ज्ञानेन्द्रियों की देव शक्तियाँ

August 1987

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देवताओं की संख्या 33 कोटि मानी गई है। कोटि का अर्थ श्रेणियाँ भी होती हैं और करोड़ भी। हो सकता है कि दिव्य मानवों की, भारतीय नागरिकों की संख्या कभी तैंतीस करोड़ रही हो। बृहत्तर भारत की परिधि में जम्बू द्वीप आता है, जिसे वर्तमान एशिया के समान ही माना जा सकता है। इतनी परिधि में इतने सभ्य, शालीन लोगों का निवास होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। दूसरा अर्थ यह हो सकता है कि देवमानवों के 33 स्तर एवं कार्य क्षेत्र रहे हों। श्रेष्ठताएँ अनेक प्रकार की हो सकती हैं। प्रतिभा के स्तर भी अनेकानेक हैं। सेवा के कार्यक्षेत्र भी अनेक प्रकार के हैं। इनमें से 33 को प्रमुख माना गया हो, यह भी माना जा सकता है।

उपरोक्त प्रकार के सभी देवों में पाँच प्रमुख माने गये हैं। इन्हें ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश और सूर्य माना गया है। सम्पदा, विद्या, बलिष्ठता, प्रतिभा एवं कला को देवियाँ माना गया है। पंच देवों में पंच तत्व, पंच प्राण, पाँच कोश भी गिने जाते हैं। ज्ञानेन्द्रियों की गणना भी पंच देवों में है। वे सामान्यतया रूप, रस, शब्द, गंध, स्पर्श की जानकारियाँ देती हैं। उनका सामान्य विकास इतना ही होता है, जितना कि दैनिक जीवन में प्रयोग होता है। शेष शक्ति निष्क्रिय, रहने के कारण प्रसुप्त स्थिति में पड़ी रहती है। फिर भी मृत नहीं होती। प्रयत्न करने पर उसे अभीष्ट स्तर तक जगाया जा सकता है। असाधारण स्तर तक सक्षम बनाया जा सकता है।

जिव्हा का सामान्य कार्य चखना और बोलना है। चखने में विकृत स्वाद ही उसके पल्ले बाँधा गया है। मसाले, मिठाई, चिकनाई उस पर एक व्यसन बनकर नशे की तरह चढ़ गये हैं। चटोरपन की आदत के कारण वह आवश्यकता से कहीं अधिक मात्रा में अभक्ष्य खाती पीती रहती है। फलतः वह मौलिक क्षमता नष्ट हो जाती है, जिसके आधार पर चखने मात्र से पदार्थों के गुणों को जाना जा सकता है, जिनका विवेचन, विश्लेषण और वर्गीकरण हो सकता है। कोई समय था जब वनस्पतियों और कन्दमूल, फलों के गुणों का विश्लेषण किया गया था कि किस-किस मात्रा में किस प्रकार प्रयुक्त करके क्या प्रतिफल पाया जा सकता है। मुख एक अच्छी खासी प्रयोगशाला का काम करता है। चबाता और उदरस्थ करने का काम तो करता ही है साथ ही चखने मात्र से यह भी जान लेता है कि किस पदार्थ में क्या रसायन, किस अनुपात में मिले हुए हैं। उनका किस प्रकार किस निमित्त क्या उपयोग होना चाहिए? किन्तु अब उसकी वह क्षमता नष्ट हो गई। मात्र चबाने, निगलने भर के लिए ही उसका प्रयोग होता है। अविवेकी, अनाचारी परीक्षक की तरह वह स्वाद की रिश्वत लेकर उन वस्तुओं को भी पेट के भीतर तक पहुँचने देती है जो स्वास्थ्य की दृष्टि से तो सर्वथा अहितकर हैं पर वेश्या के रूप की तरह आकर्षक लगते हैं और जादू चलाकर सर्वनाश के लिए सहमत करते हैं।

