अविज्ञात को मिलेगी अब विज्ञान की मान्यता

August 1987

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कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के सुविख्यात न्यूक्लियर भौतिक विज्ञान डॉ. जॉन जुँगर मैने के अनुसार वैज्ञानिक खोजें वस्तुनिष्ठ होती हैं और यह अंतिम सत्य पर नहीं पहुँच सकतीं क्योंकि नित नूतन आविष्कारों से उनकी सत्यता पर प्रश्न चिन्ह लगता चला जाता है। अतः खोज अनुसंधान मानवी काया में सन्निहित सूक्ष्म दिव्य सत्ता का किया जाना चाहिए, जिसका समय-समय पर आइन्स्टीन, आइजक न्यूटन, लुईपाश्चर, जेम्स जीन्स जैसे विश्वविख्यात वैज्ञानिक मनीषियों तथा प्राच्य अध्यात्मवेत्ताओं ने अपनी कृतियों में प्रतिपादन किया है और कहा है कि मानवी चेतना एवं उसकी प्रचंड विचारशीलता का प्रभाव आस-पास के वातावरण, प्राणियों और निर्जीव पदार्थों को प्रभावित करता है।

प्रख्यात खगोलवेत्ता जेम्स जीन्स की मान्यता है कि विश्व ब्रह्माण्ड की संरचना जटिल रासायनिक क्रिया-प्रक्रियाओं के जोड़-तोड़ से बनी एक बड़े मशीन की अपेक्षा महान विचारों की पुँजीभूत शक्ति के रूप में दिखाई पड़ती है। मानवी चेतना का प्रभाव और आधिपत्य सृष्टि के कण-कण में अनुभव किया जा सकता है। डॉ. जुँगरमैन के अनुसार मानवी चेतना अपने आस-पास के वातावरण एवं उन उपकरणों, मशीनों, पदार्थों को भी प्रभावित करती है जिनके साथ वह कार्य करती है। इस तथ्य की सत्यता को प्रमाणित करने के लिए जुँगरमैन ने एक अत्यंत संवेदनशील उपकरण-’इन्टरफेरोमीटर’ लेसर उपकरण का आविष्कार किया और कुछ विशिष्ट व्यक्तियों की सामान्य उपस्थिति से भी उपकरण को प्रभावित होते देखा।

“स्टेनफोर्ड रिसर्च इन्स्टीट्यूट” के मूर्धन्य भौतिक विज्ञानी डॉ. हेराल्ड पुथाफ ने इसी तरह का प्रयोग प्रतिभाशाली अतीन्द्रिय क्षमता सम्पन्न इंगोस्वान नामक मनोविज्ञानी के साथ किया। डॉ. फुथाफ ने वैज्ञानिकों की उपस्थिति में एक शक्तिशाली मैग्नेटोमीटर धरती के गर्भ में छिपाकर उसे कक्रींट से बन्द कर दिया। स्वान ने अपनी अतीन्द्रिय मानसिक दक्षता के बल पर बिना किसी उपकरण की सहायता के मैग्नेटोमीटर की सुई में विक्षेप पैदा कर दिया। यह कार्य स्वान ने दूर से ही चेतन क्षमता द्वारा मशीन को प्रभावित करके दिखाया।

काया की विलक्षण क्षमताओं का अध्ययन करने के लिए वैज्ञानिकों ने परामनोविज्ञान से संबंधित “साइक्रोटानिक्स” नामक एक स्वतंत्र विज्ञान का विकास किया है, जिसके अंतर्गत शरीर में सन्निहित बायो-इलेक्ट्रिसिटी, बायोमैग्नेटिज्म, बायोप्लाज्मा, आभामंडल-प्रभामंडल जैसे अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों के साथ मनुष्य और पदार्थों-जीवित और निर्जीव के मध्य होने वाली अन्यान्य क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है। वैज्ञानिकों ने अपने अनुसंधान में पाया है कि मानवी काया सदैव चहुँ ओर से एक रहस्यमय शक्ति से घिरी रहती है। शक्ति प्रवाह के उस अदृश्य घेरे को इटली के मूर्धन्य वैज्ञानिक प्रोफेसर गैलवानी ने “एनीमल इलैकट्रिसिटी” तथा सुप्रसिद्ध आस्ट्रियन चिकित्सक अन्टन मेस्मर ने “एनिमल मैग्नेटिज्म” नाम से संबोधित किया है। उस समय इन आविष्कारों को धोखा-धड़ी और हैण्ड ट्रिक कहकर इन वैज्ञानिकों को अपमानित प्रताड़ित किया गया था, किन्तु आज मानवी काया की विलक्षण क्षमता, उससे सतत् निकलने वाले प्राण विद्युतीय-ऊर्जा प्रवाह, व्यक्तित्व का प्रभाव आदि वैज्ञानिकों के लिए अनुसंधान का स्वतंत्र विषय बन गये हैं। वैज्ञानिकों ने इसे बायो प्लाज्मा, बायोग्रेविटी, “आर्गान एनर्जीफील्ड”, माइटोजेनेटिक रेडियेशन, बायोल्युमूनीसेन्स, अल्ट्रासोनिक रेडिएशन, बायोफ्लक्स आदि कितने ही नाम दिये हैं।

