नाम था शेरसिंह। अपनी बहादुरी की डींगें भी बहुत हाँका करते थे। एक दिन उनके मन में विचार आया। भुजा पर शेर का चित्र गुदवा लेने का। गोदने वाले को बुलाया और हाथ आगे कर दिया।
गोदने वाले ने सुई चुभोना आरम्भ किया तो दर्द से उनका बेहाल हो गया। बोला- अभी तो पूँछ बना रहे हो इसे छोड़ दो। बिना पूँछ के भी तो जानवर होते हैं। उसने कमर, गरदन, मुँह आदि बनाने के जैसे-जैसे क्रम चलाये, वैसे-वैसे हर स्थान पर वे पीड़ा अनुभव करते रहे और गोदने वाले को रोकते रहे।
जो गुद चुका था वह बेतुका था उसमें अस्त-व्यस्त अंगों का उभार था। शेरसिंह ने उतने भर से संतोष कर लिया और काम समाप्त कराते हुए बोले- मेरा नाम और रौब ही बहुत है। उसी से काम चल जायगा। जो थोड़े बहुत निशान बन गये हैं उनसे भी मेरे शेरपन की पुष्टि होती रहेगी।
दुर्बल मन वाले ऐसे ही डींगें हाँकते रहते हैं। समय आने पर किसी प्रकार जान छुड़ाते हैं।