वाणी की कर्कशता, छलना, धूर्तता किस प्रकार लोगों को जाल में फँसाती, किस प्रकार दिग्भ्रान्त करके कहीं से कहीं पहुँचाती है, यह भी किसी से छिपा नहीं है। मिथ्याचार, मायाचार का प्रपंच वाणी द्वारा ही रचा जाता है। ऐसा प्रयोग होते रहने से उसकी प्रभाव शक्ति नष्ट हो जाती है। मात्र कर्ण प्रिय लगने वाले विष घोलती रहती है। असत्य और प्रपंच उसका स्वभाव बन जाता है। फलतः बोलने पर भी दूसरों का विश्वास एवं सहयोग प्राप्त कर सकना संभव नहीं हो पाता। कुमार्गगामी मार्गदर्शन करके अनेकों को वह अनाचारी बनाती रहती है। स्वार्थ साधने के लिए अनेकों का अनेक प्रकार अहित करती रहती है।

जिव्हा का संयम यदि साधा जा सके तो उसके चमत्कारी प्रतिफल नकद धन की तरह हाथों हाथ परिलक्षित होते दीख पड़ सकते हैं। अस्वाद व्रत की साधना बन पड़े तो चटोरपन की नशेबाजी वाली लत छूट सकती है और भक्ष्य अभक्ष्य का बोध फिर से वापस लौट सकता है। इस आधार पर न केवल भोजन की मात्रा और सुव्यवस्था चल पड़ेगी वरन् बिगड़ा हुए स्वास्थ्य चल पड़ेगी वरन् बिगड़ा हुआ स्वास्थ्य भी सुधर जायगा। पेट पर अनावश्यक भार न पड़े तो समझना चाहिए कि अस्वस्थता की समस्या का आधा समाधान निकल आवेगा। निरोगता और दीर्घ जीवन परस्पर मिले हुए है। जिव्हा की दूसरी साधना है-मौन। नित्य दो घण्टे सुविधा के समय पर मौन रहने की आदत डालनी चाहिए। इस व्रत के समय लगातार यह ध्यान रखना चाहिए कि अनावश्यक रूप से वाक् शक्ति का उपयोग नहीं करना चाहिए। बहुत बक-झक करने वाले को लवार समझें। उनकी बात में आत्मश्लाघा परनिंदा, चुगली आदि अनौचित्य भरे रहते हैं। इससे वाणी का प्रभाव चला जाता है। विश्वसनीयता और प्रामाणिकता घटती है। समय और शक्ति का अपव्यय होते रहना तो स्पष्ट ही है। अभ्यास यह किया जाना चाहिए कि आवश्यक वार्त्तालाप ही किया जाय। सम्भाषण में अपनी विनम्रता और दूसरों की प्रतिष्ठा का पुट समुचित मात्रा में लगाया जाय। जो भी कहा जाय वह आदर्शवादिता का पक्षधर होना चाहिए। परामर्श प्रतिपादन सभी ऐसे होने चाहिए जो इस कसौटी पर खरे उतरें। इस प्रकार मर्यादाओं का निर्वाह करते हुए जो बोला जाता है वह व्यावहारिक मौन की मर्यादाओं के अंतर्गत ही आता है। यह वाणी का तप है। ऐसी सधी गई वाणी प्रभावशाली होती हैं वह मात्र कानों की सरसता बन कर नहीं रह जाती वरन् मस्तिष्क एवं हृदय की गहराई तक पहुँचकर शब्द बेधी बाण की तरह अचूक निशाना साधती और अभीष्ट परिणाम उत्पन्न करती है। सत् ऋत् हित् मित् यह वाणी के चार गुण है। सत्य ही बोला जाय। कल्याणकारी बोला जाय। सीमित बोला जाय। आदर्श युक्त बोला जाय तो समझना चाहिए कि वह सम्भाषण भी मौन साधना में सम्मिलित होकर रह रहा है। ऐसी परिशोधित वाणी शाप और वरदान देने की सामर्थ्य रखती है। उसके कथन सत्य होकर रहते हैं। मस्तिष्कीय विचार उच्चस्तरीय रहते हैं। और भावनाओं, आस्थाओं, आकाँक्षाओं का स्तर ऊँचा उठाते हैं।