दक्षिण कजाकिस्तान के अल्मा अता स्थित किरोव यूनीवर्सिटी के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रोफेसर विक्टर इन्यूशिन ने अपने अनुसंधान निष्कर्ष में कहा है कि प्रत्येक जीवित प्राणी का मात्र भौतिक शरीर ही नहीं होता वरन् ‘बायोप्लाज्मा’ से निर्मित उसका एक ऊर्जा शरीर-’एनर्जी बाडी’ भी होता है। अध्यात्म शास्त्रों में इसे ही सूक्ष्म शरीर-’ईथरिक बाडी’ कहा गया है और बताया गया है कि प्राण ऊर्जा का विराट् समुद्र शरीर को घेरे रहता है। सूक्ष्म शरीर के माध्यम से प्राण तत्व समस्त नस नाड़ियों-तंत्रिका तंत्रों में संचरित संवहित होता रहता है। सूक्ष्म शरीर के करण स्थायी रूप से सतत् परिवर्तित होते रहते हैं। भौतिकविदों के अनुसार ठोस, द्रव, गैस के अतिरिक्त पदार्थ की चौथी अवस्था ‘प्लाज्मा’ है जो सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। इसी से सूर्य का निर्माण हुआ है। योगशास्त्रों में प्राण ऊर्जा को सूर्य-सविता के निर्माण में भाग लेने वो तत्त्व से संबंधित माना गया है और कहा गया है कि यह प्राण ऊर्जा विश्व ब्रह्माण्ड के प्रत्येक घटक को प्रभावित परिवर्तित करने की सक्षम होती है।

वैज्ञानिकों की मान्यता है कि यह भौतिक संसार विभिन्न विकिरणों, प्रकंपनों, तरंग लम्बाइयों, ऊर्जा तथा बल क्षेत्रों में वाष्पीकृत को रहा है। विश्व ब्रह्माण्ड के समस्त पदार्थ ऊर्जा स्वरूप ही हैं, जैसा कि काया के संवेदी अग हमें इसका आभास कराते, और उन्हें प्रभावित करते हैं। सोवियत संघ के मूर्धन्य एकैडेमिशियन प्रोफेसर अलेक्जेण्डर डुब्रोव ने जैव गुरुत्वाकर्षण “बायोग्रैविटी” पर महत्वपूर्ण खोज की है और अपने शोध निष्कर्ष में बताया है कि जीवित प्राणियों में गुरुत्वाकर्षण तरंगों को उत्पन्न करने और उन्हें अलग करने पहचानने की क्षमता होती है। डुब्रोव के अनुसार मनुष्य की शारीरिक कोशिकाएँ इन तरंगों को सतत् विकसित करती रहती हैं और यही तरंगें दूरश्रवण, दूरभाष, दूरानुभूति, पूर्वाभास, आकाशगमन जैसे अतीन्द्रिय कार्यों को सम्पन्न कराती हैं। कोशिका विभाजन के समय कोशिकाओं से फोटोन कणों की ऊर्जा युक्त विकिरण किरणें तथा दस घात छह से दस घात सात साइकल्स प्रति सेकेंड की उच्च फ्रीक्वेंसी युक्त अल्ट्रासोनिक तरंगें भी निकलती हैं। नोवोसीविर्स्क विश्वविद्यालय (रूस) में अनुसंधानरत वैज्ञानिकों-सिमोन एस्चूरिन, एल.पी. मिखाइलोवा तथा उनके सहयोगियों ने अपने 500 से अधिक प्रयोग परीक्षणों के आधार पर भी यही निष्कर्ष निकाला है कि काया की प्रत्येक कोशिका से अल्ट्रावायलेट रेडिएशन, बायोग्रैविटेशनल वैव्स एवं अल्ट्रासोनिक वैव्स निकलती रहती हैं और पास तथा दूरस्थ की कोशिकाओं को अपने अदृश्य तरंगों-प्रकम्पनों के माध्यम से प्रभावित करती हैं। इनके अपने सुनिश्चित एवं गुप्त-’कोडेड इन्फार्मेशन’ सूचना-संदेश होते हैं। इन्हीं के आधार पर मनुष्य का अदृश्य प्रवाह आस पास के वातावरण, सजीव तथा निर्जीव जड़ पदार्थों को भी प्रभावित करता और अपने अनुकूल मोड़ता मरोड़ता है।

