हमारी जीवननौका का एकमात्र खिवैया

August 1987

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परमात्मा द्वारा दी गई शक्तियों पर विश्वास करना ही आत्मविश्वास है। परमपिता ने हमें विवेचनाशक्ति दी है, जिसके द्वारा हम अपनी परिस्थितियों की समीक्षा कर सकते हैं। अपनी भूलों, अपनी कमियों का पता लगा सकते हैं। यही नहीं, ईश्वरप्रदत्त बुद्धि के द्वारा वर्तमान विषम स्थिति से निकलने के लिए योजना बना सकते हैं ,भावनाशक्ति का सदुपयोग करके अपनी मानसिक कमजोरियों का निराकरण करते हुए, एक-एक पग आगे बढ़ाते हुए सुख और समुन्नति के उच्च शिखर पर चढ़ सकते हैं, वस्तुतः शक्तियों और साधनों की कमी नही है, जितनी कमी प्राप्त सुविधाओं और शक्तियों का आशावादी दृष्टिकोण से मूल्यांकन करने की है।

आत्मविश्वास का सीधा-सा अर्थ अपने पर विश्वास करना है। दूसरे से आशा करना, दूसरे पर विश्वास करके पुरुषार्थ छोड़ बैठना, आत्मशक्तियों का अनादर करना है। दूसरे मदद करते हैं, तो अच्छा है, नहीं मदद करते हैं तो क्या? हमको अपनी मदद खुद करनी है, अपनी टाँगों से ही सब चलते हैं। हमें भी अपनी टाँगों से ही यदि चलना पड़ रहा है, तो इसमें बुराई क्या है? इस प्रकार का दृढ़ निश्चय ही आत्मविश्वास कहलाता है।

आत्मविश्वासी अपने को दीन-हीन, अभागा नहीं मानता। वह अपने को परमपिता का पुत्र मानता है। वह अपने को परमपिता का परम कृपापात्र समझता है। वह जलचर, नभचर आदि समस्त प्राणियों से अपने को श्रेष्ठ अनुभव करता है, उसका यह पक्का विश्वास होता है कि समस्त शक्तियों के पुण्य प्रवाहरूप परमेश्वर मेरे हृदय में नित्य विराजते हैं। वह अनुभव करता है कि मैं ईश्वर का अंश हूँ; ईश्वरीय शक्तियों का पुँज हूँ; शरीर के नाश के साथ मैं मरता नहीं; मैं अजर-अमर हूँ; उज्ज्वल कर्मठता ही मेरा सहज स्वभाव है।

आत्मविश्वास मनुष्य के कार्यकलाप, जीवन-व्यवहार आदि में अद्भुत सामर्थ्य भर देता है। वह मनुष्य की बिखरी हुई शक्तियों को संगठित करता है। समस्त शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक शक्तियाँ उसके इशारे पर नाचने लगती हैं।

हर मनुष्य की अपनी अनोखी समस्याएँ होती हैं। कई बातों में वे दूसरों की उसी प्रकार की समस्याओं से सर्वथा भिन्न होती हैं। जिस प्रकार घायल आदमी ही अपने घाव की पीड़ा को यथार्थ रूप से अनुभव करता है, उसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति अपनी समस्याओं और उलझनों को अपने आप ही अच्छी तरह जानता है, दूसरा कोई उसको सही-सही नहीं समझ सकता है। अतः जब मनुष्य अपना ध्यान, अपनी परेशानियों और कठिनाइयों के स्वरूप को समझने में लगाता है, जब वह उनके कारणों को खोजने में दत्तचित्त होता है और उनके हल ढूँढ़ने का आप प्रयास करता है, उनके निवारण में लगन और तत्परता के साथ जुट जाता है, तो वह आत्मविश्वासी कहा जाता है; क्योंकि अपनी विषम परिस्थितियों और व्यथाओं का हल अपने आप करना ही आत्मविश्वास है।

आत्मा स्वयं पूर्ण है और अनंत शक्तियों का भंडार है। इन पर आस्था दृढ़ करना ही आत्मविश्वास का मुख्य लक्ष्य है। आत्मविश्वास से पग-पग पर आशा, सुरक्षा, निर्माण और अदृश्य सहायता का अनुभव अपने को आप मिलता है। जिससे आत्मविश्वास भी उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है।

आत्मविश्वास को सुदृढ़ बनाने के लिए यह आवश्यक है कि हम लिए हुए संकल्पों पर, निर्धारित लक्ष्य पर सामने पड़े कार्य पर ही अपना ध्यान केंद्रित रखें। जितनी लगन और ईमानदारी के साथ इस दिशा में अग्रसर होंगे, उतनी ही तेजी के साथ हम अपने आत्मविश्वास को भी प्राणवान बनाएँगे। इसी क्रम में अनुकूल परिस्थितियाँ अपनी ओर खिंच-खिंचकर आती हुई हमें प्रतीत होंगी। आत्मावलंबन ही आस्तिकता का मेरुदंड है, यह हमें भली भाँति समझ लेना चाहिए।


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