अन्य प्राणी वाणी का उपयोग उद्देश्यपूर्ण प्रयोजनों के लिए ही करते हैं। इसलिए वे भले ही कम बोलते हैं, पर जितना भी बोलते हैं, उससे सम्बद्ध समुदाय को महत्वपूर्ण सूचनाएँ देते हैं। आवश्यक आदान-प्रदान करते हैं। उनका शब्द भण्डार सीमित रहते हुए भी उतना काम चला लेते हैं जितना कि सभ्य समुदाय के लोग परस्पर आवश्यक वार्त्तालाप करके निकलते हैं। अपनी जिव्हा सधी हुई हो तो उसका प्रभाव निकटवर्ती कर्णेन्द्रिय पर भी पड़ता है। दोनों के संयोग से अन्य वाणियों की अनगढ़ भाषा होने पर भी उनका अभिप्राय समझ की विशिष्टता से हस्तगत होते हैं। मनुष्य का साथ न रहने पर भी वे निकटवर्ती अन्य प्राणियों के साथ विचार विनियम करते रह सकते हैं। वे आपस में क्या कह सुन रहे हैं, इसका अनुमान लगा सकते हैं। इस प्रकार सुनसान भी उनके लिए अच्छे खासे मनोरंजन की आवश्यकता पूरी करता रहता है। इस आधार पर ज्ञान सम्पदा का दायरा तो विस्तृत होता ही है।

त्वचा इन्द्रिय की सक्षमता भी अन्य किसी ज्ञानेन्द्रिय से कम नहीं है। अन्य इन्द्रियों का आकार तो थोड़ा-थोड़ा ही होता है। त्वचा तो समूचे शरीर में लिपटी हुई हैं। इसके ज्ञान तन्तु साधारणतया स्पर्श का ही भान कराते हैं, छूकर किसी वस्तु का आकार वजन, ताप आदि की मोटे रूप में जाना जाता है, पर उसकी क्षमता इतनी सीमित है नहीं।

त्वचा में विद्युत प्रभाव निकलता है। जो शरीर के चारों ओर एक आभा मण्डल बना लेता है। यह आभा मण्डल समीप आने वालों को अपनी ओर खींचता है और उन्हें प्रभावित भी करता है। जिनने हिप्नोटिज्म विज्ञान की अतिरिक्त जानकारी प्राप्त की है, वे जानते हैं कि किस प्रकार शारीरिक विद्युत अपने क्षेत्र को प्रभावित करती है और किस प्रकार समीपवर्ती वातावरण में संव्याप्त रहस्यों को खोज निकालती है? मनुष्य के समूचे शरीर को ही एक सचेतन चुम्बक माना गया है। उसकी मात्रा चेहरे पर विशेष रूप से दीख पड़ती है। इसे सौंदर्य से भी आगे बढ़ी हुई क्षमता ओजस्, तेजस् कहा जाता है। सुन्दरता का आधार तो मात्र चमड़ी का रंग और चेहरे के साथ जुड़े हुए कान, आँख, होठ, गाल आदि की प्राकृतिक बनावट भर से संबंधित है। किन्तु यदि यह सारी बनावट सही होने पर भी स्फूर्ति, जागरुकता, प्रभावोत्पादक आकर्षण न हो, उत्तेजना देने वाली तरंग न उभरती हों तो समझना चाहिए कि बनावट सही होने पर भी स्फूर्ति, जागरुकता, प्रभावोत्पादक आकर्षण न हो, उत्तेजना देने वाली तरंग न उभरती हों तो समझना चाहिए कि बनावट सही होने पर भी चेहरे पर मुर्दनी छाई रहेगी और वह सौंदर्य किसी को प्रभावित न कर सकेगा। इसके विपरीत यदि बनावट साधारण सी हो, त्वचा काली हो, फिर भी ऐसा पाया जाता है कि प्रतिभा ओजस्विता चेहरे पर छाई रहती है और वजनदार व्यक्तित्व का परिचय देती है। यह सब त्वचा से बाहर निकलने वाले विद्युत चुम्बकत्व का प्रभाव है। इसकी मात्रा प्रकृत रूप से न्यूनाधिक हो तो उसे साधना द्वारा बढ़ाया भी जा सकता है।