साइकोट्रानिक अनुसंधान के क्षेत्र में किर्लियन फोटोग्राफी के आविष्कारक रूसी दंपत्ति श्री सेम्योन और वैलेन्तीना किर्लियन का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इलेक्ट्रिकल फोटोग्राफी की इस विधा पर सोवियत यूनियन के अतिरिक्त चैकोस्लोवाकिया, इंग्लैण्ड और अमेरिका के वैज्ञानिक अनुसंधानरत हैं। भारत के डॉ. नरेन्द्रन तथा डॉ. रमेश सिंह चौहान जैसे मूर्धन्य वैज्ञानिक चिकित्सक भी इस क्षेत्र में अनुसंधान कार्य कर रहे हैं। शीला ओस्ट्रैण्डर और लिन श्रोइडर की प्रसिद्ध पुस्तक “साइकिक डिस्कवरीज विहाइन्ड द आयरन कर्टेन” तथा सुविख्यात परामनोविज्ञानी डॉ. थेल्मामाँस की पुस्तक “द प्रौबेबिलिटी ऑफ द इम्पासिबुल” में प्राण ऊर्जा पर वैज्ञानिक अनुसंधानों का वर्णन किया गया है। इन अनुसंधानों से प्राण ऊर्जा-जैव विद्युतीय ऊर्जा के अनेक अविज्ञात तथ्य उद्घाटित हुए हैं।

सुप्रसिद्ध चेक इंजीनियर राबर्ट पैवलिता ने प्राण ऊर्जा का अध्ययन करने के लिए “साइकोट्रानिक-जनरेटर” नामक एक उपकरण का आविष्कार किया है। इसकी विशेषता यह है कि यह बायोएनर्जी से परिचालित है और एक बार चार्ज कर देने के बाद इससे कई प्रकार के प्रयोग परीक्षण किये जा सकते हैं। पैवलिता इसे स्वयं अपने प्राण ऊर्जा से चार्ज करते हैं और मटमैले मिट्टी युक्त पानी से भरे जार का जनरेटर के पास रखकर इच्छानुसार कीचड़ का अवक्षेपण शीघ्र करा देते हैं। इसी तरह किसी पौधे की वृद्धि दर में बढ़ोतरी करा लेते हैं, आदि। चैकोस्लोवाकिया के ही एक दूसरे इंजीनियर जुलियस क्रामेस्की ने पैवलिता से मिलते जुलते प्राण ऊर्जा के अनेक प्रयोग परीक्षण वैज्ञानिकों के समक्ष प्रस्तुत किये। क्रामस्की अपने प्राण विद्युतीय ऊर्जा के माध्यम से पानी पर तैरती हुई वस्तुओं की गति से अभिवृद्धि कर उसे मनोनुकूल दिशा में आगे पीछे तैरने के लिए बाध्य कर देते हैं। जार के अन्दर धागे से लटके हुए किसी वस्तु को दूर से ही हाथ से प्राण प्रवाह द्वारा उसे दक्षिणावर्त या वामावर्त दिशा में घुमाने लगते हैं। वे बोर्ड पर लगे स्विच पर आंखें को एकाग्र कर उसे आँन-आफ करके प्रकाश बल्व को जला देते हैं। सुप्रसिद्ध न्यूरोफिजियोलाजिस्ट ई. ग्रे वाल्टर के अनुसार मनुष्य अपने मस्तिष्क के कार्टेकस को इलेक्ट्रोड्स के माध्यम से टी.वी. सेट से संबंधित करके इच्छाशक्ति के सहारे अपने कल्पना लोक को पर्दे पर देखने की क्षमता रखता है। वाल्टर इस तरह के कई प्रयोग कर चुके हैं और सफलता के प्रति आशान्वित हैं।

