क्यों धधक उठते हैं अग्नि के ये-शोले

August 1987

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विद्युत शक्ति की सामर्थ्य से सभी भली-भाँति परिचित हैं। बीसवीं सदी के इस अनुसंधान ने मानव जीवन को प्रगतिशील मोड़ देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अधिक से अधिक क्षमता की विद्युत का प्रयोग कर असंभव से दीख पड़ने वाले कृत्य भी अब किये जाने लगे हैं। न्यूनतम विद्युत विभव से परिचालित इलेक्ट्रानिक्स के सर्किट्स, माइक्रोचिट्स आदि ने गत दो दशक में विज्ञान में क्राँति ला दी है। अभी-अभी पिछले दिनों सुपर कन्डक्टर के अनुसंधान ने इस दिशा में अपरिमित संभावनाएँ जगा दी हैं। किन्तु यह वह पक्ष है जो हमें ज्ञात है। जिस काया से हम दैनन्दिन जीवन के क्रियाकलाप चलाते हैं, वह अपने आप में एक परिपूर्ण शक्ति सम्पन्न बिजली घर है, यह बहुतों को मालूम नहीं। हम तो इसे एक पुतला भर मानते हैं, जिसे भोग विलास में लगाकर इस शक्ति को निरन्तर नष्ट करते रहते हैं। यदि इस शक्ति भण्डार का सदुपयोग, सुनियोजन किया जा सके तो महत्वपूर्ण चमत्कारी विभूतियाँ हस्तगत कर सकना संभव है।

शास्त्रकार ही नहीं, वैज्ञानिक भी अब कहते हैं कि मानवी सत्ता की गहराई में उतरने पर ऊर्जा निर्झर उछलते देखे जा सकते हैं। गहराई में दबे पड़े रहने पर तो खदानों की बहुमूल्य खनिज राशि का भी पता नहीं चल पाता। वह अन्दर अविज्ञात स्थिति में पड़ी रहती है। भूगर्भ में बहने वाले महानदों की जल-सम्पदा को ऊपरी सतह पर ढूँढ़ने वाले कहाँ पा पाते हैं। लाभ तो उन्हें मिलता है जो गहरी डुबकी लगा कर इनका पता लगा लाते हैं। बहुमूल्य मोती कमा लेने का लाभ व श्रेय गोताखोरों को ही मिलता है।

कभी-कभी ऐसा भी होता है कि यह प्रचण्ड प्राण ऊर्जा शोलों के रूप में बाहर स्वतः धधकने लगती है। अपनी उपस्थिति का परिचय यह भिन्न-भिन्न रूपों में देती देखी जाती है, यद्यपि ऐसा अपवाद रूप में होता है, फिर भी यह इस तथ्य को तो प्रमाणित करता ही है कि मानवी सत्ता विद्युत ऊर्जा से अभिपूरित है।

फ्रान्सिस हिचिंग की पुस्तक “दि वर्ल्ड एटलस ऑफ मिस्ट्रीज” में सन् 1938 की एक अमेरिकी घटना का उल्लेख है कि गर्मी के मौसम में एक दिन नारफाँक ब्राड्स नामक स्थान पर नौका विहार कर रही एक महिला के शरीर से अग्नि की लपटें स्वतः फूट पड़ीं। साथ में उसके पति व बच्चे भी थे। पानी से आग बुझाने का प्रयास किया गया। पर उस भभकती अग्नि पर काबू नहीं पाया जा सका। वह मेरी कारपेण्टर नामक उस महिला के शरीर को भस्मीभूत करके अपने आप बुझ गई।

“स्पान्टेनियस ह्यूमन कम्बशन” की इन घटनाओं की शृंखला में बिहार के भागलपुर जिले की पाँच वर्ष पूर्व 1982 के सूर्य ग्रहण के अवसर पर घटी एक घटना का उल्लेख यहाँ करना समीचीन होगा। एक युवक अपने घर के आँगन में मौन बैठा था। बारम्बार घर वालों के पूछने पर उसने बताया कि आज उसके जीवन का अन्तिम दिन है घर के सदस्यों ने उसके कथन की ओर ध्यान नहीं दिया। थोड़ी देर तक, वह सूर्य की ओर मुँह किए ताकता रहा। अचानक उसके शरीर से अग्नि की नीली ज्वालाएँ फूटने लगीं। घर के सदस्यों ने शरीर पर पानी फेंका तथा कंबल से ढँक दिया पर शरीर उस तीव्र ज्वाला में बुरी तरह झुलस गया। आग तो बुझ गयी पर उसे बचाया न जा सका। अस्पताल पहुँचने पर उसने दम तोड़ दिया।