त्वचा कितनी संवेदनशील है, इसका थोड़ा परिचय जननेन्द्रिय के स्पर्श या घर्षण से सहज पता चलता है। जंगलों में गरदन के दायें बायें उँगली फिरवाने पर गुदगुदी का अनुभव होता है। स्तर, कपोल, टुण्डी, होंठ आदि की त्वचा भी अधिक संवेदनशील होती है। दुलार मनुहार से इन अंगों का स्पर्श अनायास ही उत्तेजना उत्पन्न करता है। यह स्वाभाविक प्रकरण हुआ। साधना विज्ञान के आधार पर समूची त्वचा को संवेदनशील, प्रभावशाली और चमत्कारी बनाया जा सकता है। उसका स्पर्श दूसरों को कराने से उन्हें सत्संग शक्तिपात जैसा लाभ दिया जा सकता है। महाप्रभु ईसा अपना हाथ रोगियों के शरीर तथा अंगों पर फिराते और उनके रोग निवारण किया करते थे। ऐसी विलक्षणता अन्य जैव विद्युत के धनी लोगों की त्वचा में भी पाई जाती है।

कीट पतंग तथा छोटे पक्षी अपने समूचे शरीर को ही समग्र इन्द्रिय शक्ति से भरपूर रखते हैं। केंचुए की मुँह के अतिरिक्त अन्य कोई इन्द्रिय नहीं होती, पर वह मात्र त्वचा के सहारे उन सब प्रयोजनों की पूर्ति कर लेता है, जो मनुष्य अपनी सभी ज्ञानेन्द्रियों के समूह द्वारा प्राप्त करता है। चमगादड़ में त्वचा की संवेदनशीलता बढ़ी-चढ़ी मात्रा में पाई जाती है। वह घने अंधकार के बीच पतले बिजली के तारों के बीच जहाँ थोड़ी जगह पाती है वहीं बिना कोई जोखिम उठाये सहज पार करती रहती है। इसी प्रकार अन्य रेंगने वाले कीड़े भी स्पष्टतः ज्ञानेन्द्रियों से रहित होते हैं, फिर भी उनकी त्वचा में रहने वाली संवेदनशीलता उन समस्त प्रयोजनों की पूर्ति करती रहती है जो बड़े प्राणियों में विकसित इन्द्रिय समूह के द्वारा ही बन पड़ता है। मनुष्य भी यदि चाहे तो अपनी उपेक्षित पड़ी रहने वाली त्वचा को मात्र पसीना निकालने वाली विसर्जन इन्द्रिय से आगे बढ़ाकर और अनेकों उपयोगी प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त हो सकने जैसे स्थिति में विकसित कर सकता है।

नाड़ी परीक्षा, जिव्हा परीक्षा, नेत्र परीक्षा, नाखून परीक्षा, हस्त रेखा, पैर रेखा आदि को देखकर वैद्य एवं सामुद्रिक ज्ञाता मनुष्य के संबंध में बहुत कुछ बता सकते हैं, यदि सूर्य विज्ञान द्वारा त्वचा की विद्युत शक्ति को अधिक बढ़ाया जा सके तो वह इतनी अधिक शक्ति सम्पन्न हो सकती है कि वह अकेली ही पाँचों ज्ञानेन्द्रियों की संयुक्त भूमिका निभा सके।


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