अन्तर्मुखी ध्यान और उसकी परिणति

August 1987

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अन्तर्मुखी ध्यान में किसी बाहरी वस्तु, दृश्य, आधार आदि की आवश्यकता नहीं पड़ती। अपने आपको विश्व-ब्रह्माण्ड का, सौर मण्डल का, भूलोक का प्रतिनिधि मान कर उसी परिधि में सीमाबद्ध किया जाता है। इसके लिए किसी बाहरी अवलम्ब को अपनाने की तनिक भी आवश्यकता नहीं पड़ती। अपना आपा पूर्ण है। वह पूर्ण से उत्पन्न हुआ, पूर्णता प्रदान करने वाली समस्त वैभवों और विभूतियों से सम्पन्न है। जब अपने घर में ही मणि मुक्तकों के भण्डार भरे पड़े हों तो किसी से मनुहार करने क्यों जाया जाये? किसलिए जिस-तिस के सामने पल्ला पसारकर अपना गौरव गिराया, मन छोटा किया जाय?

वेदान्त दर्शन में “अयमात्मा ब्रह्म” सूक्ति का उद्बोधन करते हुए इस आत्मा को ही परमात्मा का छोटा स्वरूप बताया गया है। छोटा इसलिए कि वह एक छोटे काय कलेवर में सीमाबद्ध होकर रह रहा है। यदि उसे विशालता का बोध हो चले तो सबको अपने में और अपने को सब में समाया हुआ देखेगा। तब उसे विलगता का दुःख न सहना पड़ेगा। अपने में ही विश्वात्मा के विराजमान होने का अनुभव करने लगेगा।

ब्रह्माण्डव्यापी गतिशीलता के अनुरूप अपना सौर मण्डल गति अपनाता है। उसका प्रत्येक सदस्य अपनी धुरी पर घूमता और कक्षा के परिभ्रमण करता है। यही उपक्रम प्रकृति के विशाल अंचल में खेलने वाले अनेकानेक परमाणु और जीवाणु अपनाते हैं, वे भी अपनी धुरी पर घूमते और कक्षा में भ्रमण करते हैं। सभी में मध्यवर्ती नाभिक पाया जाता है। सभी में शक्ति का अजस्र भण्डार भरा पड़ा है। पर वह बीज रूप बनकर प्रसुप्त स्थिति में रहता है। जब भी उसे विकसित होने का अवसर मिलता है, वह अपनी महानता का-प्रचण्ड शक्तिमत्ता का प्रमाण परिचय देने लगता है। परमाणु विस्फोटों ने इस तथ्य को अपनी पीढ़ी के सामने सहज उजागर कर दिया है।

सामान्यजन गई-गुजरी परिस्थितियों से ऊँचे उठकर लोकनायक, महामानव, देवता, ऋषि, अवतार स्तर तक पहुँचते देखे गये हैं। इसमें बाहर के साधनों, व्यक्तियों, परिस्थितियों का यत्किंचित् ही योगदान होता है। प्रतिभा भीतर से उभरती है। महानता का उद्भव अन्तराल से होता है। बीज रूप से समस्त शक्तियों और विभूतियों की विशिष्टता हर किसी के भीतर विद्यमान है। आवश्यकता मात्र उस अवसर भर की रहती है, जिसमें उस बीज की खाद पानी पाकर अंकुरित और पल्लवित होने के लिए आवश्यक आधार मिल सके।

सर्वव्यापी तत्व निराकार ही हो सकते हैं। उन्हें चर्म चक्षुओं से नहीं देखा जा सकता। मात्र भाव संवेदना के सहारे अनुभव किया जा सकता है। बहिरंग क्षेत्र में परब्रह्म का, किसी देव का प्रतीक प्रतिनिधि मानकर उसका ध्यान किया जा सकता है। इसी आधार पर ईश्वर के दर्शन होते हैं। ध्याता की भाव संवेदना परिपक्व होकर दिवास्वप्न की तरह प्रत्यक्ष दीखने लगती है। इसी आधार पर ध्यान की परिपक्वता का प्रमाण परिचय मिलता है।

