्ञानबाबू उठो! सवेरा हो गया। अब क्या सोते ही रहोगे। उठो अब!” संयोग से उसका नाम भी यही था।
कान में शब्द निरन्तर गूँजने लगे-क्या सोते ही रहोगे? अब तो उठो।” सोचा अब तक सचमुच सोए ही थे। बूढ़ा जाग गया व फिर घर वापस नहीं लौटा। वानप्रस्थ लेकर लोकसेवा के कार्यों में जुट गया।
आत्मबोध जब भी हो, अंतः की पुकार पर फिर निर्णय ले ही लेना चाहिए। हर दृष्टि से वह नफे का सौदा है।
वाक्-कौशल भी एक सिद्धि है। इसके बलबूते कुछ भी अर्जित किया जा सकता है। एक राजदूत अपने देश को रवाना हो रहा था। जिस देश में इतने दिन कार्य किया उसके सम्राट से विदाई ली तो उन्हें उसने पूर्णिमा के चाँद की उपमा दी। उसे अनेकानेक पारितोषिक मिले। देश लौटने पर किसी ने राजा के कान भर दिए कि आपका दूत व दूसरे देश के राजा को पूर्णिमा का चाँद कहता है। राजा बातों में आ गए। दूत को बुलाकर उनने फटकार लगायी व कारागार में डालने की धमकी दे डाली। दूत ने धैर्यपूर्वक कहा-महाराज आप तो दूज के चाँद है। दूज का चाँद तो प्रगति कीसंभावनाओं से भरा हुआ है। किन्तु पूर्णिमा के बाद तो पतन-पराभव ही है महाराज! आपका यश तो दिन दूना रात चौगुना बढ़ना बढ़ता ही रहेगा। उन राजाजी की कीर्ति तो अब समाप्त ही समझें।” बात समझ में आ गयी। दूत ने अपने राजा से भी ढेरों पुरस्कार व धनराशि पायी।
ठीक भी है “वचन कि दरिद्रता?” अच्छे वचन बोलने में कंजूसी किस बात की? चतुर लोग वाक्-कौशल के ही धनी होते हैं।