एक ब्राह्मण ने बगीचा लगाया। उसे बड़े मनोयोगपूर्वक सम्हालता, पेड़ लगाता, पानी देता। एक दिन गाय चरती हुई बाग में आ गई और लगाए हुए कुछ पेड़ चरने लगी। ब्राह्मण का ध्यान उस ओर गया तो उसे बड़ा क्रोध आया। उसने एक लट्ठ लेकर उसे जोर से मारा। कोई चोट उस गाय पर इतने जोर से पड़ी कि वह वहीं मर गई। गाय को मरा जानकर ब्राह्मण बड़ा पछताया। कोई देख न ले, इससे गाय को घसीट के पास ही बाग के बाहर डाल दिया; किंतु पाप तो मनुष्य की आत्मा को कोंचता रहता है। उसे संतोष नहीं हुआ और गौहत्या के पाप की चिंता ब्राह्मण पर सवार हो गई।
बचपन में कुछ संस्कृत ब्राह्मण से पढ़ी थी। उसी समय एक श्लोक पढ़ा; जिसका आशय था कि हाथ इंद्र की शक्ति-प्रेरणा से काम करते हैं, अमुक अंग, अमुक देवता से करता है। तो इन हाथों ने गाय को मारा है, इसलिए इंद्र ही गौहत्या का पापी है, मैं नहीं?
मनुष्य की बुद्धि की कैसी विशेषता है, जब मन, जैसा चाहता है, वैसे ही हाँककर बुद्धि से अपने अनुकूल विचार का निर्णय करा लेता है। अपने आप कर्मों पर भी मिथ्या विचार करके अनुकूल निर्णय की चासनी चढ़ाकर कुछ समय के लिए कुनैन जैसे कडुए पाप से संतोष पा लेता है।
कुछ दिनों बाद, गौहत्या का पाप आकर ब्राह्मण से बोला— "मैं गौहत्या का पाप हूँ तुम्हारा विनाश करने आया हूँ।"
ब्राह्मण ने कहा— "गौहत्या मैंने नहीं की, इन्द्र ने की है।" पाप बेचारा इंद्र के पास गया और वैसा ही कहा। इंद्र अचंभे में पड़ गए। सोच विचारकर कहा— "अभी मैं जाता हूँ।" और वे उस ब्राह्मण के बाग में पास में बूढ़े ब्राह्मण का वेश बनाकर गए और तरह-तरह की बातें कहते करते हुए जोर-जोर से बाग और उसके लगाने वाले की प्रशंसा करने लगे। प्रशंसा सुनकर ब्राह्मण भी वहाँ आ गया और अपने बाग लगाने के काम और गुणों का बखान करने लगा। “देखो! मैंने ही यह बाग लगाया है। अपने हाथों पेड़ लगाएँ हैं, अपने हाथों से सींचता हूँ। सब काम बाग का अपने हाथों से करता हूँ। इस प्रकार बातें करते-करते इंद्र ब्राह्मण को उस तरफ ले गए, जहाँ गाय मरी पड़ी थी। अचानक उसे देखते इंद्र ने कहा— "यह गाय कैसे मर गई"? ब्राह्मण बोला— "इंद्र ने इसे मारा है।"
इंद्र अपने निजस्वरूप में प्रकट हुआ और बोला— ”जिसके हाथों ने यह बाग लगाया है, ये पेड़ लगाए हैं, जो अपने हाथों से सींचता है, उसके हाथों ने यह गाय मारी है, इंद्र ने नहीं। यह तुम्हारा पाप लो।” यह कहकर इंद्र चले गए। गौहत्या का पाप विकराल रूप में ब्राह्मण के सामने आ खड़ा हुआ।
भले ही मनुष्य अपने पापों को किसी भी तरह अनेक तर्क, युक्तियाँ लगाकर टालता रहे; किंतु अंत में समय आने पर उसे ही पाप का फल भोगना पड़ता, दूसरे को नहीं। यह मनुष्य की भूल है कि वह तरह-तरह की युक्ति से पाप से बचना चाहता है। अतः जो किया, उसका आरोप दूसरे पर न करते हुए स्वयं को भोगने के लिए तैयार रहना चाहिए।