मानव में अन्तर्निहित-रहस्यमय शक्तियाँ

August 1987

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मनुष्य के अन्तराल में अनेकानेक रहस्यमयी गुप्त शक्तियों का भाण्डागार विद्यमान है। स्थूल काया की अपेक्षा सूक्ष्म एवं कारण शरीर में अनुपम दिव्य क्षमताएँ भरी पड़ी हैं। पर हैं ये सभी प्रसुप्त स्थिति में दबी हुई। यदि इन्हें जागृत और विकसित किया जा सके तो वह उन अलौकिक शक्तियों का स्वामी बन सकता है, जिन्हें सामान्य जन आश्चर्यजनक कहते समझते हैं।

इस तरह की घटनाएँ कभी-कभी प्रकाश में भी रहती है जिनसे मानवी काया में अन्तर्निहित असीम क्षमताओं का परिचय मिलता है। एक घटना सत्रहवीं सदी की है। मूर्धन्य वैज्ञानिक एवं अनुसंधानकर्ता लार्ड एडोर ने एक व्यक्ति को हवा में पक्षियों की तरह उड़ते और तैरते हुए देखा था। इस विलक्षण विवरण को उन्होंने “रिपोर्ट ऑफ दि डायलेक्टिकल सोसायटी ऑन स्प्रिचुएलिज्म” नामक पत्रिका में प्रकाशित कराया था। प्रारम्भ में तार्किकों, प्रत्यक्षवादियों एवं वैज्ञानिकों को इस तथ्य पर विश्वास ही नहीं हुआ कि कोई व्यक्ति हवा में भी उड़ सकता है। किन्तु इसी तरह की जब एक घटना इटली नगर में सन् 1663 में घटी तो समस्त विचारकों, तार्किकों एवं वैज्ञानिकों को चमत्कृत कर दिया। हुआ यह कि इटली के पादरी जोसेप अपनी मृत्यु के कुछ समय पूर्व ही चिकित्सा कर रहे एक डॉक्टर को भी अपने साथ लेकर आकाश में उड़ गये। उस चिकित्सक ने अपने संस्मरण में लिखा कि-”जब मैं फादर जोसेप की देखभाल कर रहा था तो अचानक उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा और हवा में तैरने लगे। उनसे जकड़ा हुआ मैं भी हवा में उड़ रहा था। वह मुझे उड़ाते हुए फ्राँस के गिरजाघर तक ले गये और वहाँ उतर कर प्रार्थना की। इसके बाद बोले-”अब मुझे आपकी चिकित्सा की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि अब मेरे शरीर त्यागने का समय आ गया है। मैं जल्दी ही भगवान के पास जाने वाला हूँ। यह सुनकर मैं सन्न रह गया। इसके बावजूद दूसरे ही दिन उनकी मृत्यु हो गयी।”

एडोर द्वारा प्रकाशित विवरण की यथार्थता को जानने के लिए “द रायल एस्ट्रोनामिकल सोसायटी” के मूर्धन्य अनुसंधानकर्त्ताओं ने व्यापक गवेषणाएँ की। इन शोधकर्मियों ने अपनी गहन खोजों के आधार पर पता लगाया कि इटली के सरकारी कागजातों में श्री जोसेप के हवा में तैरने के एक नहीं अनेकानेक प्रसंग रिकार्ड हैं, जिन्हें कि पुलिस वालों तथा अन्य कई प्रत्यक्षदर्शियों ने संग्रह किये थे। जोसेप के संबंध में पूरे इटली भर में यह ख्याति फैल चुकी थी कि प्रार्थना-उपासना करते वह हवा में उड़ने लगते हैं। हवा में उड़ने वाले साधु के नाम से प्रसिद्ध इस पादरी गिसप देसा जोसेप का जन्म 1603 में इटली के कापरटिनों नामक स्थान पर हुआ था। पिता बढ़ईगिरी का काम करते थे। बचपन से ही अन्तर्मुखी जोसेप घण्टों पूजावेदी के सामने बैठे उपासना किया करते थे।

एक दिन चर्च में प्रार्थना करते समय तीव्र गर्जन करते हुए वह हवा में ऊपर उठ गए तथा दोनों बाँहों को फैला कर अधर में तैरने लगे। थोड़ी देर बाद वह मोमबत्तियों व फूलों से सुसज्जित पूजा वेदी पर उतर आए। कुछ समय पश्चात पुनः उसी तरह गर्जन करते हुए अड़े और वापस नीचे उतरकर अपने स्थान पर पहुँच कर प्रार्थना करने लगे।

