युग के अनुरूप साधन प्रक्रिया में हेरफेर

August 1987

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सतयुग में सब प्रकार की सुख शान्ति थी। प्रगति की कहीं कुछ कमी न थी। भावनात्मक दृष्टि से सभी उदारचेता और आदर्शवादी थे। इसलिए क्लेश, कलह, के अभाव दारिद्रय के-कोई अवसर ही कभी नहीं आते थे। सर्वत्र सद्-भावना का-उत्कर्ष अभ्युदय का-वातावरण भरा पूरा रहता था। कमी लेने वालों की रहती थी, देने वालों की नहीं। सभी इसके लिए लालायित रहते थे कि उन्हें परमार्थ, परोपकार के लिए अवसर मिले, पर वैसी परिस्थितियाँ ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलती थीं। जब जन साधारण की परिस्थितियाँ सुसम्पन्नता युक्त हों और मनः स्थिति में सन्तोष, पराक्रम और उदारता का बाहुल्य हो तो फिर कोई किसी की सहायता के लिए क्यों आशा करे और मिलने पर भी कोई क्यों उसे ग्रहण करे?

मनुष्य में उपार्जन की क्षमता भी है और अभ्युदय की भी। बिना कुछ किये कोई निरर्थक बैठा भी नहीं रह सकता। ऐसी दशा में करने के लिए कोई उपयोगी दिशा तो तलाश करनी ही पड़ती थी। पुरुषार्थ को कहीं तो प्रयुक्त करना ही होगा। इस खोज-बीन में एक ही प्रयोजन हस्तगत होता था वह था-आत्मोत्कर्ष। जब दूसरों को अपनी सेवा सहायता की आवश्यकता नहीं तो फिर पराक्रम प्रिय व्यक्ति एक ही काम कर सकता है कि अपनी चेतना को अधिकाधिक परिष्कृत बनाने के लिए जो उपाय संभव हों उन्हें अपनाया जाय। इस संदर्भ में योग और तप दो ही पुरुषार्थ सामने रहते थे। इनके माध्यम से व्यक्तित्व को अपेक्षाकृत अधिक पवित्र, परिष्कृत बनाया जाता था। चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में अधिकाधिक उत्कृष्टता का समावेश किया जाता था। इस उत्कर्ष का प्रतिफल मनुष्य में देवत्व के-उद्भव के-रूप में दृष्टिगोचर होता था।

यों मनुष्य आकृति वालों में प्रकृति भेद पाया जाता है। पिशाच, पशु भी देखे जाते हैं। पशु वर्ग के लोग आलसी, प्रमादी, गंदे, दरिद्र और पिछड़ेपन से घिरे रहते हैं। पिशाचों को पाप कर्मों में लिप्त पाया जाता है। वे अपराध, अनाचार, कुकर्म, दुर्व्यसन, मनोविकार आदि में लिप्त रहकर ऐसी स्थिति में जीवन गुजारते हैं, जिसे दैत्य, दानव, असुर, दुष्ट, दुराचारी आदि नामों से संबोधित किया जा सके। ऐसे मनुष्यों का बाहुल्य कलियुग में होता है। तब उनसे निपटने, सुधारने के लिए भी प्रयास करने पड़ते हैं और प्रतिबंध लगाने के साथ-साथ प्रताड़ना के विधान भी निर्धारित करने होते हैं। यह पिशाच वर्ग के लिए किये जाते वाले उपचार हैं। पशु वर्ग आयु की दृष्टि से भले ही वयस्क हों पर उसे बाल बुद्धि की स्थिति में रहते हुए ही माना जाता है। अपंग असमर्थ असहाय पिछड़े लोग इसी स्तर के होते हैं। उन्हें न कर्त्तव्य का बोध होता है न अनुशासन का। पराक्रम, साहस, और विवेक के अभावग्रस्त रहना ही पड़ेगा। उसे परावलम्बन सहन करना ही पड़ेगा और उपेक्षा, अवमानना, भर्त्सना सहन करने के साथ-साथ दीन दरिद्र भी रहना पड़ेगा। यह परिस्थितियाँ कलियुग की हैं, जिनमें मनुष्य देहधारी पशुओं और पिशाचों की बहुलता बिखर पड़ती है।

