स्वर्णिम सविता की ध्यान-धारण

August 1987

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मन की शक्ति अपार है। व्यावहारिक जीवन में प्रायः उसका 7 प्रतिशत ही काम में आता है। शेष 93 प्रतिशत प्रसुप्त स्थिति में ही पड़ा रहता है। जो अवयव काम में नहीं आते वे निष्क्रिय रहने पर जंग खाये चाकू की तरह पक्षाघात पीड़ित की तरह निरर्थक हो जाते हैं। अपंग जैसी स्थिति में रहने लगते हैं। मस्तिष्क के संबंध में भी यही बात है। दैनिक क्रिया-कलाप में जिन घटकों से काम लिया जाता है, उन्हीं में जागृति एवं सक्रियता बनी रहती है। काम न मिलने पर हिम प्रदेश के भालुओं और सर्पों की तरह वे निद्राग्रस्त हो जाते हैं। मनःक्षेत्र के अनेकानेक घटकों के संबंध में भी यही बात लागू होती है। यदि अपेक्षाकृत अधिक क्षेत्रों को क्रियाशील रखा जा सका होता तो मनुष्य बौद्धिक दृष्टि से असामान्य स्थिति तक पहुँचा होता। उस विकास का प्रभाव समूचे जीवन पर पड़ता। प्रगति हर प्रयोजन में परिलक्षित होती। विशेषतया मनःसंस्थान तो उतना समुन्नत होता कि वह अतीन्द्रियातीत क्षमताओं से सुसम्पन्न होता और दिव्य ज्ञान के आधार पर इतना कुछ कर सकता जितना सौ बुद्धिमान मिल कर भी नहीं कर सकते।

शरीर और मस्तिष्क अनेकानेक अदृश्य घटकों से मिलकर बने हैं। उनके समूह समुच्चय अपना-अपना क्षेत्र सँभालते हैं और प्रत्यक्ष अंग-अवयवों के रूप में काम करते हैं। यों कहने को तो समस्त घटकों का परिपोषण संचालन कर सकने की क्षमता रक्त द्वारा सम्पन्न होती समझी जाती है, पर वस्तुतः उनकी हलचलें उन ज्ञान तन्तुओं द्वारा होती हैं जो मस्तिष्क के साथ जुड़े हुए हैं। मस्तिष्क के सक्रिय केन्द्र इन ज्ञान तंतुओं के माध्यम से समस्त शरीर के साथ संबंध जोड़े रहते हैं और जानकारियों का आदान-प्रदान करते रहते हैं। रक्त की न्यूनता एवं अशक्तता होने पर अवयव कुपोषण के शिकार होते हैं और रुग्णता तथा अकाल मृत्यु की दिशा में चलने लगते हैं, किन्तु जैव ऊर्जा का प्रभाव इससे भी अधिक है। जीवनी शक्ति रक्त में पाई तो जाती है, पर उस पर निर्भर नहीं है। वह स्वतंत्र है, तथा काय कलेवर से नहीं चेतना से उद्भूत होती है। चेतना से मनःसंस्थान का जितना क्षेत्र ज्वलन्त होता है उसी अनुपात से शरीर में जीवनी शक्ति, कोमलता, सुन्दरता बनी रहती है। निरोधक शक्ति की बहुलता होने पर रोगों का आक्रमण भी सफल नहीं होती। जीवट वाले व्यक्ति महामारियों में भी निरन्तर सेवा कार्य करते रहते हैं, किन्तु स्वयं उससे प्रभावित नहीं होते। यह मनोबल की प्रखरता है, जो अंग अवयवों को सुरक्षित रखे रहती है। बहुमुखी सफलताएँ इसी पर निर्भर रहती हैं।