एक बार रोम में पोप अर्बन अष्टम को देखकर जोसेप भावावेश में इतना उत्साहित हो गए कि आधार छोड़कर हवा में उड़ चले तथा तब तक उड़ते ही रहे जब तक कि पोप ने उन्हें नीचे उतरने का संकेत नहीं दिया। रोम से वापस लौटने पर चर्च में अंकित चित्रों से प्रभावित होकर जोसेप ने एक चीत्कार के साथ लगभग 15 गज ऊँची उड़ान भरी। उसके बाद जोसेप ने एसेसी तथा कोपरटिनों में भी अनेकानेक उड़ानें भरी। यह सब वह भावावेश में आने पर ही करते थे, प्रदर्शन के लिए नहीं। दूसरों को साथ लेकर भी जोसेप कभी-कभी उड़ानें भरा करते थे। उनके बाल्यकाल की घटना है। एक बार जब वह अपने पिता का हाथ पकड़े हुए थे; एकाएक उन्हें लेकर आकाश में उड़ गए। इसी प्रकार एक समय वह किसी पागल की आध्यात्मिक चिकित्सा कर रहे थे, तभी उसके सिर के बालों को हाथ से पकड़े हुए वह उड़ गए तथा काफी समय तक इसी तरह उड़ते रहे।

फादर जोसेप की उड़ान देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते थे। जर्मनी के ड्यूक ऑफ ब्रन्शविक ने छिपकर देखा कि जोसेप कहीं सामान्य जनता को सम्मोहित तो नहीं करते? वह अभी इसी ऊहापोह में उलझे थे कि गर्जन करते हुए वह प्रार्थना की मुद्रा में घुटना मोड़े हुए ही हवा में उड़ने लगे। दूसरे दिन पुनः उनने इस उड़ान की पुनरावृत्ति देखी। तब उन्हें इस साध की अलौकिक सामर्थ्य पर विश्वास हो गया।

दरअसल ये प्रसंग उस विभूति का परिचय देते हैं जिसका उल्लेख अणिमा, लघिमा जैसी सिद्धियों के रूप में एवं पवन पुत्र हनुमान की आकाश यात्रा व सुरसा से उनकी भेंट रूप में पौराणिक आख्यानों में आता है। पूर्व जन्मों के संचित संस्कार या साधना पराक्रम से जब अन्तर्निहित क्षमताएँ जाग उठती हैं तो असंभव चमत्कारी कृत्य मानवी काया द्वारा संभव होते देखा जाने लगता है।

अठारहवीं शताब्दी के एक बौद्ध भिक्षु बेनेडिक्टायन के बारे में प्रख्यात है कि वह हवा में उड़ जाते थे। एक बार वह संघाराम में चहलकदमी कर रहे थे, तभी उपस्थित जन समूह के सामने वह हवा में विहंगवत् उड़ने लगे। ऊँचाई पर वह उठते ही जा रहे थे कि जैतून की शाखाओं से टकरा गये और घंटों अधर में ही लटके रहे। शिष्यों ने सीढ़ी लगाकर प्रयत्नपूर्वक उन्हें धरती पर उतारा, फिर भी वे जमीन से 6 इंच ऊपर ही टंगे रहे और उनको संबोधित करते रहे।

उन्नीसवीं सदी में वैज्ञानिकों का ध्यान उपरोक्त आध्यात्मिक विभूतियों की ओर आकृष्ट हुआ। जब ये चमत्कारिक घटनाएँ लोक चर्चा का विषय बनने लगी थीं और संशयवादी इस पर अविश्वास व्यक्त करते हुए इसे अफवाह और धोखाधड़ी की संज्ञा दे रहे थे। उस समय की इन घटनाओं से प्रभावित हो महान अध्यात्मवेत्ता एवं सुप्रसिद्ध रसायन शास्त्री सर विलियम क्रुक्स ने एक शोध समिति बनाई। उन्होंने इन चमत्कारिक प्रदर्शनों की व्यापक छानबीन की एवं तत्संबंधित अनुसंधानों-परीक्षणों की विशद व्याख्या अपने प्रसिद्ध शोध ग्रन्थ “रिसर्च इन द फेनामेना ऑफ स्प्रिचुएलिज्म” में प्रकाशित किया। होम नाम एक व्यक्ति की विलक्षणताओं का वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा है कि-”जब मैं उससे वार्तालाप कर रहा था, तभी वह जिस कुर्सी पर बैठा हुआ था उस कुर्सी सहित हवा में तैरने लगा”। एक अन्य दूसरे साक्षात्कार का विवरण इस प्रकार दिया है-”मेरी उपस्थिति में कुर्सी पर बैठी हुई एक महिला को भी उसने हवा में काफी ऊँचाई तक उठा दिया था। इस स्थिति में वह महिला लगभग दस सेकेंड तक रही। इसके बाद धीरे-धीरे जमीन पर अपनी कुर्सी सहित वापस आई”।

क्रुक्स ने अपने एक अन्य शोध ग्रन्थ- ”मिसलीनियस अकरेन्सेस ऑफ ए काम्पलेक्स करैक्टर” में एक सौ से अधिक आकाशगामिता की अद्भुत घटनाओं का वर्णन किया है।

