कारण शरीर देव शरीर

August 1987

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जिन पदार्थों को निर्जीव या जड़ कहा जाता है, उनमें भी हरकतें, हलचलें होती हैं। यह समूचा विश्व परमाणुओं से बना है। उनके नाभिक एवं इर्द-गिर्द परिभ्रमण करने वाले घटक निरन्तर भ्रमणशील रहते हैं। इन्हीं इकाइयों का चित्र-विचित्र समीकरण विभिन्न पदार्थों के रूप में परिलक्षित होता है। इनका स्वरूप भी स्थायी नहीं रहता। वह बनता, बढ़ता, परिपक्व होता एवं वयोवृद्ध होकर मरता बदलता रहता है। समस्त पदार्थों की यही गति नियति हैं।

ताप, प्रकाश एवं ध्वनि तरंगें समूचे ब्रह्माण्ड में गतिशील हो रही हैं। अणु-परमाणु उन्हीं का परिस्थिति जन्य संगठन है। विनिर्मित पदार्थ तो स्थिर दीखते हैं पर उनका निर्माण एवं परिवर्तन तो स्थिर दीखते हैं पर उनका निर्माण एवं परिवर्तन करने वाली तरंगीय एवं आणविक इकाइयाँ द्रुत वेग से गतिशील रहती है। इसलिए आँखों में जो कुछ स्थिर दीखता है तत्त्वतः वह सभी गतिशील एवं परिवर्तनरत है। क्रिया उन सब के साथ सघन रूप से जुड़ी हुई है।

सृष्टि का एक भाग जड़ है। दूसरा सचेतन। सचेतन में जीवधारियों का समुदाय आता है। उनके शरीर में विचारणा काम करती है। वे पेट प्रजनन की व्यवस्था जुटाने के लिए सोचते और साधन जुटाते रहते हैं। ऋतु प्रभाव एवं अन्य कठिनाइयों से बचने निपटने के लिए आत्म रक्षा हेतु संघर्ष भी करते हैं। उनकी विचारणा इसी छोटी सीमा तक सीमित है। मनुष्य अन्य प्राणियों की तुलना में अधिक विकसित है। अतएव उसका स्वार्थ चिन्तन भी विकसित है। उसे सरसता चाहिए और सुन्दरता, सम्पन्नता, प्रशंसा भी। अतएव उसका विचार क्षेत्र विस्तृत हो जाता है। उसकी व्यावसायिक बुद्धि अनेक प्रकार के नीच ऊँच सोचती है, मोड़ मरोड़ों में होकर गुजरती है। इसलिए उसे विचारशील ही नहीं बुद्धिमान भी माना जाता है।

उपरोक्त दोनों उपक्रम स्थूल एवं सूक्ष्म की परिधि में आते ही हलचलें एवं विचारणाएँ इन्हीं वर्गों में गिनी जाती हैं। इन्हीं का आधार अपना कर जड़ चेतन की विविध विधि गतिविधियाँ चल रही हैं। इससे आगे का उत्कृष्ट क्षेत्र भावनाओं का है। दिव्य भावनाओं का। जिसमें राग द्वेष नहीं वरन् ऐसी संवेदनाओं की गणना होती है जो दया, करुणा, सेवा, पुण्य परमार्थ, संयम, साहस जैसी सद्भावनाओं के साथ जुड़ती है। यह मानवी संवेदनाएँ हैं जो स्वयं की सुख सुविधाओं पर अंकुश लगाती और दूसरों के प्रति उदार आत्मभाव जताती है। इसी संवेदना की आत्मीयता, उदारता एवं पुण्य प्रक्रिया रूप में निरूपित किया जाता है। यह मनुष्यता के साथ जुड़ी हुई दिव्य संवेदना है। इसका बाहुल्य तो नर देवों में भी होता है, पर माता और सन्तान के प्रति आरम्भिक दिनों में उभरता वात्सल्य अन्य प्राणियों में भी यत्किंचित् मात्रा में पाया जाता है। पालतू पशु भी मनुष्यों के साथ बहुत हद तक प्यार दुलार बरतते देखे गये हैं।

तथाकथित देवताओं की मूल प्रवृत्ति भी यही है। वे दयालु होते हैं जहाँ आवश्यकताओं समझते हैं, बादलों की तरह अनुदान वरदान बरसाते हैं। ऋषि, मुनि योगी, तपस्वी, भक्त, मनीषी अपनी साधनाओं को इसी निमित्त नियोजित करते हैं कि उनका लगाव क्रियाशीलता और कल्पना की प्रतिक्रिया से यथा सम्भव विरत होता चले। स्वार्थ की सीमा से उछल कर परमार्थ संवेदनाओं में प्रवेश कर सके।