कायिक घटकों को रक्त का पोषण ही नहीं मनोबल की वह विशिष्टता भी चाहिए जिसे जीवनी शक्ति कहते हैं। जिस प्रकार पोषण रक्त पर आश्रित हैं, उसी प्रकार प्रतिभा समेत जीवट के अनेक पक्ष मनःसंस्थान से उभरते तथा गतिशील होते हैं। प्रश्न यह है कि प्रचुर परिमाण में जैव ऊर्जा की समुचित मात्रा में उपलब्धि कैसे हो? प्रसुप्त निष्क्रिय कोष्ठकों को जागृत कैसे किया जाय? रहस्य भरी अदृश्य शक्तियों की चमत्कारी विशेषताओं से लाभान्वित कैसे हुआ जाय? उन्हें प्रखर प्रचण्ड कैसे बनाया जाय?

सोये व्यक्ति को झकझोर कर जगाया जाता है। निस्तब्ध पड़े घड़ियाल को घंटा मारकर झनझनाया जाता है। दबा खजाना खोदने के लिए कुदाल चलाया जाता है। विकृत-विक्षिप्त मस्तिष्क को बिजली का झटका दिया जाता है। इसी प्रकार शरीर के किसी अंग अवयव को विशेष रूप से सक्रिय समर्थ बनाना है, तो उसे किसी समर्थ उपकरण के सहारे हिलाया जुलाया, उठका, पटका जाता है। ऐसे उपकरण की भूमिका कौन निभाये? कैसे निभे? इसका सुनिश्चित उत्तर एक ही है कि मानसिक ऊर्जा का एक सघन समुच्चय एकत्रित किया जाय और इस योग्य बनाया जाय कि वह तिलमिलाने वाला प्रहार कर सके। इस उपलब्धि को हस्तगत करने का एक ही उपाय है। एकाग्रता और भाव निष्ठा सम्पन्न ध्यान।

आतिशी शीशे पर सूर्य किरणें एकत्रित की जायं तो उसका केन्द्र बिन्दु देखते-देखते अग्नि उगलने लगता है। बन्दूक दागने पर कारतूस की गोली कितनी तीव्र गति से उड़ती और कठोर लक्ष्य को बेधती है। यह सर्वविदित है।

सूर्य की किरणों की भाँति मानसिक शक्तियाँ भी बिखरी रहने के कारण अपना प्रभाव अतिस्वल्प मात्रा में ही पृथ्वी पर बिखेर पाती हैं। यह बात विचार शक्ति के बारे में भी हैं, वह अनेक क्षेत्रों की अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति में नियोजित रहती है। इसे एकत्रित कर लिया जाय तो उसकी मूल शक्ति असाधारण रूप से शक्तिशाली हो जाती है। भाप के संबंध में भी यही बात है। सामान्यतया पानी गरम होकर हवा में उड़ता रहता है और उसका किसी को भी पता नहीं चलता, किन्तु जब उसे रेल इंजन के पिस्टन के साथ जोड़ दिया जाता है, तो बड़ी तादाद के माल के डिब्बों को घसीटती हुई वही भाप कहाँ से कहाँ पहुँचती है? प्रेशर कूकर इसी भाप के दबाव से घंटों में बनने वाला भोजन मिनटों में पका देती है। कल्पना शक्ति की क्षमता के संबंध में भी यही समझा जाना चाहिए। उसे बिखेरते रहने वाले लोग अति बुद्धिमान होते हुए भी अस्त-व्यस्त रहते हैं और जीवन भर में कोई महत्वपूर्ण कार्य कर नहीं पाते। किन्तु जो एकाग्रता साधने में समर्थ होते हैं, वे वैज्ञानिक, विद्वान, कलाकार, दार्शनिक कुशल शिल्पी, बनकर दिखा देते हैं। हमें एकाग्रता की महत्ता समझनी चाहिए और कछुए खरगोश की दौड़ वाली कहानी याद रखनी चाहिए, जिसमें मंद गति वाला कछुआ नियत लक्ष्य तक पहुँच कर बाजी जीत गया था, जबकि द्रुतगामी खरगोश अपने मन को जहाँ-तहाँ उलझाये रहने के कारण पिछड़ गया था। प्रत्यक्ष जीवन की सफलता का यही आधार है और यही आत्मिक उत्कर्ष का भी।