‘मास्टर ऑफ लिडेन्सी’ नाम से प्रख्यात एक अन्य शोध कर्मी वैज्ञानिक ने इस तथ्य को प्रमाणित किया है कि व्यक्ति अपनी सूक्ष्म शक्तियों को जागृत करके कई ऐसे कार्य कर सकता है जो स्थूल काया से बन पड़ना संभव नहीं है। एडोर द्वारा और होम के साथ बैठा आकाश गमन पर चर्चा कर रहा था, तभी एकाएक श्री होम धरती से आकाश की ओर उठने लगे। देखते-देखते वह जमीन से पचास फीट ऊँचाई तक पहुँच कर हवा में स्थिर हो गये। काफी समय तक इस स्थिति में रहने के पश्चात् वह धीरे-धीरे जमीन पर उतर आये।

उपरोक्त प्रदर्शन अथवा अद्भुत कहीं जाने वाली घटनाएँ सदा से वैज्ञानिकों, भौतिक शास्त्रियों एवं प्रत्यक्षवादियों के लिए चुनौती बनी रही हैं। उनके समाधान खोजने में भी उनने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। परन्तु शोध परिधि स्थूल शरीर तक ही सीमित होने के कारण उनकी खोजें अधूरी ही रहीं। इस संदर्भ में-”साइन्स एण्ड रिलीजन बाई सेविन मैन ऑफ साइन्स” के लेखक प्रो. डब्ल्यू. बी. वाटमाली द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त ध्यान देने योग्य है। उनके अनुसार “भौतिक अथवा रासायनिक विज्ञान मनुष्य को संतुष्ट नहीं कर सकता है। स्थूल से बढ़कर और भी कोई सूक्ष्मसत्ता है। हममें से प्रत्येक के हृदय में ऐसी कोई गुप्त शक्ति है जो उच्च उद्देश्यों की और प्रेरित करती है। इसकी व्याख्या विवेचना विज्ञान के द्वारा नहीं हो सकती।”

भारतवर्ष में स्वामी विशुद्धानन्द तथा स्वामी निगमानन्द भी अपनी ऐसी अनुभूतियों को प्रत्यक्ष प्रमाणित कर चुके हैं। कहा जाता है कि तैलंग स्वामी को नंगे फिरने के अपराध में काशी के एक अंग्रेज अधिकारी ने हवालात में बन्द करा दिया। लेकिन दूसरे दिन वे जेल से बाहर टहलते हुए देखे गए। उन्हें किसी ने कभी कुछ खाते-पीते नहीं देखा, फिर भी प्रतिवर्ष उनका वजन 1 पौंड बढ़ जाता था। इस 300 वर्ष की अवस्था में उनका वजन 300 पौंड हो गया था, ऐसे अनेकानेक उदाहरणों का नाथ सम्प्रदाय के मछीन्द्रनाथ, गोरखनाथ, जालन्धरनाथ, कणप्पा आदि योगियों के जीवन प्रसंगों में भी ऐसा उल्लेख पाया जाता है। अभी भी हिमालय की दुर्गम एवं सामान्य जनों की पहुँच से दूर निर्जन गुफाओं में ऐसे कितने ही योगी तपस्वी साधनारत हैं।

वस्तुतः विशिष्ट साधनाओं और तपस्या द्वारा साधक, योगीजन, अनादि काल से उन विभूतियों एवं ऋद्धि-सिद्धियों के स्वामी बनते रहे हैं जिन्हें अणिमा, महिमा, लघिमा, प्राकाम्य, वाशित्व आदि नामों से जाना जाता है। छोटे-बड़े आकार धारण करने, अदृश्य और प्रकट होने, आकाश गमन करने, अपने कार्यक्षेत्र को प्रभावित करके इच्छित दिशा में जन मानस को मोड़ने, मरोड़ने आदि कार्य वे सहजता से सम्पन्न कर लेते हैं। इस तरह के उदाहरणों से भारतीय अध्यात्मशास्त्र के पन्ने भरे पड़े हैं। आवश्यकता इस बात की है कि सूक्ष्म की सामर्थ्य को महत्व दिया जाय एवं ऐसे घटनाक्रमों को कपोल कल्पित अथवा कौतूहल न मानकर सूक्ष्म को साधने का प्रयास किया जाय। उड़ने की कला तो मक्खी-मच्छरों को भी आती है। उसे सीखने से लिये जीवन खपाना जरूरी नहीं। जरूरी तो यह है कि अध्यात्म अनुशासनों को महत्व देने हेतु जन साधारण को सहमत किया जाय। इन्हें बताया जाय कि साधना द्वारा इस काया में वाँछित परिवर्तन कर बहुत कुछ कर दिखाना मनुष्य के लिए संभव है। असीम संभावनाओं से भरे इस पिण्ड में कितना कुछ भरा पड़ा है, इसे जाना व आत्मसात किया जा सके तो भौतिकी की दिशा में अग्रसर मानव को आत्मिकी का अवलम्बन हेतु भी सहमत किया जा सकता है।


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