वैज्ञानिकों का ऐसा मत है कि पच्चीस वोल्ट से 60 वोल्ट तक का विद्युत बल्ब जला सकने योग्य बिजली की मात्रा प्रत्येक शरीर में न्यूनाधिक अनुपात में क्षेत्र में पायी जाती है। हाथों, आँखों और हृदय में इसकी सक्रियता कुछ अधिक सघन होती है। ट्राँजिस्टर के एण्टीना को हाथ की उँगलियाँ हटाने पर आवाज पहले जैसी हो जाती है। आँखों की विद्युत-शक्ति का त्राटक साधना में घनीभूत कर उपयोगी बनाया जाता है। हिप्नोटिज्म में इसी विद्युत शक्ति को प्रखर और वशीभूत बनाने की साधना की जाती है।

सत्रहवीं सदी का एक प्रसंग है। ससेक्स की एक वृद्धा की प्राण विद्युत सहसा धधक उठी और वह अपनी झोंपड़ी में झुलस कर जल मरी। ‘डेली टेलीग्राफ’, लन्दन ने एक बार एक ट्रक ड्राइवर के ट्रक के भीतर ही अपनी सीट पर जल जाने की खबर छापी थी। इसी प्रकार ‘रेनाल्ड न्यूज’ ने पश्चिमी लन्दन की एक खबर छापी थी कि एक व्यक्ति वहाँ सड़क से जा रहा था, तभी सहसा उसके भीतर से लपट निकली और वह वहीं झुलस कर सिमट गया।

ओहियो की एक फैक्टरी में आठ बार आग लग चुकी थी। इसके कारण का पता करने के लिए वैज्ञानिक जासूस रोबिन बीच को आमन्त्रित किया गया। रोबिन बीच ने सभी कर्मचारियों को एक-एक करके इलेक्ट्रोड और वोल्ट मीटर से जुड़ी एक धातु पट्टिका पर चलाया। फैक्टरी की एक महिला कर्मचारी ने जैसे ही धातु पट्टिका पर पाँव रखा, वोल्ट मीटर की संकेतक सुई उच्च बिन्दु पर जा टिकी, जबकि अन्य कर्मचारियों के समय यह औसत बिन्दुओं के बीच डोलती रही थी। फैक्टरी में आग लगने का कारण वह महिला ही थी जिसकी भीतर विद्युत-शक्ति अत्यधिक मात्रा में विद्यमान थी। उस महिला को दूसरे विभाग में भेजा गया तब से आग लगने का सिलसिला समाप्त हो गया।

कुछ वर्षों पूर्व लन्दन में एक डिस्कोथिक में नाच रहे एक प्रेमी युगल का सारा आनन्द महा शोक में बदल गया जब उस लड़के के साथ थिरक रही सुनहरे बालों वाली युवती सहसा चीख पड़ी। लड़की के सुनहरे केश आग की लपटों में लहरा रहे थे। लड़के ने आग बुझाने की कोशिश की, तो उसके हाथ जल गए। कुछ क्षणों बाद वह उन्नीस वर्ष की युवती राख की ढेरी में बदल गई। यह प्राण विद्युत के विस्फोट का ही परिणाम था। इसके पहले चेम्सफोर्ड में ऐसी ही घटना 20 सितम्बर 1938 को घटित हुई थी और एक महिला देखते-देखते अनेक व्यक्तियों के सामने नीली लपटों में खो गई थी।

ह्विटले (इंग्लैण्ड) का एक नागरिक जोनहार्ट 31 मार्च 1908 को अपने घर में बहन के साथ बैठा था। सहसा उसकी बहन के शरीर से आग की लपटें निकलने लगीं। जोनहार्ट ने उसे कम्बल से लपेट दिया, पर कम्बल, कुर्सी समेत वह आग में स्वाहा हो गई।