विचारों की एकाग्रता साधने का सरल और प्रभावी उपाय ध्यान है। ध्यान में केन्द्रीकरण के लिए कोई छवि निर्धारित करनी पड़ती है। ऐसी वस्तु जो आकर्षक भी हो और गुणवत्ता से भरपूर भी। सुन्दरी युवतियों की ओर अनायास ही ध्यान खिंच जाता है और उनकी छवि तथा भंगिमा के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगता है। यही बात ध्यान इष्ट के संबंध में है। उस निर्धारण से पूर्ण लक्ष्य पर गरिमा, महत्ता एवं चयन का आरोपण करना पड़ता है। यही सिद्धान्त सभी देवी-देवताओं के संबंध में लागू होता है।

सार्वभौम ध्यान के लिए प्रकाशपुँज प्रभात कालीन स्वर्णिम सूर्य सविता का चयन करना अति उत्तम एवं निर्विवाद है। जिन देवताओं की कथा गाथा होती है, उसके इतिहास में कितने ही उत्साहवर्धक तथ्य रहते हैं, तो कई खोट भरे भी। ध्यान के कारण वह सभी भलाइयाँ बुराइयाँ साधना पर सवार होती हैं, इसलिए अन्य देवता संदेहास्पद भी हों, तीखी समालोचना से उनके चरित्र एवं स्वभाव में ऐसी अवाँछनीयता भी सन्निहित रहती है जो साधक पर भी श्रेष्ठताओं के साथ-साथ हावी होती चली जाती है। इस दृष्टि से सूर्य सर्वथा दोष रहित है। उसमें गुण ही गुण है। साथ ही शक्ति का भण्डार एवं आकर्षक सुन्दरता से भरा-पूरा भी उसे समझा जा सकता है।

सविता गायत्री का अधिष्ठाता है। उसके द्वारा प्राण शक्ति का उद्भव और वितरण होता है। इसी कारण वह प्राणियों का-वनस्पतियों का-जन्मदाता माना जाता है। प्रकाश वितरण करने, चर्मचक्षुओं को दृश्य देखने और चक्षुओं को दिव्य दृष्टि से भरने का अनुदान प्रदान करता है। उसे निरन्तर निस्वार्थ विश्व में निरत देखा जाता है। अनुशासन का धनी है। समय साधना की दृष्टि से उसे आदर्श एवं अनुकरणीय माना जा सकता है। तेजस्विता उसकी विशिष्टता है। इन्हीं सब विभूतियों को ध्यान धारणा द्वारा आकर्षित और अन्तराल में प्रतिष्ठित किया जा सके तो समझना चाहिए कि साधक की सर्वतोमुखी प्रगति का द्वार खुल गया। जिस उद्देश्य के लिए ध्यान किया जाता है उस गन्तव्य तक पहुँचने का राजमार्ग मिल गया।

प्रभात काल के उदीयमान सूर्य में कुछ समय तक स्वर्णिम आभा रहती है। वही नेत्रों के लिए सह्य भी है। आरम्भ में तनिक देर आँखें खोलकर उसे देखना और फिर तुरन्त ही पलक बन्द कर लेना चाहिए। सूर्य के अभाव में दीपक की लौ को देखने से भी काम चल सकता है। दोनों ही त्राटक साधना के अंतर्गत आते हैं। खुले नेत्रों से प्रकाश को देखने की अवधि न्यूनतम होनी चाहिए। एक पल झाँकी भर। इसके उपरान्त पलक बंद लेने चाहिए और उस प्रकाश पुंज की मानसिक अवधारणा करनी चाहिए। कुछ दिन के अभ्यास से सूर्य को या दीपक को खुले नेत्रों से देखने की आवश्यकता नहीं पड़ती, यह ध्यान स्वाभाविक हो जाता है और अनायास ही होता रहता है। उस समय सविता मंत्र का भी स्वचालित जप होता रहता है। प्राणयोग की ‘सोऽहम्’ साधना में श्वास-प्रश्वास के साथ निरन्तर चलते रहने की आदत स्वभाव का अंग बन जाती है।

