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यह संसार चतुर प्राणियों से भरा पड़ा है। घात लगाकर दूसरों को उदरस्थ कर जाने वाले जीव-जंतुओं का बाहुल्य है। अपनी स्वार्थसिद्धि की कला में प्रवीण लोगों का ही यहाँ बहुमत है। इसके लिए उन्हें दूसरों को जो क्षति पहुँचानी पड़ती है, उस कुकृत्य से भी वे अभ्यस्त हो जाते हैं। ऐसे लोगों को ही चतुर कहते हैं। उनमें से अधिक प्रवीणों को जेलखानों में कैद और प्रतिशोधों की प्रताड़ना सहते कहीं भी देखा जा सकता है।
पक्षी पेड़ों पर बिना एकदूसरे को क्षति पहुँचाए, चहकते-फुदकते दिन बिताते हैं। चींटियाँ, मधुमक्खियाँ और तितलियाँ भी जीवनयापन की प्रकृतिप्रदत्त सुविधाओं के सहारे ही जीवन बिता लेते हैं। हिरणों के झुंड और कबूतरों की टोले भी बिना अनीति अपनाए अपनी सामान्य बुद्धि के सहारे गुजारा कर लेते हैं।
मानवी बुद्धिमत्ता का यदि सदुपयोग बन पड़े तो वह अपने लिए तो नहीं, दूसरों के लिए प्रगति और समृद्धि के उपादानों में सहायता कर ही सकता है, पर लगता है कि बुद्धिमत्ता अपनाने वाले लोग कम हैं। सबको चतुरता सुहाती है। चतुरता की परिभाषा है— ”दूसरों के उचित अधिकारों का अपहरण करते हुए अपनी वितृष्णाओं की पूर्ति करना।” चतुरता और बुद्धिमत्ता में से किसे अपनाया जाए, इस संदर्भ में मनुष्य भारी भूल करता देखा जाता है। यही है वह विभाजन रेखा, जो मनुष्य को सामान्य व असामान्य में बाँटती है।