किर्लियन फोटोग्राफी से अर्जित ज्ञान का उपयोग अब चिकित्सा विज्ञानी शारीरिक एवं मानसिक रोगों का पता लगाने में करने लगे हैं। कैंसर जैसी घातक बीमारियों को इस विधि द्वारा समय से पूर्व ही पहचान लिया जाता है। प्रख्यात चिकित्सा विज्ञानी डॉ. थेल्मामाँस और फ्राँसिस साबा ने अपने अनुसंधान में पाया है कि सिर दर्द जैसे मामूली स्वास्थ्य परिवर्तन से भी आभा मण्डल में परिवर्तन आ जाता है। स्वस्थ स्थिति में अंगुलियों के सिरे का आभा मण्डल लम्बे परिमण्डल युक्त होता है तथा बीमारी की स्थिति में यह बदल कर व्रणनुमा धब्बेदार हो जाता है, साथ ही इसका रंग भी परिवर्तित हो जाता है। शरीर में होने वाले विभिन्न रासायनिक परिवर्तनों और रुग्णावस्था में शरीर से निकलने वाले पसीने का स्वरूप और उसके गंध परिवर्तन की तरह ही शारीरिक, मानसिक परिवर्तन के साथ आभामण्डल भी परिवर्तित होता रहता है। इन अध्ययनों और अनुसंधानों के आधार पर शरीर क्रिया विज्ञान का अध्ययन करने वाले डॉ. डेविड शीनकिन, डॉ. जॉन ह्यूबेकर तथा टेड डॉन जैसे मूर्धन्य वैज्ञानिकों की यह धारणा अब बलवती होती जा रही है कि मानवी आभामण्डल या बायोफ्लक्स में होने वाले ये परिवर्तन भौतिक न होकर मानवी विचारणा तथा भाव संवेदना से बहुत हद तक संबंधित होते हैं। यही वैज्ञानिक कहते हैं कि एकाग्रता की स्थिति में जब साधक ध्यान धारणा की पराकाष्ठा पर पहुँचता है तो उसका आभामण्डल बहुत विस्तृत होता देखा गया है। इसमें रुग्णावस्था में पाये जाने वाले धब्बे नहीं पाये जाते। इससे यह सिद्ध होता है कि आभामण्डल की उज्ज्वलता मनुष्य की भावनात्मक चेतनात्मक उत्कृष्टता पर निर्भर करती है। कोई आश्चर्य नहीं कि अगले दिनों रोगों के निदान के साथ-साथ साधना क्षेत्र में प्रगति की जाँच पड़ताल आभामण्डल मापने वाले उपकरणों द्वारा होने लगे।

विज्ञान की उपलब्धियाँ यदि अध्यात्म शास्त्र की मान्यताओं एवं सिद्धान्तों से जोड़ी जा सकें तो मानव मात्र के लिए एक हितकारी चिकित्सा पद्धति सार्थक जीवन जीने की पद्धति-साधना उपचार प्रणाली विकसित की जानी भी संभव है। बायो फीडबैक की दिशा में चल रहे प्रयोगों को यदि सही दिशा लेकर आभा मण्डल परीक्षण प्रक्रिया तथा साधना निर्देशों से सूत्रबद्ध किया जा सके तो आत्मिक प्रगति के महत्व पूर्ण सोपानों को पार किया जा सकता है हम मात्र चिकित्सा तक सीमित न रहकर यदि अन्तरंग की सामर्थ्य को विकसित करने हेतु जैव भौतिकी के क्षेत्र में हुए इन अनुसंधानों का आश्रय लें तो न केवल बहुमूल्य रत्न हस्तगत होंगे, वैज्ञानिक जगत की जिज्ञासा को भी शान्त किया जा सकेगा, क्योंकि यह उन्हीं की भाषा में, यंत्रों द्वारा सम्पन्न किए गय पूर्णतः विज्ञान सम्मत प्रयोग होंगे।


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