परिस्थितियों के इस अंतर को देखते हुए विचारशीलों की अपनी गतिविधियों में, योजनाओं में, दिशा धारा और क्रिया-कलापों में भी अन्तर करना आवश्यक हो जाता है। सतयुग और कलियुग में जितना असाधारण अन्तर है, उसी अनुपात से विवेचना, निर्धारणा, क्रिया-प्रक्रिया में भी अन्तर करना पड़ता है। विवेक का यही तो तकाजा है। परिस्थितियों के अनुरूप क्रिया पद्धति में भी हेर-फेर करना अनिवार्य हो जाता है।

सतयुग में न कोई पशु था और न पिशाच कहीं दृष्टिगोचर होते थे। इसलिए उनके लिए कुछ सोचने करने की भी आवश्यकता नहीं पड़ती थी। अविकसित पशुओं की सेवा सहायता की आवश्यकता पड़ती थी। इसके बिना वे अपना निर्वाह ठीक नहीं कर सकते। पशुओं को चारा, पानी, छाया आदि का प्रबंध न किया जाय तो वे भूखे, प्यासे रहकर सर्दी, गर्मी से प्रभावित होकर अपनी जान गँवा बैठेंगे। रोगियों को परिचर्या चिकित्सा न मिले, अपंगों को सहारे की व्यवस्था न हो तो वे भी अपने बलबूते जीवित नहीं रह सकते। कैदियों, पागलों के लिए भी उनके संरक्षकों को ही व्यवस्था बनानी पड़ती है। पिछड़े हुओं के लिए सेवा-सहायता की अनिवार्य रूप से आवश्यकता पड़ती है। उदार चेताओं के मन में उसके लिए करुणा भी उमँगती है और सेवा सहायता करने की भाव-भरी प्रेरणा भी उठती है।

पिशाच वर्ग को वशवर्ती रखने के लिए एक ही उपाय है-प्रताड़ना प्रतिबंध, अवरोध, संघर्ष। इसके बिना वे और किसी उपाय से अपनी दुष्टता से विरत नहीं होते। सिंह, व्याघ्र, भेड़िये, सर्प, बिच्छू आदि को न तो सदुपदेशों से सन्मार्ग पर लाया जा सकता है और न विनय, नम्रता, क्षमा आदि का ही कोई प्रभाव पड़ता है। वे सज्जनता की भाषा समझते ही नहीं। क्षमा को वे कायरता या दुर्बलता के अर्थ में लेते हैं। समझते हैं असमर्थता अपनी जान बचाने के लिए दयालुता का आडम्बर बना रही है। इस उपाय को अपनाने से उनके हौंसले बढ़ते हैं। अपने कुकृत्यों के लिए द्वार खुला देखकर वे चौगुने-सौगुने उत्साह से दुष्टता पर उतारू होते हैं। अनाचार निर्भय होकर अपना कार्यक्षेत्र अनेक गुना बढ़ा लेता है। इसकी चपेट में सबसे पहले वे ही आते हैं जो दया धर्म की दुहाई देकर किसी प्रकार झगड़ा टालने की बात सोचते हैं।

