ब्रह्माण्ड अभी बच्चा है, बूढ़ा नहीं हुआ!

August 1987

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ब्रह्माण्ड के विकास के संबंध में तरह-तरह के सिद्धान्त, परिकल्पनाएँ प्रस्तुत किये जाते रहे हैं, पर कोई भी यथार्थता के समीप नहीं लगता क्योंकि ब्रह्माण्ड अति विराट् एवं व्यापक है। धरती पर तो दूरियाँ, समय व गुरुत्वाकर्षण की समस्याएँ भौतिकी के सामान्य नियमों व साधारण ज्यामिती के आधार पर समझी जा सकती हैं। परन्तु जब हम ब्रह्माण्ड का अध्ययन करते हैं, तो पाते हैं कि ये दूरियाँ अरबों, खरबों मील व समय करोड़ों-अरबों वर्षों में नापने पर भी समझ से बाहर हैं। इन्हें आँखों से देखा भी नहीं जा सकता।

ब्रह्माण्ड के विभिन्न मॉडल इसके विकास को समझने के लिए वैज्ञानिकों ने बनाये हैं। इसके मूल में यह परिकल्पना है कि ब्रह्माण्ड की संरचना अन्दर से बाहर तक एक समान है यदि इसे गेंद मान लिया जाय, तो यह भी संभव है कि इसका मात्र वह ही भाग “यूनिफार्म” हो, जिसे हम देख पाए हैं। यदि खगोल का अविज्ञात भाग किसी भी रूप में ज्ञात भाग से भिन्न है तो सभी बनाए गए मॉडल गलत ही माने जायेंगे। वैज्ञानिक यह भी परिकल्पना करते हैं कि ब्रह्माण्ड की संरचना सभी दिशाओं में एक सही है। किन्तु हो सकता है कि ऐसा न हो। संभव है विभिन्न दिशाओं में उसकी संरचना असम हो। विश्वविख्यात ज्योतिर्विद् जार्ज ऐबल अपनी पुस्तक “ड्रामा ऑफ द यूनीवर्स” में लिखते हैं कि उपरोक्त सभी आशंकाओं-उलझनों का समाधान अध्यात्म ही दे सकता है।

ब्रह्माण्ड के विकास का सिद्धान्तवाद सापेक्षवाद से अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ समझा जाना चाहिए। वैसे गुरुत्वाकर्षण के सामान्य सिद्धान्तानुसार तो उत्पत्ति के थोड़े ही समय बाद विभिन्न तारों, निहारिकाओं आदि को गुरुत्व बल को कारण खिंचकर परस्पर समीप आ जाना तथा परस्पर टकराकर खत्म हो जाना चाहिए था। चूँकि ऐसा नहीं हुआ इसलिए स्पष्टतः न्यूटन के सिद्धांत ब्रह्माण्ड के परिप्रेक्ष्य में गलत हो जाते हैं। सापेक्षवाद कहता है कि समस्त सृष्टि में कोई भी गति प्रकाश की गति से अधिक नहीं हो सकती। यहाँ तक कि गुरुत्वाकर्षण की गति भी प्रकाश के वेग से चलती है अर्थात् उसका वेग ससीम है, असीम नहीं।

किन्तु यह नहीं भूला जाना चाहिए कि धरती की दूरियाँ ब्रह्माण्डीय दूरियों से अगणित गुना छोटी हैं। ब्रह्मांडीय दूरियाँ करोड़ों-अरबों प्रकाश वर्ष होती हैं, अतः यदि वहाँ गुरुत्वाकर्षण की गति असीम मान ली गई तो बहुत बड़ी गलती होगी। वस्तुतः गुरुत्वाकर्षण की गति का ससीम होना ही सामान्य सापेक्षवाद के सिद्धान्त की मूलभूत मान्यता है। इसी थ्योरी को यदि स्पेशल थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी से जोड़ दिया जाय तो यह सिद्ध किया जा सकता है कि अन्तरिक्ष सपाट या समतल नहीं, वक्राकार है। धरती हमें मैदान सी नजर आती है, किन्तु है गोलाकार इसी प्रकार यदि हमें विराट् रूप मिल जाय एवं हम अन्तरिक्ष में खड़े होकर इसका अध्ययन करें तो हमें ज्ञात होगा कि जब हम धरती की सतह पर चल रहे थे तो एक वक्राकार सतह पर चल रहे थे। वैज्ञानिक इसी प्रकार यह निष्कर्ष निकालते हैं कि प्रकाश या कोई भी अन्य विद्युत चुम्बकीय तरंग जब अन्तरिक्ष में चलती है, तो उसका मार्ग सीधा न होकर वक्राकार होता है।

हमारे ज्ञान की एक सीमा है। फिर भी अन्तः से उद्भूत जिज्ञासा एवं वैज्ञानिक गवेषणाएँ हमें इसी निष्कर्ष पर पहुँचाती हैं कि ब्रह्माण्ड की यह शैशव अवस्था है। अभी वह सतत् फैलता जा रहा है। इसकी पुष्टि भौतिकी की उन गणनाओं से मिलती है जो विश्लेषण कर बताती हैं कि प्रकाश जो हम तक पहुँचता है वह अति दूरवर्ती तारों व निहारिकाओं से करोड़ों प्रकाश वर्षों की दूरी तय करके धरती पर आ रहा है। प्रकाश एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील चलता रहा है। इस तरह - 60फ्60फ्24फ्36.575 अर्थात् एक वर्ष तक चलने में प्रकाश जो दूरी तय करता है, उसे एक प्रकाश वर्ष कहा जाता है। कुछ खरबों मील जैसे जब करोड़ों प्रकाश वर्षों की दूरी निरन्तर पार की जा रही हो तो सहज ही अन्दाज लगाया जा सकता है कि इस ब्रह्माण्ड का विस्तार कितना है व हमारी हस्ती कितनी नगण्य। हमारे सौर मण्डल के अधिपति सूर्य को ही लिया जाय। उसके व धरती के बीच की दूरी 9 करोड़ 8 लाख मील एवं दूसरी परिभाषा के अनुसार सवा आठ प्रकाश मिनट हैं क्योंकि इस दूरी को तय करने में प्रकाश को सवा आठ मिनट लगते हैं। इस आधार पर कोई एक प्रकाश वर्ष एवं फिर करोड़ों प्रकाश वर्श की दूरी का अनुमान लगाने का प्रयास करे तो हतप्रभ हो कर रह जायेगा।

