चिकित्सा विज्ञान में इस क्षेत्र में प्रवेश करते ही मनुष्य ने जड़ी बूटियों पर दृष्टि डाली तो आश्चर्य के साथ देखा कि उगी हुई घास में से कुछ को वनचारी पशु छोड़ देते हैं और कभी-कभी ऐसा भी होता है कि अमुक स्तर की वनस्पति को प्राप्त करने के लिए वे सुदूर क्षेत्रों में भ्रमण करते हैं। इतना ही नहीं उनकी बनावट, स्वाद और स्थान को भी अपने स्मृति पटल पर जमा लेते हैं। यद्यपि उनकी बौद्धिक संरचना इतने भेद उपभेद में उतरने की होती नहीं। मात्र अपने स्वाद और गंध संस्थानों की सहायता से खाद्य अखाद्य का वर्गीकरण कर लेते हैं और उसी आधार पर अपना पेट भरते रहते हैं।
विशेष वनस्पतियों के गुणों और उनकी उभरी हुई शारीरिक आवश्यकताओं के साथ ताल-मेल बिठाते हुए उनका अचेतन मन यह परामर्श देता है कि वे अपनी सामयिक चिकित्सा के लिए किन वनस्पतियों का, कितनी मात्रा में उपयोग करें। प्रसिद्ध है कि साँप और नेवले की लड़ाई में नेवला सर्प दंश की विषाक्तता से अपनी प्राण रक्षा के लिए बार-बार किसी वनस्पति विशेष की दौड़कर खाता है और फिर मल्ल युद्ध में आ जुटता है। विष का प्रभाव होने पर उसे बार-बार इसी प्रयोग को दुहराना पड़ता है। यह बात अन्य कई प्राणियों के संबंध में भी कही जाती है कि वे किसी शारीरिक विपत्ति में फँस जाने पर उसके निवारण के लिए उपयुक्त वनस्पतियाँ अपनी सहज बुद्धि से खोज निकालते हैं।
मध्यकाल में खनिजों की भस्में और विषों के शोधन का उपाय भी खोजा गया और उसे चिकित्सा प्रयोजनों के काम में लाया गया, किन्तु सबसे पुरातन और विश्वस्त रोगोपचार वनौषधियों का ही है। रस, भस्मों और विषों के औषधि स्तर पर बदलने में कहीं कोई भूल-चूक रह जाने पर उसका दुष्प्रभाव भी होते देखा गया है। वह जोखिम भरा कदम है जिसे विशेषज्ञों द्वारा ही उठाया जाना चाहिए। किन्तु वनौषधियों के संबंध में ऐसी बात नहीं है। उसमें थोड़ी भूल-चूक हो जाने पर भी ऐसे भयंकर परिणाम की आशंका नहीं रहती, जिसके संबंध में यह कहा जा सके कि कुछ अनर्थ उठ खड़ा होगा।
मनुष्य की चंचलता एवं कौतूहल प्रियता उसे अन्य वन्य प्राणियों की तरह प्रकृति के कड़े शिकंजे में नहीं कसा रहने देती। वह हर क्षेत्र में अपनी कौतुक प्रियता का परिचय देता और विचित्रताएँ अपनाकर अपनी असाधारण बुद्धिमत्ता का प्रमाण प्रस्तुत करता रहा है। यह प्रयोग वस्तुओं के रूपांतरण में तो सफल भी हो जाता है पर जीवनचर्या में ऐसी घुस-पैठ सहज नहीं पचती और अपनी प्रतिकूल प्रतिक्रिया व्यक्त किये बिना नहीं रहता। आहार-विहार के स्वाभाविक क्रम को उसने एक प्रकार से उलट ही दिया है। कृत्रिमताओं से अपने को असाधारण रूप से लपेट लिया है। फलतः उसे आये दिन चित्र-विचित्र रोगों का भी सामना करना पड़ता है। इसके साथ ही उसने सामान्य इन्द्रिय क्षमताओं को भी ऐसा विकृत कर लिया है कि अपनी बुद्धि के सहारे चिकित्सा के लिए उस प्रकार वनस्पतियों का चयन नहीं कर सकता। जिस प्रकार कि अन्य वन्य-प्राणी कर लेते हैं। इसके लिए उसे दूसरे विज्ञजनों की शोध द्वारा निकले हुए निराकरणों पर आश्रित रहना पड़ता है। चिकित्सक के परामर्श बिना स्वेच्छा उपचार उसके लिए कठिन हो गया है। यद्यपि मसाला वर्ग में आने वाली कई वस्तुओं का प्रयोग घरेलू चिकित्सा के रूप में होता रहता है, वह इतना प्रामाणिक नहीं होता कि उस पर निर्भर और निश्चिन्त रहा जा सके।