लन्दन के प्रसिद्ध स्नायु-चिकित्साविद् डॉ. जान ऐश क्राफ्ट ने उस लड़की के बारे में सुनने पर उसकी जाँच करनी चाही। उन्होंने सुन रखा था कि इस लड़की की प्राण विद्युत बहुत अधिक है और उसे छूने वाले को तेज झटका लगता है। वे पहुँचे और बड़ी गर्म जोशी से जेनी से हाथ मिलाया। हाथ मिलाते ही वे दूर फर्श पर जा गिरे और बेहोश हो गए। उपचार के बाद होश आया। इस लड़की में विद्युत्स्फुल्लिंग फूटने की यह स्थिति सन् 1950 तक रही। फिर धीरे-धीरे वह स्वयं समाप्त हो गयी।

सात दिसम्बर 1956 की प्रातः जब होनोलूलू (हवाई द्वीप) में घरों में काम करने वाली मार्गरेट कामेट नामक एक महिला अपने मालिकों के यहाँ बर्तन साफ करने नहीं पहुँची तो उनमें से कई के घर से बुलावा आया। उसके घर पहुँचने पर उनने पाया कि क्रामेट के शरीर से नीले रंग की लपटें निकल रही हैं जिनसे वह शनैःशनैः भस्म होती जा रही है। वह अर्धचेतनावस्था में थी, पर उसे किसी प्रकार की पीड़ा हो रही थी, ऐसा अनुभव नहीं हो रहा था। आग बुझाने के सारे प्रयास निरर्थक रहे वह कुछ ही क्षणों में वह आग का ढेर मात्र रह गई।

31 जनवरी 1959 का प्रसंग है। सान फ्रांसिस्को का एक वृद्ध जैक लार्चर दूध लेने के लिये पंक्तिबद्ध खड़ा था। उसके आस-पास वालों ने अचानक उसके शरीर से लपटें निकलती देखीं। आग बुझाने के लिए उसका शरीर कम्बलों से लपेट दिया गया, किन्तु 60 किलोग्राम की वह काया कुछ ग्राम राख का ढेर बनकर कुछ ही सेकेंडों में भस्मीभूत हो गई।

सन् 1835 में नेशविली विश्वविद्यालय के गणित विभाग के प्रोफेसर जेम्स हेमिल्टन के साथ भी इसी तरह स्वतः दहन की घटना घटी। किन्तु जेम्स हेमिल्टन उन दुर्लभ व्यक्तियों में से एक प्रतीत होते हैं जिन्होंने स्वतः उत्पन्न आग को बुझा दिया। उनके बायें पैर में उन्हें जैसे ही जलने जैसा दर्द अनुभव हुआ उन्होंने नीचे देखा। उन्होंने देखा कि एक शक्तिशाली सिगरेट लाइटर की लौ के समान एक 10 सेंटीमीटर लम्बी चमकदार लौ उनके पैर से फूट कर निकल रही है। उन्होंने उसे थप्पड़ मारा, कोई प्रभाव नहीं हुआ। फिर जब उन्होंने उसे हाथ से दबाये रखा ताकि उसे ऑक्सीजन मिलना बन्द हो जाये, तो वह धीरे-धीरे बुझ गई।

यू.सी.एल.ए. (अमेरिका) के जॉन डेक ने ऐसे कई व्यक्तियों की जाँच की है जो स्वतः दहन के आँशिक रूप से शिकार हुए। वे अपने शोध ग्रन्थ “ए ट्रिटाइज ऑन स्पान्टेनियन ह्यूमन कम्बशन” में लिखते हैं कि “यह समझ में नहीं आता कि इन आँशिक दहन वाले व्यक्तियों में ऐसा क्यों होता है। कि थोड़ा सा हिस्सा ही जलकर रह जाता है।” डॉ. बेन्टले के प्रकरण का वे विशेष रूप से हवाला देते हैं जिसमें उनके सहित दो और व्यक्ति कार में बैठे-बैठे जल कर भस्म हो गए। फलस्वरूप कार में भी आग लग गयी। किसी की भी पास जाने की हिम्मत न पड़ी। जब पूर्णाहुति हो चुकी एवं आग के शोलों की गर्मी ठण्डी पड़ी, तो भी अस्थि पिंजर, खोपड़ी, दाँत वह अन्दर के कई अवयव सुरक्षित बच गये थे। आग के बीच रहकर भी कुछ अंगों का न जलना आश्चर्य का विषय था।