भक्ति भावना जब कभी भी जहाँ कहीं भी उभरती है तो उसका प्रवाह सेवा सहायता के लिए मचलता है। पुण्य परमार्थ को चरितार्थ किये बिना चैन नहीं पड़ता। इसी मनः स्थिति को भक्ति या आत्मीयता कहते हैं। प्रेम प्रीति भी यही है। निराकार भगवान की भावानुभूति इसी रूप की होती हैं देवताओं की रीति−नीति भी यही है। सूर्य, चन्द्र, पवन, बादल आदि को निरन्तर परमार्थ में संलिप्त देखा जाता है। कारण शरीर के क्षेत्र में प्रवेश करने, उसे उभारने, उजागर करने में भी इसी परिपाटी को अपनाना पड़ता है। पति पत्नी परस्पर समर्पण योग की साधना करते हैं। माता का अजस्र वात्सल्य भी संतान पर इसी हेतु बरसता है। तत्व-ज्ञानी जब जीवन की गरिमा और महिमा पर विचार करते हैं तो उन्हें इसी में सार प्रतीत होता है कि द्वैत को अद्वैत में परिणत किया जाय। कामनाओं को भावनाओं में उलट दिया जाय। स्वार्थ को गलाकर परमार्थ में ढाल दिया जाय। मनुष्यों में उत्कृष्टता जिन्हें अर्पित की जाती है वे पुरोहित और परिव्राजक के पुण्य प्रयास में लगे होते हैं।

ब्रह्म परायणों में से जो गृहस्थ रहते थे वे पुरोहित का काम करते थे और जिन्हें विरक्त रहना बन पड़ता था वे परिव्राजकों की तरह परिभ्रमण करते, आलोक वितरण का कार्य करते और जनमानस के परिष्कार में संलग्न रहते थे। औसत नागरिक की तरह निर्वाह करना लोभ मोह के बंधन शिथिल रखना जिस किसी से भी बन पड़ा है। उसने कारण शरीर को सशक्त बनाने की प्रक्रिया में उत्साहवर्धक सफलता प्राप्त की है।

कारण शरीर को देव शरीर भी कहते हैं, कारण कि पाँचों प्रसिद्ध देवताओं की दिव्य शक्तियों का उसमें समावेश रहता है। परमेश्वर को परमपूज्य कहा है और पाँच देव तत्त्वों का अधिष्ठाता कहा है। परमात्मा की उपासना का तात्पर्य हैं-श्रद्धा, निष्ठा, प्रज्ञा की त्रिधा, सद्भावनाओं का संगम। इस समागम को जिसने अन्तरात्मा में धारण कर लिया, समझना चाहिए कि उसने ब्राह्मी स्थिति उपलब्ध कर ली।

स्वर्ग मुक्ति और ऋद्धि, सिद्धि का भण्डार परब्रह्म को माना जाता है। उसका अवतरण जब कभी, जहाँ कहीं हुआ है उसे अन्तःकरण का उच्च स्तर एवं कारण शरीर का आधार बिन्दु के रूप में पाया गया है।

उपनिषदों में ईश्वर की परिभाषा “रसो वै सः” के रूप में की गई है। ईसा भी प्रेम को परमेश्वर कहते हैं। समस्त सत्प्रवृत्तियों एवं सद्भावनाओं का उद्गम केन्द्र कारण शरीर ही है। उसी को परिष्कृत करने के लिए भक्ति भाव की साधना की जाती है।

उच्चस्तरीय प्रेम भक्ति में द्वैत को अद्वैत बनाना पड़ता है। इस स्थिति को समर्पण योग भी कहते हैं। समर्पण में छोटी इकाई को बड़ी सत्ता में अपने को होमना, सौंपना पड़ता है। नाला नदी में मिलता है। नदी नाले में नहीं। आत्मा को अपनी संकीर्णता परमात्मा की महानता में विलीन करनी पड़ती है। निजी इच्छा आकाँक्षाओं का परित्याग परमात्मा के अनुशासन में विलीन करना होता है। ऐसी दशा में भक्त को दानी बनना पड़ता है, याचक नहीं।

कामना पूर्ति के लिए परमात्मा को अपने सेवक की तरह आदेश नहीं देने की धृष्टता का दुस्साहस नहीं अपनाना होता। इसमें तो महान् की महानता को ही आँच आती है। भक्त की भावना का स्तर गया-गुजरा होकर याचक जैसा बन जाता है। यह अनुचित है। अयोग्य है। परमात्मा की महानता छूने के लिए भक्ति साधक को अपना अन्तःकरण उतना ही विशाल एवं अद्भुत बनाना पड़ता है। स्वार्थ को परमार्थ में परिणत करना होता है।


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