वनौषधियों की गुणवत्ता असंदिग्ध है। इस वैज्ञानिक युग में जब कि रसायनों का आश्रय अधिक मात्रा में लिया जा रहा है, तब वनस्पतियों द्वारा चिकित्सा पद्धति आकर्षण विहीन होती जा रही है। यद्यपि उनके उपचार में वैसी अनुपयुक्त प्रतिक्रियाओं का जोखिम नहीं रहता-जैसा कि आमतौर से एन्टी बायोटिक्स औषधियों का होता है। वे एक रोग का शमन करते हुए दूसरे की उत्पत्ति करती रहती हैं, किन्तु वनौषधियों में प्रायः ऐसा नहीं होता। उनके सेवर से रोग निवारण में कुछ निवारण में कुछ विलम्ब लग सकता है पर परिशोधन का क्रम ऐसा होता है जिसमें अहितकर प्रतिक्रियाओं की आशंका नहीं रहती।
वनौषधि उपचार मनुष्य के बढ़ते हुए रोगों की रोकथाम में असाधारण रूप से सहायक हो सकता है। वह निर्दोष भी है और हानिकारक प्रतिक्रिया से रहित भी। उनमें मारक गुण कम और शोधक विशेष होते हैं। वे रोगों को दबाती नहीं वरन् उखाड़ती और भगाती हैं। साथ ही सस्ती भी हैं। शाकाहारी प्रकृति वाले मानवी संरचना के अनुरूप भी। इसलिए अच्छा हो हम आहार विहार की कृत्रिमता को पूर्णरूप से नहीं हटा सकते तो कम से कम इतना तो करें ही कि यह विज्ञान उपेक्षा के गर्त में गिरने से अपनी गुणवत्ता खो बैठा है उसे तो सुधार ही लें। यह वनस्पति चिकित्सकों का काम है कि वे इस संबंध में जो अनुपयुक्तता घुस पड़ी है, उसका संशोधन करें और इस क्षेत्र की खोई हुई गरिमा को फिर से वापस लौटायें।
इस संदर्भ में अधिक विचारणीय यह है कि औषधि रूप में प्रयुक्त होने वाली वनौषधियाँ एक वर्ष से अधिक पुरानी न हों। अन्यथा सूखने और पुरानी पड़ने के साथ ही उनके गुण घटेंगे या समाप्त हो जायेंगे।
होता यह है कि पंसारियों से जो जड़ी बूटियाँ खरीदी जाती हैं उनके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता कि वे कितनी पुरानी हैं। जिस प्रकार इंजेक्शनों, अंग्रेजी औषधियों पर लिखा रहता है कि यह कब बनी और कब तक काम देंगी। उसी प्रकार वनौषधियों के साथ भी यह प्रामाणिकता जुड़नी चाहिए कि उन्हें कब किस स्थिति में लाया गया और वह कब तक काम देगी। किस स्तर से तात्पर्य वही है कि वनस्पति को प्रौढ़ परिपक्वावस्था में लिया गया। यदि उसे कच्ची स्थिति में ही उखाड़ लिया गया है तो वह गुण न कर सकेगी जो उसे करने चाहिए। बहुत दिन रखी रहने के उपरान्त तो वे एक प्रकार से कूड़ा करकट स्तर की हो जाती हैं। इसीलिए अच्छा हो कि वनौषधि चिकित्सक सजधज वाला दवाखाना बनाने की अपेक्षा अपना निजी जड़ी बूटियों का उद्यान रक्खें और यथा सम्भव ताजी वनस्पतियों का ही उपयोग करें।
दूसरा एक परिवर्तन जलवायु एवं भूमि का भी होता है। जिस प्रकार नागपुर के संतरे, लखनवी आम, बम्बईया, केले, मैसूरी चन्दन अपनी उत्पादन भूमि के विशेष गुणों के कारण अधिक स्वादिष्ट और गुणकारी होते हैं, उसी प्रकार वनौषधियों के संबंध में भी यह बात है कि वे ठंडे, गर्म, पथरीले, रेतीले आदि क्षेत्र में उपजने और वहीं की भूमि तथा जलवायु में अन्तर रहने के कारण गुणों में भी हेर-फेर हो जाता है। कई बार एक ही रंग रूप की कई औषधियाँ होती हैं। मात्र उनके आकार प्रकार को देखने या स्वाद चखने भर से यह नहीं जाना जा सकता है कि जिस वस्तु की आवश्यकता थी वही मिली या उसके स्थान पर कोई दूसरी वस्तु लेकर मन बहलाया गया।
गंगा तट पर उत्पन्न होने वाली ब्राह्मी और नहर रजवाहों के किनारे उगने वाली मंडूकपर्णी की आकृति मिलती जुलती होती है। बाजार में एक के स्थान पर दूसरी भी मिल सकती है या उसमें मिलावट भी हो सकती है। ऐसी दशा में उपयुक्त यही है कि आँखें यदि ठीक परिचय प्राप्त न कर सकें तो पर्यवेक्षण यंत्रों से उनकी जाँच पड़ताल करा ली जाय कि उसमें आवश्यक रसायन या गुण हैं या नहीं। इस प्रकार यदि वनौषधि के आधार पर सही चिकित्सा की जा सके तो उससे रोग निवारण में भारी सहायता मिल सकती है।