वैज्ञानिकों का मत है कि मनुष्य शरीर में उसके भार का पैंसठ प्रतिशत (लगभग पैंतालीस लीटर) जल होता है। इसे वाष्पीभूत कर काय-अवयवों को जलाने के लिये लगभग पाँच हजार डिग्री फारेनहाइट की अग्नि चाहिए। यह कहाँ से पैदा हो जाती है? शरीर के जीवकोशों (लगभग 60 खरब) में से प्रत्येक में अग्नितत्त्व प्रोटोप्लाज्मा में सन्निहित होता है पर वह इतना सुव्यवस्थित व सूत्रबद्ध होता है कि उससे शरीर जले, यह संभावना दूर-दूर तक नहीं सोची जा सकती। जब तक प्रोटोप्लाज्मा को विखण्डन प्रक्रिया द्वारा उच्च प्लाज्मा में नहीं बदला जाता, तब तक अग्नि का स्वतः दहक उठना समझ से परे है। पर ऐसा होता है। दहकने के अतिरिक्त यह जैव विद्युत शरीर के अंग विशेषों से निस्सृत होकर दूसरों को प्रभावित करती भी पायी गयी है। उच्च स्तर को प्राप्त योगीजनों, महापुरुषों को चरण स्पर्श करने पर, सिर पर हाथ फेरे जाने, वात्सल्य, थपथपाने, अनुदान शक्तिपात आदि में इसी स्तर की विद्युत प्रयुक्त होती है। किसी उच्च मनोभूमि के महायोगी के समीप बैठने से भी मन व अंतःकरण में हलचल मचा देने वाली यही प्राण-विद्युत है। यह सामान्य विद्युत से भिन्न स्तर की, उपकरणों की पकड़ से बाहर की शक्ति है एवं मूलतः अनुभूति का विषय है। मात्र भावनात्मक माध्यम से इसे संप्रेषित किया जा सकता है।

एक पाश्चात्य वैज्ञानिक का मत है कि यदि सम्पूर्ण शरीरगत द्रव्य को विद्युत ऊर्जा में बदला जा सके तो 120 पौण्ड वाले शरीर से इतनी शक्ति प्राप्त की जा सकती है कि उससे उत्तरी अमेरिका जैसे विशाल देश के लगातार दस वर्ष तक विद्युत सप्लाई की जा सके। कितनी प्रचण्ड शक्ति सम्पन्न है काया? यह अनुमान हमें सहज ही नहीं हो पाता। किन्तु इस तथ्य को गीताकार ने काफी पहले ही प्रकट कर दिया है। वे कहते हैं-

आश्चर्यवत् पश्यति कश्चिदेनम् आश्चर्यवत् वदति तथैव चान्यः। आश्चर्यवत् चैनम् अन्यः श्रणोति श्रृत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्॥ (अध्याय 2/29)

अर्थात् कोई से आश्चर्य से देखता है, कोई इसके विषय में आश्चर्य की बात करता है, कोई इसे आश्चर्य से सुनता है; किन्तु फिर भी थोड़े ही लोग हैं जो इस सत्य को, अर्थात् मानवी सत्ता के इस शाश्वत महत्व को जानते हैं।

इसी प्रकार वृहदारण्यक में उपनिषद्कार कहता है-इदं महद्भूतमनन्तमपारं विज्ञान घन एवं (2/4/12) अर्थात्-”यह महद्भूत, महान सत्ता (व्यष्टिगत ब्राह्मी सत्ता) अनन्त और अपार है। वह केवल विज्ञान या चित् का घनत्व है।” वेदों में जिस शक्ति को “ज्योतिषाँ ज्योतिः कहा गया है, वह यही विद्युत तत्त्व है जो अपना परिचय कभी संकल्प बल के रूप में, कभी प्रचण्ड जिजीविषा के रूप में, कभी प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने वाले अग्नि के दहकते शोलों के रूप में देता रहता है। इस महाशक्ति का यदि सुनियोजन सोचा जा सके एवं नष्ट होने से बचा कर प्रसुप्त पड़ी सामर्थ्य को जगाने में उसका सदुपयोग हो सके तो मनुष्य अपरिमित शक्ति का स्वामी हो सकता है। अपनी जागृत सामर्थ्य से वह ऋद्धि-सिद्धियों को करतलगत कर अपनी आत्मिक प्रगति का तथा समष्टि के कल्याण का पथ प्रशस्त करता रह सकता है।


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