अन्तर्मुखी होकर भी इसी प्रयोजन की पूर्ति हो सकती है। मानवी काय स्तर में जहाँ अवयवों का, नाड़ी संस्थान का, गुच्छकों, ग्रन्थियों, उपत्यिकाओं, जीव कोशों, ऊतकों की सुविस्तृत विधि व्यवस्था है। वहाँ उसकी अनेकानेक गतिविधियों में सृष्टा का कौशल एवं वर्चस्व भी झाँकता दीखता है। इस संदर्भ में उपेक्षा रखने पर तो दृश्यमान ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेंद्रियों की हलचलें ही विदित होती हैं। यहाँ तक की कलेवर के पर्दे में छिपे हुए आमाशय, आँतें, गुर्दे, फेफड़े, हृदय, मस्तिष्क तक दीख नहीं पड़ते पर, गहराई में उतरने पर उन सभी के अस्तित्व तथा क्रियाकलाप का परिचय मिल जाता है। मोती समुद्र की सतह पर नहीं तैरते, उन्हें पाने के लिए गहराई में उतर कर सतर्कता पूर्ण खोजबीन करनी पड़ती है।

अन्तरंग में सन्निहित दिव्य-शक्तियों की झाँकी करने के लिए और भी अधिक गहराई तक पहुँचने के लिए गोताखोरों से बढ़कर साहस दिखाने की आवश्यकता पड़ती है। अन्तरंग की ध्यान धारणा इसी प्रकार सधती है। पृथ्वी पर बिखरे दृश्यमान पदार्थों की तुलना में समुद्र का विस्तार ही बढ़ा-चढ़ा नहीं है, वरन् उसमें बिखरा हुआ वैभव भी कम मूल्यवान नहीं है। विज्ञान के विद्यार्थी भली-भाँति जानते हैं कि दृश्य की तुलना में अदृश्य क्षेत्र की शक्तियाँ कहीं अधिक बढ़ी-चढ़ी है। पृथ्वी के दृश्यमान पदार्थों की तुलना में समुद्र तल की सम्पदा कहीं अधिक है। आकाश में भी जिन तरंगों का क्रीड़ा क्षेत्र में उसे दृश्य जगत का भाग्य विधाता एवं जीवन दाता कहा जा सकता है। तत्वज्ञानी आरम्भ से ही इस तथ्य पर प्रकाश डालते रहे हैं कि स्थूल की तुलना में सूक्ष्म की सामर्थ्य एवं उपयोगिता असंख्य गुनी बढ़ी-चढ़ी है।

मस्तिष्कीय क्षमता का मात्र सात प्रतिशत काम में आता है। शेष भाग प्रसुप्त स्थिति में अविज्ञात रूप में पड़ा रहता है। यदि इस समूचे कलेवर को किसी प्रकार जागृत सक्रिय किया जा सके तो उस व्यक्ति की सभी अतीन्द्रिय क्षमताएँ जाग पड़ेगी और प्रत्यक्ष स्थिति किसी देव मानव के समतुल्य हो जायगी। यही स्थिति अन्यान्य भागों की भी है। मस्तिष्क मध्य में पाया जाने वाला ब्रह्मरंध्र सहस्रार कमल यदि जग पड़े तो वह लोक-लोकान्तरों के साथ अपने संबंध सूत्र जोड़ सकता है। वहाँ पाई जाने वाली शक्तियों के साथ आदान-प्रदान का संबंध जोड़ सकता है। ऐसी दशा में ऐसी कोई व्यक्ति ब्रह्मपुरुष स्तर का हो सकता है।