सतयुग और कलियुग की परिस्थितियों में जमीन आसमान जैसा अन्तर हुआ। इसलिए विचारशैली और क्रिया पद्धति में भी तद्नुरूप हेर-फेर आवश्यक हो जाता है। जब कोई दीन हीन है ही नहीं-पिछड़ा और अभावग्रस्त दीख ही नहीं पड़ता तो सेवा सहायता किसकी की जाय। जब कोई अनाचारी, आततायी है ही नहीं तो प्रताड़ित किसे किया जाय? संघर्ष किससे ठाना जाय? ऐसी दशा में पुरातन काल का वह सतयुगी व्यवहार उचित ही था कि योगाभ्यास, तप साधना जैसे आत्मोत्कर्ष के प्रयासों में निरत हुआ जाय। इसका लाभ भी था कि चेतना की प्रसुप्त क्षमता को अधिक समुन्नत बनाने का अवसर मिलता था। देवत्व की मात्रा बढ़ाकर महामानव बनने का ऋषि, मनीषी बनने का सुयोग हस्तगत होता था। जिस भूमि में देव समुदाय की अभिवृद्धि होती थी उसे, ‘स्वर्गादपि गरीयसी’, कहलाने का सुयोग मिलता था। उस समय के लिए वही चिन्तन, निर्धारण एवं क्रिया, कलाप उचित था कि सामाजिक जीवन में कोई अस्त-व्यस्तता न रहने पर आत्म-कल्याण की आत्मोत्कर्ष की बात सोची जाय। स्वर्ग की, मुक्ति की, सिद्धि की सुखद कल्पनाओं एवं चेष्टाओं में निरत रहा जाय।

पुरातन काल का रहन-सहन दूसरे ढंग का था, आबादी कम थी जंगल बहुत। लोग कृषि पशुपालन के लिए अपने-अपने क्षेत्र बाँट कर दूर-दूर झोंपड़े बनाकर रहते थे। स्वावलम्बी निर्वाह करते थे। समाज का सघन विकास नहीं हुआ था ऐसी दशा में कोई सार्वजनिक समस्याएँ या आवश्यकताएँ थी भी नहीं। उन परिस्थितियों में व्यक्ति की मानसिकता एवं व्यवहारिकता व्यक्तिवादी रही हो तो आश्चर्य ही क्या? व्यक्तिवादी चिन्तन या तो भौतिक वैभव बटोरता है या फिर स्वर्ग मोक्ष जैसी महत्वाकाँक्षाओं को संजोता है। सतयुग की यही विशेषता थी कि तब न तो सामूहिकता इस सीमा तक विकसित हुई थी कि किन्हीं समस्याओं को सुलझाने की आवश्यकता पड़े और न व्यक्ति ही स्तर के थे कि जिनके पास सज्जनता, सम्पन्नता की कमी हो। ऐसी दशा में उन दिनों पशु वर्ग के लिए आवश्यक सेवा सहायता के संबंध में भी विचार नहीं करना पड़ता था और न मनुष्यों में कोई पिशाच वर्ग के ऐसे दुष्ट, भ्रष्ट ही होते थे, जो मर्यादाओं की उपेक्षा, वर्जनाओं की अवहेलना करें। ऐसी दशा में प्रतिरोध, संघर्ष करने और प्रताड़ना देने प्रतिबंध लगाने की भी योजना नहीं बनानी पड़ती थी। दोनों ही प्रकार के आपत्तिकाल सामने नहीं आते थे। इसलिए लोगों की कल्पनाएँ स्वर्ग लोक मुक्ति की, स्वतंत्रता सिद्धियों की प्रगतिशीलता तक ही प्रयत्नशीलता सीमित रही होगी। पारस्परिक व्यवहार में शालीनता का ही भरपूर समावेश रहा होगा।

उन दिनों पारस्परिक व्यवहार के चार सूत्र थे। मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा। सज्जनों से मैत्री। व्यथितों के प्रति करुणा, सुखियों को देखकर मुदिता, प्रसन्नता और गड़बड़ाने वाले बाल बुद्धि लोगों के प्रति उपेक्षा। यह चारों ही प्रयोग ऐसे हैं जिन्हें मध्यवृत्ति के लोगों के साथ व्यवहृत किया जा सकता है। उन दिनों न तो पशुवर्ग के लोग थे और न पिशाच वर्ग के। इसलिए उपरोक्त चार निर्धारणों को ही पर्याप्त मान लिया गया, उनमें सेवा और संघर्ष के दो अन्य तथ्यों को जोड़ना आवश्यक नहीं समझा गया। क्योंकि तब न तो असंयमी लोग पनपे थे और न आततायियों ने पैर पसारना आरम्भ किया था।

