धर्मधारणा में सापेक्ष-क्षमाशीलता

August 1987

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धृति के अतिरिक्त धर्म के दस लक्षण में दूसरा है— ‘क्षमा’। क्षमा अर्थ का दुरुपयोग करना हो, उसे अतिवाद की सीमा तक ले जाना हो, फिर उसे लगभग कायरता भी माना जा सकता है और धर्म का लक्षण न कहकर अधर्म का प्रोत्साहन किया जा सकता है।

क्षमा अपराध करने वाले को ही किया जाता है। सज्जन या सुव्यवस्थित-सुसंस्कृत व्यक्ति को तो क्षमा करने का प्रश्न ही नहीं उठता; किंतु कुकर्मियों और आक्रामकों को क्षमा करते रहने का परिणाम क्या होगा? प्रतिक्रिया क्या उभरेगी?

निश्चय ही उद्दंड और आतताई अपने द्वारा आक्रांता का कोई प्रतिरोध न देखकर रोकथाम के संबंध में निश्चय हो जाता है और क्षमाशील को कायर-दुर्बल समझकर अगली बार और भी बड़ा हाथ मारते है और बढ़ा-चढ़ा नुकसान करते है। इस प्रकार उनका एक बार की निर्वाध सफलता उनकी हिम्मत को अनेक गुना बढ़ाती जाती है। फलतः बड़े और अधिक आक्रमण करते हैं। पहला लाभ  आक्रामकों के मिलने की बात तो स्पष्ट है ही। उद्दंड अपराधियों के गिरोह इसी प्रकार बढ़े हैं। एक द्वारा सस्ते लाभ उठाने की अहंकार तृप्त करने की, सफलता को देखते हुए उसी स्तर के अन्य लोगों की भी हिम्मत बढ़ती है और एकत्रित होकर अधिक बड़े दुस्साहस करते हैं। यह स्वतंत्र रूप से भी छुट-पुट अनर्थ करने लगते हैं। चोरी, उठाईगीरी जेबकटी, ठगी आदि के कितने ही अपराधी धंधे ऐसे हैं, जिनमें किन्हीं साथियों का रहना भी आवश्यक नहीं। उन्हें तो कोई अकेला भी करता रह सकता है।

क्षमा से अभिप्राय यह समझा जाता है कि जो अनीति सहनी पड़ी उसे भूल जाया जाए और जिसने वह अतिवाद अपनाया उसे कोई दंड न दिया जाए। क्षमा के कारण हृदय बदल जाने और दुष्टों के प्रकृति बदल लेने या सुधर जाने की आशा की जाए। ऐसा होता तो है पर विशिष्ट प्रतिभाएँ ही क्षमा के साथ भी ऐसा प्रभाव डाल सकती हैं कि उनकी दंड-क्षमता बढ़ी-चढ़ी होने पर भी क्षमा करने का कोई एहसान माने या अपने को बदलने-सुधारने की बात सोचे। यह प्रक्रिया साधनों की दृष्टि से निर्धनता वाले व्यक्तियों पर लागू नहीं होती, वे क्षमा करने पर कायर ही समझे जा सकते हैं, भले ही अपने भीतर वे कैसे ही संत, भक्त क्यों न हों?

क्षमा का तात्तिवक अर्थ है कि मनःक्षेत्र में वह आक्रोश न भरे रखा जाए, जो दुष्टता को तो प्रताड़ना के आधार पर सुधारने की क्षमता नहीं रखता है, उसकी प्रतिक्रिया को एक प्रकार की आत्मप्रताड़ना बनाकर उसमें स्वयं जलता-गलता रहता है। यह दुहरी हानि उठाने जैसी बात हुई। ऐसी दशा में यही अच्छा है कि जिन भी तर्कों के सहारे अपना रोष-आक्रोश शांत किया जा सकता हो, उनके साथ आत्मपीड़ा से छुटकारा पाने वाली मनःस्थिति बनाना चाहिए। अनीतिकार द्वारा जो हानि उठाई गई है, उसे उसी सीमा तक शांत किया जाए, जिस सीमा तक मानसिक संतुलन बनाए रखा जा सके और भविष्य में वैसी पुनरावृत्ति न होने के लिए योजनाबद्ध कदम उठाना और समुचित प्रतिकार कर सकना संभव हो। क्षमा का स्वरूप इसी उद्देश्य की पूर्ति है और उसे इसी सीमा तक सीमित रखा जाना चाहिए।

कहा गया है कि क्रोध को अक्रोध से जीता जाए। इसका अर्थ यह है कि अपनी भूल कहाँ हुई? उस संबंध में सोचने और आवश्यक सुधार करने का अवसर मिले। आक्रमण किसी गलतफहमी के कारण हुआ या लोभ एवं द्वेषवश, इसका वर्गीकरण करने, विवेचना कर सकने की क्षमता भी उत्पन्न की जानी चाहिए और यदि दुर्घटना किसी भ्रम-भ्रांति के कारण हुई, तो उस संदर्भ में स्वयं या किसी अन्य मध्वत्ती-विचारशील के माध्यम से विवेचना कराई जानी चाहिए। अधिकांश झंझट भ्रांतियों के कारण होते हैं। यथार्थता से अवगत होने पर यदि सर्वथा पाषाण स्तर का दुराग्रही और वज्रमूर्ख न हुआ तो सहम भी जाता है और सुधर भी । इतनी लंबी बात सोचने और उसकी योजना कार्यान्वित करते रहने पर आक्रमण-प्रत्याक्रमण का सिलसिला चलाते रहने की अपेक्षा अधिक समझदारी का काम है कि ऐसे अवसरों पर, क्षमा की वरिष्ठता अपनी आवश्यकता सिद्ध करती है।

