प्रतिभा पर आयु का सीमा बंधन नहीं!

August 1987

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सामान्य धारणा है कि प्रौढ़ावस्था में शरीर के साथ-साथ मनुष्य का मस्तिष्क भी ढलने लगता है और चिन्तन तंत्र काम करना बन्द कर देता है, कल्पना शक्ति कमजोर पड़ जाती है व दिमाग की रचनात्मक सामर्थ्य क्षीण हो जाती है; पर वस्तुतः ऐसी बात है नहीं। संसार में अनेक महत्वपूर्ण कार्य लोगों ने ढलती आयु में ही सम्पन्न किये हैं। कई लोगों ने जीवन की इस ढलान में अनेक ऐसी रचनाएँ कीं, जो उन्हें अमर बना गयी। कइयों ने इस अवस्था में ऐसी प्रतिभा का परिचय दिया, जिसे अद्भुत ही कहा जा सकता है। अनेकों ने इसी उम्र में अपने जीवन को सही-सही समझा और उसका सदुपयोग किया, जबकि अन्य अनेक ऐसे भी हुए हैं, जिनने जीवन के इसी दौर में कुछ ऐसे कार्य कर दिखाये, जिन्हें शेष जीवन की तुलना में श्रेष्ठ व मूल्यवान कहा जा सके।

ऐसे महान पुरुषों में कुछ हैं-महान दार्शनिक सन्त सुकरात, प्लेटो, पाइथागोरस, होमर, आगस्टन, खगोल शास्त्री गैलीलियो, प्रसिद्ध कवि हेनरी वर्ड्सवर्थ, वैज्ञानिक थाम अल्वा एडीसन, वैज्ञानिक निकोलस, कोपरनिकस, विख्यात वैज्ञानिक न्यूटन, सिसरो, अलबर्ट आइन्स्टीन, टेनिसन तथा महात्मा टॉलस्टाय।

सुकरात ने साठ वर्ष पार करने के उपरान्त यह अनुभव किया कि बुढ़ापे की थकान और उदासी को दूर करने के लिए संगीत अच्छा माध्यम हो सकता है, अतः उन्होंने गाना सीखना आरम्भ किया और बजाना भी। यह क्रम उन्होंने मरते दम तक जारी रखा। वे 60 वर्ष की उम्र में अपने अत्यन्त महत्वपूर्ण तत्त्वदर्शन की विशद व्याख्या करने में भी जुटे हुए थे यह बात प्लेटो के संबंध में भी थी। वे अपनी 80 वर्ष की आयु तक बराबर कठोर परिश्रम करते रहे। 81 वर्ष की अवस्था में हाथ में कलम पकड़े हुए उन्होंने मृत्यु का आलिंगन किया

टेनिसन ने 80 वर्ष की परिपक्व अवस्था में अपनी सुन्दर रचना “क्रासिंग द वार” दुनिया को प्रदान किया। राबर्ट ब्राउनिंग अपने जीवन के संध्याकाल में बहुत सक्रिय बने रहे। उन्होंने 77 साल की उम्र में मृत्यु के कुछ पहले ही दो सर्व सुन्दर कविताएँ- ’रेवेरी’ और ‘एवीलाँग टु आसलेण्डी’ लिखी। एच.जी.वेल्स ने 70 वर्ष की अपनी वर्षगाँठ के उपरान्त भी पूरे चुस्त और कर्मठ रहते हुए एक दर्जन से ऊपर पुस्तकों की रचना की। सिसरो ने अपनी मृत्यु के एक वर्ष पूर्व 63 वर्ष की आयु में अपनी महत्त्वपूर्ण पुस्तक- ”ट्रीटाइज आँन ओल्ड एज” की रचना की। कीरो ने 80 साल की उम्र में ग्रीक भाषा सीखी थी। थियोसाफी की संस्थापिका मैडम ब्लेवटस्की ने मृत्यु शय्या पर ही अपने जीवन के सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ “सिक्रेट डाँक्ट्रीन्स” की रचना की थी। जो कि 6 खण्डों में है। प्लटार्क यूनान के माने हुए साहित्यकार हुए हैं। उन्होंने 65 वर्ष की आयु के बाद लैटिन भाषा पढ़नी आरम्भ की थी। इटली के प्रख्यात उपन्यासकार वोकेशिया को ढलती उम्र में साहित्यकार बनने की बात सूझी। उस ओर वह पूरी दिलचस्पी के साथ जुटे और अन्ततः मूर्धन्य कथाकार बन कर चमके। इसी प्रकार दार्शनिक फ्रेंकलिन की विश्वव्यापी ख्याति है। वे 50 वर्ष की आयु तक दर्शन शास्त्र से अपरिचित रहे। इसके प्रति रुझान इसके बाद ही जन्मा और वह उन्हें विश्वविख्यात बनाकर ही रहा।