ऐसी अकल्पनीय दूरियों से धरती पर आते हुए प्रकाश का अध्ययन करने के बाद खगोल वैज्ञानिकों ने यह पाया है कि ये दूरियाँ निरन्तर हजारों किलोमीटर प्रति सेकेंड की गति से बढ़ती चली जा रही हैं। जैसे-जैसे ये दूरियाँ बढ़ रही हैं, ऐसा अनुमान है कि जब कोई दूरी दस लाख प्रकाश वर्ष बढ़ जाती है तो उसके विस्तार की गति भी पचास किलोमीटर प्रति सेकेंड बढ़ जाती है। इस पचास किलोमीटर की संख्या को “हबल स्थिराँक” (॥क्चक्चरुश्व ष्टह्रहृस्ञ्ज्नहृञ्ज) नाम दिया गया है। इस स्थिराँक का मान मात्र पचास किलोमीटर होना बताता है कि हमारा ब्रह्माण्ड विकास की दृष्टि से अभी लड़कपन में ही है। आज से पचास वर्ष पूर्व इस स्थिराँक का मान त्रुटिवश साढ़े पाँच सौ किलोमीटर प्रति सेकेंड, प्रति दस लाख प्रकाश वर्ष मान लिया गया था। इस मान को आधार मानकर गणना करने वाले वैज्ञानिक यह अनुमान लगाने लगे थे कि ब्रह्माण्ड अब बूढ़ा हो चला। इसका अन्त अब समीप है। किन्तु आधुनिक यंत्रों एवं संकल्पनाओं ने शोध को नये आयाम दिये हैं और अब यह प्रमाणित हो चुका है कि ब्रह्माण्ड अभी शिशु से किशोरावस्था में भी प्रवेश नहीं कर पाया है। विस्तार होते-होते बूढ़ा होने व उसके नष्ट होने की कल्पना तो करनी ही नहीं चाहिए।

निहारिकाओं का एक निश्चित गति से दूर हटाना व क्रमशः दूर हटते जाने की गति बढ़ते जाने के “हबल” सिद्धान्त को समस्त ब्रह्माण्ड पर लागू होते देखा जा सकता है। खगोल वैज्ञानिक हबल यह भी कहते हैं कि जो निहारिकाएं अब दूर हटती जा रही है, जो वस्तुतः कभी हमारे समीप ही अवस्थित थी। किन्तु उनके दूर हटते जाने की अवधारणा ने ब्रह्माण्ड के निरन्तर फैलने के सिद्धान्त की अब पुष्टि कर दी है। किन्तु इस फैलाव की कुछ तो सीमा होनी चाहिए। इसे समझाने के लिये वैज्ञानिकों ने परिकल्पनाओं के आधार पर एक मॉडल बनाया है।

वे कहते हैं कि ब्रह्माण्ड का उद्भव एक अति सघन पदार्थ के विस्फोट (बिग बैंग) से हुआ। हो सकता है कि इसके बाद यह अमीस पदार्थ अपनी अनन्त यात्रा पर चल पड़ा हो एवं विस्फोट की परिणति स्वरूप इस पदार्थ के अनेक टुकड़े एक दूसरे से दूर भागने लगे। कोई तारे, कोई ग्रह, कोई उपग्रह तथा कोई निहारिकाओं में परिवर्तित हो गये। एक ओर गुरुत्व की शक्ति इन्हें समीप खींचती है एवं दूसरी ओर विस्फोट की शक्ति इन्हें दूर करती जा रही है। कितना विचित्र सृष्टा का खेल है-यह। एक दूसरी विलक्षणता यह है कि स्पेस की वक्रता के कारण ब्रह्माण्ड एक नियत स्थान पर प्रकाश या पदार्थ कणों को वापस लौटा देता है। पृथ्वी पर हम चलें तो चक्कर लगाते हुए वापस वहीं आ जायेंगे। इसी प्रकार ब्रह्माण्ड की संरचना इस प्रकार की है कि ब्रह्माण्ड फैलते-फैलते अन्ततः एक ऐसे स्थान पर पहुँच जायेगा जहाँ स्थान-काल की वक्रता के कारण वह वापस मुड़ गया है। इस प्रकार ब्रह्माण्ड इस चरमावस्था में पुनः सिकुड़कर उसी स्थिति में पहुँच जायेगा तो विस्फोट से पूर्व थी। पुनः यह विस्तार क्रम चालू होगा और वही अनन्त यात्रा पुनः चल पड़ेगी।

ब्रह्माण्ड की यह विकास यात्रा क्या हमें अनवरत चलने की प्रेरणा नहीं देती? विराट् को ही हम परब्रह्म मानते हैं जो कि अचिन्तय, अगोचर, असीम है उसी की अनुकृति यह पिण्ड है। हम सभी उस विराट् की तरह अपना यात्रा पथ बनायें, सदैव स्फूर्तिवान बने रह कर इस अनन्त यात्रा का आनन्द लेते रहें।


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