जो समस्या सामने ही नहीं थी उसका समाधान भी क्या सोचा, खोजा जाय, किन्तु आज की स्थिति सर्वथा भिन्न है। जो परिस्थितियाँ सतयुग में दृष्टिगोचर तक नहीं होती थी। वे अब सर्वत्र तूफानी गति से बढ़ी हैं और घटाटोप की तरह छा गई हैं। संसार में दो तिहाई लोग आर्थिक, नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक दृष्टि से दयनीय स्थिति में रह रहे हैं। पिछड़ेपन का अभावग्रस्त दीन-हीन जीवन जी रहे हैं। इनकी गुहार उदारचेताओं से सेवा सहायता की है, जिसके सहारे वे कुछ ऊँचे उठकर आगे बढ़ सकें और राहत प्राप्त कर सकें। बाढ़, दुर्भिक्ष, महामारी, भूकम्प, दुर्घटना जैसी आकस्मिक विपत्तियों के आज जाने पर भावनाशील लोग निजी काम में हर्ज करते और धन, श्रम लगाकर आपत्तिग्रस्तों की सहायता करते थे। आज भी संसार के बहुसंख्यक लोग ऐसी ही सेवा सहायता की आशा करते हैं।

पिशाच वर्ग का उत्पीड़न असंख्यों को असहनीय त्रास देता है। निर्दोषों को अकारण अनाचार करने वालों के उद्धत कुकर्म जहाँ अशक्तों का उत्पीड़न करते रहे वहाँ उस सफलता को पाकर अपनी उद्दण्डता को अनेक गुना बढ़ा लेते हैं और लाभ उपार्जन से लेकर अहंकार प्रदर्शन तक के लिए घिनौने स्तर की उद्दण्डता पर उतर आते हैं। इस सस्ती सफलता के लिए मन ललचाता है। सहज ही साथियों का समुदाय जुट जाता है और अनाचारियों की चाण्डाल चौकड़ी बन जाती है।

इनसे निपटने के लिए असहयोग, विरोध, संघर्ष जैसे उपाय अपनाये बिना उन्हें रोकने का कोई और उपाय नहीं है। इन दिनों दो तिहाई पशु जीवन जी रहे हैं। एक तिहाई से कुछ ही कम पिशाच प्रवृत्ति में संलग्न है। सज्जनों, सदाचारियों, विवेकवानों और कर्त्तव्य परायणों की संख्या इतनी कम है जिन्हें कठिनाई से ही एक प्रतिशत ढूँढ़ा खोजा जा सकता है। ऐसी दशा में आत्म-कल्याण की साधना किसी के लिए भी कठिन है। आत्म-कल्याण के लिए व्रत पालन और पूजा उपचार का नियमित रूप से कर पाना कदाचित ही किन्हीं के लिए संभव हो सकता है। उन प्रयत्नों में पशु या पिशाच पग-पग पर अड़चन उत्पन्न करते हैं और सफलता के स्तर पर पहुँचने ही नहीं देते। वातावरण का प्रभाव एक कदम भी आगे नहीं बढ़ने देता।

युग धर्म को देखते हुए दीन दुर्बलों की सेवा और दुष्ट, भ्रष्ट पिशाचों के लिए अवरोध खड़े करना आज की सर्वप्रधान, सर्वोपरि, सामयिक साधना है। इनको अपनाने पर भी आत्म-कल्याण का प्रयोजन पूरा हो सकता है क्योंकि सेवा सहायता भी सद्भावना के बिना नहीं हो सकती और दुष्टता से निपटने के लिए भी त्याग बलिदान की विवेक और साहस की अनिवार्य आवश्यकता रहती है। इन सत्प्रवृत्तियों का संवर्धन भी आत्मिक प्रगति का वैसा ही द्वार खोलता है जैसा कि सतयुग में जप, तप के माध्यम से सम्पन्न किया जाता था।


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