इस दिशा में बढ़ने के लिए आरम्भ छोटे कदम उठाकर किया जाना चाहिए। पौधे क्रमशः बढ़ते हैं। अन्यत्र भी सृष्टिक्रम का यही अनुबंध देखा जाता है कि छोटे से बड़ा बनने का क्रम निर्धारण अपने ढंग से चलता रहे। साधना क्षेत्र में उतरने वालों को भी यही नीति अपनानी चाहिए। विशेषतया अन्तरंग क्षेत्र की साधनाओं में तो प्रयत्नरत होने के साथ क्रमिक विकास अपनाने की ही नीति अपनानी चाहिए। बड़े डग भरने की अपेक्षा छोटे कदम उठाते हुए प्रगति क्रम आरम्भ करना चाहिए। यही सरल भी है और इसी में सुविधा भी। सफलता की दिशा में इसी क्रम से बढ़ना चाहिए।

चेतना क्षेत्र में मन की ही तरह प्राण का भी स्थान है। दोनों परस्पर संबद्ध भी हैं और समानान्तर भी। इन्हें विद्युत के दो प्रवाहों की तरह ही समझा जा सकता है। मन को निग्रहित करने में ध्यान की आवश्यकता पड़ती है और प्राण को सशक्त बनाने में प्राणायाम प्रक्रिया का प्रयोग होता है। प्राणायामों के अनेक विधि विधान है। उनमें से ‘सोऽहम्’ साधना एक ऐसी है, जिसे अन्तर्मुखी ध्यान की संज्ञा दी जा सकती है।

प्राण को प्रकृति और चेतना का सम्मिश्रित स्वरूप कह सकते हैं। वह निखिल ब्रह्माण्ड के कण-कण में भरा पड़ा है। वायु वर्ग की दृष्टि से उसमें ‘आक्सीजन’ का बाहुल्य है फिर भी वह मात्र ‘आक्सीजन’ नहीं है उसमें चेतना भी पर्याप्त मात्रा में घुली हुई है। श्वास के साथ संकल्पपूर्वक उसे खींचा और धारण किया जा सकता है। साधारण श्वास प्रश्वास में स्वच्छ वायु का प्रवेश होता और निःश्वास में शरीर में उपजते रहने वाले मलों का निष्कासन होता है। यह क्रम जीवन भर स्वसंचालित रीति से चलता रहता है। किन्तु जब प्राण को आकर्षित करने का संकल्प लेकर उसे खींचा जाता है तो श्वास के साथ ही प्राण तत्व भी खिंचता चला आता है। इसका जितना अधिक संचय होता है उतना ही मनुष्य प्राणवान, प्रतिभावान, तेजस्वी बनता चला जाता है।

श्वास के प्रवेश और निसृजन पर ध्यान जमाये रहा जाय तो भी ध्यान के लिए एक आधार बनता है। मन की भगदड़ रुक जाती है। एकाग्रता अनायास ही बढ़ने लगती है। श्वास का नासिका मार्ग से प्रवेश करना-मस्तिष्क के प्रसुप्त घटकों को जगाना, फेफड़े में पहुँच कर उसके शिथिल मार्ग को सक्रिय करना, प्राण को प्रत्येक अवयवों में पहुँच कर नवजीवन प्रदान करना, श्वास के बाहर निकलने के साथ अन्दर की सभी मलीनताओं का धुल कर बाहर निकल जाना, यह एक श्वसन क्रिया है। इसी आकर्षण विकर्षण पर ध्यान जमाये रहा जाय तो संकल्प शक्ति में प्रखरता आने से अंग अवयवों में अभिनव शक्ति संचार का अनुभव होता है। उपेक्षा और अनुपेक्षा का यही अन्तर है। जहाँ निर्वाह मात्र निभ रहा था वहाँ प्राण शक्ति का अभिनव भण्डारण आरम्भ हो जाता है।