संसार में कुछ ऐसे भी व्यक्ति हुए हैं जिन्हें जीवन के पूर्वार्ध में विज्ञान का अक्षर-ज्ञान भी नहीं था; पर जीवन यात्रा के उत्तरार्ध में उनने विज्ञान को अपनी बहुमूल्य सेवाएँ दीं और मूर्धन्य विज्ञानी बने। सर हेनरी स्पेलमैन अग्रगण्य विज्ञानवेत्ता हुए हैं। वे 60 वर्ष तक दूसरी तरह के काम करते रहे। इस उम्र में उन्हें वैज्ञानिक बनने की सूझी सो उन्होंने साइन्स की पुस्तकें पढ़नी आरम्भ कीं और उस दिशा में उनकी बढ़ती दिलचस्पी ने उन्हें उच्चकोटि की वैज्ञानिक सफलताएँ प्रदान कीं।

अनेक भारतीय मनीषियों-विद्वानों ने भी जीवन के अन्तिम पड़ाव में ऐसी प्रतिभा का परिचय दिया है। बाण भट्ट की अपनी अमर कृति “कादम्बरी” का सृजन जीवन के अन्तिम दिनों में ही आरम्भ किया था और उसे अधूरा छोड़ कर चल बसे थे। बाद में उनके बेटे ने उस कार्य को पूरा किया। कालिदास की रुचि जीवन के उत्तरार्ध में ही साहित्य क्षेत्र में बढ़ी थी। आदि कवि कहलाने का सौभाग्य महर्षि बाल्मीकि ने अपनी प्रौढ़ावस्था में ही प्राप्त किया था। छायावाद के जनक कहलाने वाले कवि जयशंकर प्रसाद की जब मृत्यु हुई, तो वे “इरावती” नामक उपन्यास लिखने में जुटे हुए थे। जीवन के अन्तिम चरण में विनोबा चीनी भाषा सीख रहे थे। संस्कृत के पारंगत सातवलेकर जब 75 वर्ष के थे, तब वेदों का भाष्य आरम्भ किया और सारे आर्षग्रन्थों का सटीक अनुवाद कर “जीवेम् शरदः शत्म” की उक्ति सार्थक की।

पश्चिम एवं भारत के ये कुछ ऐसे मनीषी, विद्वान वैज्ञानिक थे, जिनकी रचनात्मक शक्ति का ह्रास उनकी ढलती उम्र के कारण कतई नहीं हुआ था और जिन्होंने अपने बुढ़ापे में भी बड़े महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी काम करके मानवता की अपूर्व सेवा की। पर देश-विदेश में ऐसी प्रतिभाएँ सिर्फ साहित्य क्षेत्र में पैदा नहीं हुई। राजनीति क्षेत्र में भी अनेक ऐसे नक्षत्र जन्मे, जो वृद्धावस्था के बावजूद राजनीति के अपना वर्चस्व बनाये रहे। महात्मा गाँधी, विन्स्टन चर्चिल बेंजामिन फ्रेंकलिन डिजरैली, ग्लेडस्टोन आदि ऐसे ऐतिहासिक पुरुष हैं जो अपनी वृद्धावस्था की चुनौतियों के बावजूद बहुत सक्रिय बने रहे। अपने देश की अमूल्य सेवा में वे अनवरत रूप से लगे रहे।

ये सारे उदाहरण इस बात की साक्षी देते हैं कि आयुष्य मनुष्य की रचनात्मक क्षमता में तनिक भी बाधक नहीं बनती। वस्तुतः यह मनुष्य की मनःस्थिति ही है, जो भ्रान्त धारणा घर कर लेने के बाद उसे वैसी ही प्रतीत कराने लगती है और व्यक्ति स्वयं को दीन-दयनीय स्थिति में अनुभव करने लगता है। भगवान ने हममें असीम क्षमताओं का समावेश किया है; पर हम उसका आधा अधूरा ही उपयोग कर पाते हैं। इसे हमारी भूल ही कहनी चाहिए, जो हम यह मान बैठते हैं कि समय के साथ-साथ हमारी मानसिक क्षमताओं का ह्रास होने लगता है, फलतः इसके एक बड़े भाग के सदुपयोग से हम वंचित रह जाते हैं। यदि इस भ्रान्ति से बचा जा सके, तो हर व्यक्ति जीवन पर्यन्त अपनी मानसिक शक्ति का उपयोग कर लाभान्वित होता रह सकता है।


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