प्रकाश पर संयम किया गया विचारों का एकत्रीकरण दोनों उपचारों के कारण एक विशेष शक्ति से सुसम्पन्न हो जाता है, उससे अन्तःक्षेत्र की दिव्य शक्ति का आविर्भाव होता है। इसका मनःक्षेत्र के किसी भी शक्ति केन्द्र पर आरोपण किया जाय तो वह प्रसुप्त अवस्था में न रहकर जागृत होने लगता है। इस जागृति का तात्पर्य है एक अतिरिक्त शक्ति की उपलब्धि हस्तगत होना। इस प्रयोग को शरीर के किसी अवयव पर या शक्ति केन्द्र चक्र, गुच्छक पर, उपत्यिका परिकर पर केन्द्रित किया जा सकता है। टार्च की रोशनी जिस स्थान पर पड़ती है वह परिधि चमकने लगती है। ठीक इसी प्रकार प्रकाश युक्त ध्यान को जिस भी स्थान के लिए जोड़ा जाता है। वहाँ अभिनव हलचल चल पड़ती है। कील ठोकने पर जिस पर छेद होता है उसकी नीचे की परतों में दबा हुआ पदार्थ ऊपर उछल कर आ जाता है, उसी प्रकार यह ध्यान धारणा भी फलित होती है। ऑपरेशन करने पर मवाद बाहर निकल पड़ता है। मधुमक्खी के छत्ते में नली डालने पर शहद टपकने लगता है। उसी प्रकार प्रकाश से समाहित एकाग्रता को किसी क्षेत्र पर आरोपण करने से कील ठोकने जैसी प्रतिक्रिया होती है। उससे भरी हुई अवाँछनीयताओं का आपरेशन की तरह निष्कासन होता है। साथ ही वहाँ जो कुछ श्रेष्ठ प्रसुप्त स्थिति में पड़ा है, वह जागृत होकर अप्रत्यक्ष से प्रत्यक्ष स्तर पर आ जाता है। आगे का प्रश्न यह है कि ध्यान द्वारा उपलब्ध की गई बेधक दिव्य दृष्टि को किस स्थान पर किस प्रयोजन के लिए-कितनी मात्रा में नियोजित किया जाय। यह निर्णय करने से पूर्व यह जानना होता है कि स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर में किसी दिव्य शक्ति का केन्द्र कहाँ है और उसके साथ संबंध जोड़ने के लिए बेधक दृष्टि की किस मार्ग से कितने मोड़ मरोड़ों में होकर गुजरते हुए पहुँचा जा सकता है।

इतनी बारीकी में जा सकने की यदि सिद्धहस्त सर्जन जैसी योग्यता किसी अनुभवी या सान्निध्य प्राप्त करके जान सकना सम्भव नहीं तो फिर सीधा मार्ग है स्थूल शरीर की दिव्य क्षमताओं को जागृत करने के लिए नाभिचक्र के दिव्य कमल को ऊर्जा प्रदान करते हुए प्रस्फुरण सूक्ष्म शरीर का केन्द्र हृदय चक्र है और धारण शरीर की भाव संवेदनाओं का उद्गम मस्तिष्क मध्य में अवस्थित सहस्र दल कमल ब्रह्म चक्र। इनको झकझोरने से भी भौंरे की तरह दिव्य रस एवं दिव्य गंध जैसा अलौकिक आनन्द प्राप्त किया जा सकता है।


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