इससे एक कदम आगे की अध्यात्म साधना है ‘सोऽहम् साधना’। इसे अजपा जाप या हंसयोग भी कहते हैं। विधान इतना भर है कि श्वास के भीतर जाते समय ‘सो’ की ध्वनि अत्यन्त धीमे स्वर में होने की भावना की जाय। एकाग्रता बटोर कर उस ध्वनि को सुनने के लिए दत्तचित्त हुआ जाय। आरम्भ में वैसी मात्र कल्पना करते रहने भर की बात बनती है। पर कालान्तर में वह भावना मूर्त्तिमान भी होने लगती है और श्वास के प्रवेश काल में हल्की-सी ध्वनि के प्रकट होने जैसा अनुभव भी होने लगता है। ‘सो’ का अर्थ है-वह। वह अर्थात् परमेश्वर। श्वास का भीतर प्रवेश करना अर्थात् परब्रह्म का काय कलेवर में अवतरण।

कुछ समय श्वास ठहरती भी है। इस अवधि में प्राण के अंतरंग में प्रवेश करने की प्रक्रिया का ध्यान किया जा सकता है।

अब श्वास के बाहर निकलने की बारी आती है। इस निःश्वास के साथ ‘हम’ की ध्वनि का चिन्तन करना चाहिए। ‘हम’ वस्तुतः अहम् का ही संक्षिप्त रूप है। अहम् अर्थात् अहंकार। स्वार्थ लोभ, मोह आदि के काषाय कल्मष। यही हैं जो जीवात्मा के साथ लिपट कर उसे भव बंधनों के पाश में जकड़ते हैं। निःश्वास के साथ इसको बाहर निकलते अनुभव करने पर चित्त बहुत हल्का होता है। सिर पर लदा कोई भारी बोझ उतर रहा प्रतीत होता है। मलीनताओं का निष्कासन और दिव्य चेतना का प्रवेश यह उभय-पक्षीय प्रयोजन इस प्रयोग के आधार पर सम्पन्न होता है। इसी क्रम में निरन्तर चलते रहने पर मंत्र जप जैसी आत्मोत्कर्ष की विधि व्यवस्था बन पड़ने जैसा अनुभव होता है। यह क्रम दीर्घकाल तक निरन्तर चलता रहे तो उससे प्राण संचय बन पड़ता है और जीवन शक्ति का भण्डार भरता है। मलीनता के घटते जाने की भी अनुभूति होती है। श्वास कुछ समय बाहर भी रुकती है। इस भीतर और बाहर रुकने के कुछ क्षणों में अन्तः कुँभक और बाह्य कुँभक के नाम से जाना जाता है।

सोऽहम् को परमात्मा और आत्मा का मिलन भी कह सकते हैं। परमात्मा ‘सो’ ‘आत्मा-अहम्’। इस विद्या को दोनों का संगम समागम भी कह सकते हैं। इससे आनन्द और उल्लास की उत्पत्ति होती है।

‘सोऽहम्’ प्राणायाम में साधारण की अपेक्षा अधिक गहरे श्वास निःश्वास लेने छोड़ने पड़ते हैं। यह स्वास्थ्य संवर्धक प्रक्रिया भी है। साधारणतया लोग उथले साँस लेते हैं। इससे फेफड़ों का मध्य भाग ही प्रभावित होता है। शेष निष्क्रिय उपेक्षित पड़ा रहता है। उथली साँस से ऑक्सीजन भी शरीर को न्यून मात्रा में मिलती है। इसमें दोनों प्रकार की क्षतियाँ हैं। फेफड़े कमजोर रहते हैं और रक्त का परिशोधन पूरी तरह नहीं हो पाता। इस स्थिति के लगातार चलते रहने से दुर्बलता और रुग्णता का खतरा रहता है। जीवनी शक्ति में कमी पड़ती ही है, जिससे रोग निरोधक सामर्थ्य के कम पड़ने पर से छुट-पुट बीमारियों का सिलसिला चल पड़ता है और अंततः आयुष्य का एक बड़ा भाग चट करके अकाल मृत्यु का निमित्त कारण बनता है। किन्तु प्राण प्रक्रिया में गहरे साँस लेना छोड़ना अनिवार्य होता है। अस्तु उपरोक्त सभी संकट टलते हैं और आत्मिक स्वास्थ्य के साथ-साथ शरीर की बलिष्ठता भी बढ़ती है।


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