अनर्थ तब खड़ा होता है, जब आक्रामक को सुधारने तक का प्रयास छोड़ दिया जाए और अपने पेट पर घूँसा मारकर किसी प्रकार संतोष कर बैठने का उपक्रम किया जाए। इस प्रकार उपयोग की गई क्षमा, नशा पीकर, गम गलत करने के समान है। उससे अपना आक्रोश भर ठंडा हुआ। आक्रांता को भविष्य में वैसा करने पर और भी अधिक घाटा उठाना पड़ेगा तथा इस बार की गई अनीति का प्रायश्चित्त-परिमार्जन किए बिना भी कम न चलेगा। इससे काम में विग्रह का समुचित समाधान निकलता नहीं।

क्षमा का एक और भी स्वरूप है— सज्जनता। यह मनुष्य का उच्चस्तरीय गुण है। इसे आए दिन खड़ी रहने वाली खटपटों से उत्तेजित होकर छोड़ दिया जाना चाहिए। आक्रांता प्रायः प्रतिरोध और प्रताड़ना की भाषा ही समझते हैं। इसलिए उनका उपयुक्त प्रवाह प्रतिबद्ध करने के लिए भी अपने साथ सज्जनता का समर्थन जुटाए रहा जा सकता है। प्रतिपक्षी के साथ तत्काल गुँथ जाया जाए तो कारण और न्याय को न समझने वाले रास्ता चलते लोग उसे ही दोष देंगे, जिसे देर से अधिक विवेकवान या भद्रजन समझा जाता रहा है। ऐसी दशा में आक्रांता का जोश और होश दुरुस्त करने के लिए यह भी आवश्यक है, कि आक्रामक द्वारा पहुँचाई गई चोट का अधिक विज्ञापन होने दिया जाए। इसमें खतरा तो है कि आक्रांता की सामर्थ्य के बारे में लोगों के मनों में भय समा जाए और उस कारण वे भी अपनी जान बचाने और किसी झंझट में न पड़ने की बात सोचें। इतने पर भी यह संभावना रहेगी ही कि समीवर्त्तीया न्यायनिष्ठ लोगों का शौर्य-पराक्रम जगे और वे अपने विरोध को पीड़ित पक्ष की सहायता में अपने विचार बनाएँ, यथार्थता की अभिव्यक्ति करें और उद्दंड के लिए किसी-न-किसी रूप में अवरोधकर्त्ता के रूप में उभरें।

क्षमा की शोभा वहाँ हैं, जहाँ मजा चखने के प्रत्यक्ष साधनों की अनुभूति कराते हुए यह समझने के अवसर मिलें कि मेरे साथ उदारता, सज्जनशीलता या क्षमाशीलता बरती गई। जहाँ इतना भी प्रयोजन सिद्ध न होता हो, वहाँ क्षमा का आडंबर ओढ़ना व्यर्थ है।

क्षमाशील के लिए यह भी आवश्यक है कि अपने मानसिक संतुलन को स्थिर बनाए रखने के साथ दुष्टताजन्य दुर्घटना रोकने का उपाय-उपचार इस या उस प्रकार करें। अनीति को प्रोत्साहन करके तथा अपने आप को दीन-दुर्बल, कायर-क्लीव कहलाने का लाँछन या उपहासास्पद न बनना ही श्रेयस्कर है।

क्षमा एक संवेदनशील शक्ति है, इसका सही उपयोग करते हुए औचित्य का ध्यान रखना ही चाहिए। छोटे बच्चे नासमझ होने के कारण काम बिगाड़ते और ऊँट-पटाँग करते या बोलते रहते हैं। अभिभावक उसकी सीमित समझ को हँसी-उपहास में टाल देते हैं और किस कार्य के स्थान, पर क्या करना चाहिए इसका प्रेमपूर्वक पाठ पढ़ा देना चाहिए। रोगी उन्मादी भी न करने योग्य करते और न कहने योग्य कहते रहते हैं, उनसे वैसा ही व्यवहार करके बदला नहीं चुकाया जा सकता, उनकी परिस्थितियों को समझते हुए क्षमा करने का ही औचित्य है।

छुट-पुट, अनजाने में हो गई गलतियाँ के लिए शिष्टाचार में भूल करने वाले को खेद व्यक्त करना पड़ता है और बदले में हानि उठाने वाले को कोई बात नहीं, कहकर बात को वहीं समाप्त कर दिया जाता है। सच तो यह है। अनगढ़, अनजान, भुलक्कड़, अशिष्ट स्तर के बालबुद्धि लोगों को क्षमा कर देना चाहिए; किंतु जो जानबूझकर दुष्टता पर उतारू हैं और अपने अहंकार के उन्माद में चाहे जिस पर टूट पड़ते हैं और शोषण-अपहरण का दुष्कृत्य करते रहने का स्वभाव बना लेते हैं, उन्हें जो उपाय उपयुक्त प्रतीत हो, उसे अपनाकर सुधारने के लिए बाधित तो किया ही जाना चाहिए। यहाँ क्षमा का उपयोग साँप को दूध पिलाने जैसा अहितकर ही सिद्ध होगा।


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