बादल आकाश में जितने घुमड़ते हैं उतने बरसते नहीं। तेज धूप गर्मी के दिनों को छोड़कर वर्षा में प्रचुरता से और सर्दी में यदा-कदा उनका दर्शन होता है। पर इनमें से कितने बरसेंगे यह नहीं कहा जा सकता।
पृथ्वी की आवश्यकता को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि पन्द्रह-पन्द्रह दिन के अन्तर से सर्वत्र काम चलाऊ वर्षा होती रहे तो हरियाली की अभिवृद्धि का क्रम बना रहे और पानी की बर्बादी तथा धरती के कटाव का संकट भी पैदा न हो। किन्तु बादल मनमौजी होते हैं। प्रकृति का कोई ऐसा नियम नहीं है कि भूमि की जरूरत देखकर पानी बरसायें। विशालकाय रेगिस्तान सूखे पड़े रहते हैं जबकि चेरापूँजी जैसे पहाड़ी क्षेत्रों में अन्धाधुन्ध वर्षा होती है। तिहाई बादल तो समुद्र में से उठकर उसी में बरस जाते हैं।
इच्छित वर्षा होने की लालसा लगाये तो मनुष्य बैठा रहता है। मनौती मनाता रहता है, फिर भी बात अधूरी ही रहती है। बादल किसी का कहना मान लेंगे यह आशा नहीं की जाती। भले ही इसके लिए मोर, पपीहे, दादुर कुहराम ही मचाते रहें।
कुओं, तालाबों में पानी मूलतः वर्षा का ही होता है। यदि बारिश न हो तो वे सभी सूख जाते हैं। फिर सिंचाई के साधनों के लिए बर्फीले पर्वतों से निकलने वाली नदियों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। उनकी पहुँच भी सर्वत्र नहीं है। फिर जाड़े के दिनों में बर्फ जमती है और ऊपर से उतरने वाली नदियों में भी प्रवाह नाम मात्र का रह जाता है। ऐसी दशा में सिंचाई के माध्यम सभी कठिन हो जाते हैं और कृषि उत्पादन में कमी पड़ने से लोगों को भारी कठिनाई का सामना करना पड़ता है।
समुद्र जल को मीठा बनाने के प्रयत्न चल रहे हैं और ज्वार-भाटों से बिजली बनाने के सूर्य ताप को एकत्रित करके उससे ईंधन की आवश्यकता पूरी करने की बात सोची जा रही है। बहते हुए पवन को रोक कर पनचक्की और बहते जल प्रवाह को रोक कर बिजली घर बनाने, बाँध खड़े करके नहरें निकालने के प्रयत्न चल रहे हैं और बहुत हद तक सफल भी हुए हैं। अब आवश्यकता अनुभव की जा रही है कि बादलों पर भी नियंत्रण स्थापित किया जाय और उन्हें बरसने को आवश्यकतानुसार बाधित किया जाय।
बादल दो प्रकार के होते हैं। बहुत ऊँचे उड़ने वाले जिनका तापमान अधिक होता है वे छिरछिरे भी होते हैं। दूसरे प्रकार के वे जो भारी होते हैं, जिनमें जल का आधिक्य होता है और नीचे उड़ते हैं। हवा की गति तेजी पकड़ ले तो बात दूसरी है, अन्यथा उनकी चाल भी धीमी होती है। इतने पर भी यह नहीं कहा जा सकता कि कौन बादल कहाँ कितनी मात्रा में वर्षा करेगा? कितनी देर टिकेगा? इस अनिश्चितता को निश्चितता में बदलने के लिए ऐसे उपाय सोचे जा रहे हैं, जिनसे वर्षा कराने के संबंध में कुछ निश्चित आश्वासन मिल सकें और मनुष्य की आवश्यकता की एक बड़ी जटिलता हल हो सकें।
इस संदर्भ में वैज्ञानिकों का दावा है कि बादलों में रहने वाले छितराव को यदि घनीभूत कर दिया जाय तो वे भारी भी हो जाते हैं। नीचे भी उतरते हैं और पृथ्वी की आकर्षण शक्ति उन्हें नीचे घसीट लेती है। फलतः वर्षा होने लगती है। यह दबाव जितना अधिक होता है, उतने ही घेरे में उतना ही अधिक जल बरसता है।
इस प्रयोग के संदर्भ में कुछ समय पूर्व बर्फ के चूरे का सूखी कार्बनडाइ आक्साइड का प्रयोग किया गया था। वायुयानों में बर्फ के चूरे के पिंजड़े लटका कर बादलों के बीच उड़ाये गये थे। इस ठंडक वितरण का अच्छा प्रभाव देखा गया और पाया गया कि इसी रीति से भी वर्षा कराई जा सकती है। फिर भी यह अनिश्चित ही रहा कि कितने बादलों को किस हद तक ठंडा किया जा सकता है और उसके कितनी देर कितने परिणाम में वर्षा हो सकती है। वे प्रयोग अभी भी बन्द नहीं हुए हैं, पर यह नहीं निश्चय हुआ कि छुट-पुट कौतूहल देखने के अतिरिक्त और कोई व्यापक या बड़ा प्रयोजन भारी मात्रा में भी हो सकता है या नहीं?
इसके उपरान्त डॉ. लेंगमूर ने एक नया प्रयोग प्रस्तुत किया नमक का। उनने अपने प्रयोगों में यह कर दिखाया कि नमक का छिड़काव भी छितराये जल कणों को सघन बना सकता है। भाप बूँदों के रूप में घनीभूत होकर नीचे की ओर उतरने के लिए बाधित हो सकती है।
एक तीसरा प्रयोग और प्रस्तुत किया गया। वह था सिल्वर आयोडाइड का। इसे धरती से ऊपर उड़ाया जा सकता है और बादलों तक पहुँचाया जा सकता है। इसे जलाया कैसे जाय? आग से उसके कण हवा में बिखर जाते हैं। इसलिए एस्ट्रा फ्यूल नाम ज्वलनशील के द्वारा सिल्वर आयोडीन को जलने और उसे निश्चित दिशा में फैंकने वाले पम्प के सहारे बादलों तक पहुँचाने का प्रयोग अधिक सफल पाया गया उसमें वायुयान उड़ाने का खर्च और जोखिम दोनों ही बनते थे।
भारत की वैज्ञानिक और औद्योगिक परिषद ने देश के विभिन्न भागों में इस प्रकार के प्रयोग, परीक्षण किये कि बादलों की उपस्थिति वर्षा के काम आये और वह बेसिलसिले की उड़ानें न भरते फिरें। कृत्रिम वर्षा के प्रयोगों में रासायनिक उपयोग का प्रतिफल सीमित रहा। उससे सिद्धान्त की पुष्टि भर हुई। पर वह उपाय न निकला जिससे अभीष्ट आवश्यकता की पूर्ति हो सके।
ऊँचे वृक्षों की सघनता एक प्रकार की विद्युत शक्ति लिए हुए होती है। उसमें चुम्बक के गुण पाये जाते हैं। उसका प्रभाव और संकेत बादलों को वृक्षों की ओर खिसकने का होता है। फलतः सघन वृक्षों वाले इलाकों में वर्षा अधिक होती है। यह सबसे सस्ता और सरल उपाय है कि जिस क्षेत्र में अधिक पानी बरसने की आवश्यकता अनुभव की जाय वहाँ अधिक लम्बाई वाले देवतरु स्तर के पेड़ बहुलता के साथ लगाये जायं। छोटे गुल्मों और पौधों में यह कार्य नहीं होता, क्योंकि उनकी निज की आकर्षण शक्ति पृथ्वी के इर्द-गिर्द ही बिखरी रहती है। वह ऊपर की दिशा में अधिक दूरी तक अपना प्रभाव नहीं फेंक पाते। वृक्ष वर्षा बुलाते हैं यह मान्यता लौकिक कथाओं से लेकर वैज्ञानिक परीक्षणों तक सिद्ध होती रही है।
अग्निहोत्र का इस विषय में योगदान शास्त्र सम्मत है। गीताकार को ‘यज्ञाद् भावति पर्जन्य’ उक्ति में यह बताया है कि यज्ञ से वर्षा होती है और वर्षा होने के कारण अन्न का आहार का सुयोग बनाया है। जिससे मनुष्य तथा इतर प्राणी अपनी क्षुधा पिपासा शान्त सकते हैं। यज्ञ से वर्षा का होना किंवदंती मात्र नहीं है।
अग्निहोत्र में जो शाकल्य यजन किये जाते हैं उनमें कुछ भस्म में रह जाते हैं। जो भारी होते हैं वे उड़ नहीं पाते। किन्तु जो विटामिन स्तर के हलके क्षार होते हैं वे तैलीय जलीय, भागों के साथ मिलकर ऊपर अंतरिक्ष में उड़ जाते हैं। उनका जब बादल वाष्प से संयोग होता है तो दूसरे ढंग से वही प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है जो शुष्क बर्फ या सिलवर आक्साइड के द्वारा होती है। अन्ततः विरल वाष्प बूँदों के रूप में तभी परिणत होती है जब किसी ओर से दबाव या खिंचाव पड़ता है। यह वायु दबाव से मानसूनों की हलचलों से प्रकृतितः भी होती है और स्वाभाविक वर्षा का क्रम चलता है। किन्तु इसमें मानवी बुद्धि सर्वथा असहाय हो ऐसी बात भी नहीं है। वह कृत्रिम प्रयत्नों से भी प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदल सकती है। बादलों की बरसने वाली परिस्थितियाँ पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति वायु का दबाव अन्तरिक्ष का तापमान उत्पन्न करता है। हम भी उन्हें बरसने के लिए आमंत्रित करते हैं। अग्निहोत्र यदि विधिवत किया जाय तो उसका परिणाम भी वैसा ही होता है।