मनुष्य हाड़ माँस का पुतला भर दिखाई देता है। परन्तु 60 किलोग्राम औसत भार के इस शरीर में इतना कुछ विलक्षण भरा पड़ा है, जिसे निखार-उभार कर उस सामर्थ्य से असंभव दीख पड़ने वाले कार्य भी संभव कर दिखाये जा सकते हैं। मात्र उड़ने या कलाबाजी को ही सिद्धियां समझने वाले भूल जाते हैं कि मानव के अन्दर जीवट के रूप में, जुझारूपन एवं प्रतिकूलताओं से जूझने की अजेय सामर्थ्य के रूप में एक ऐसी विभूति विद्यमान है, जिसकी उपमा किसी और से नहीं की जा सकती। ऐसे ही नरपुँगव असाधारण पराक्रम करते एवं स्वर्णाक्षरों में अपना नाम इतिहास में अंकित करते देखे जाते हैं।
क्रेस्टेई (स्पेन) के एक सैनिक स्वेटो का जवानी के आरंभिक दिनों में अपनी प्रेमिका के साथ संबंध था। रिश्ता निभा नहीं और दोनों अलग हो गये। फिर भी उस योद्धा ने गले में एक लोहे का छल्ला अपनी बिछुड़ी प्रेयसी की स्मृति में पहने रक्खा। वह बाँका लड़ाकू था। उन दिनों भला प्रधान शस्त्र था। उसने 68 योद्धाओं के साथ 727 भाला आक्रमणों के प्रहार का सामना किया। हर संघर्ष में उसने अपने स्मृति चिन्ह पर आँच न आने देने के लिए भरपूर सावधानी बरती। अंतिम बार इस प्रक्रिया में वह इस बुरी तरह घायल हुआ कि उसके जीवित बचे रहने की कोई उम्मीद ही शेष नहीं रही; पर इसे उसकी उत्कट जिजीविषा ही कहनी चाहिए कि जीवन-मृत्यु के इस अद्भुत संघर्ष में उसने मौत को भी पछाड़ दिया और कुछ दिनों की चिकित्सा-परिचर्या के उपरान्त वह पुनः स्वस्थ हो गया।
इतिहास में ऐसे भी व्यक्ति हुए हैं जिन्होंने असाधारण साहसिकता का प्रदर्शन कर जीवन भर योद्धा की तरह जीवन जिया। परिस्थितियाँ उन्हें कभी भी झुका नहीं सकी।
फ्राँस के न्यूर्स प्रदेश का एक कप्तान मैलर मुस्टैमै जीवन भर युद्धों का अग्रिम मोर्चा सँभालता रहा। उसने 122 युद्धों में भाग लिया और प्रत्येक में कई-कई बार गंभीर घाव लगे। सभी का वह सामना करता रहा और अच्छा होता रहा। उसकी मृत्यु 134 वर्ष में हुई। अठारहवीं सदी में एक फ्राँसीसी जनरल के जीवन में भी ऐसी ही घटनाएँ घटी। वेपटिस्टे मान्टमारिन का जीवन अपने ढंग का अनोखा था। उन्होंने 20 वर्ष की आयु में सेना में प्रवेश लिया। 75 वर्ष की आयु होने पर सन् 1779 में मरे। इस बीच वे पूरे 55 वर्ष सेना के विभिन्न पदों पर काम करते रहे वे युद्ध मोर्चा पर पाँच बार भयंकर रूप से घायल हुए और मृतक घोषित किये जाते रहे। हर बार में कब्रिस्तान पहुँचने से पूर्व जी उठे। उनका सारा शरीर अनेकों ऑपरेशनों से बेतरह कटा-फटा था। उन्होंने मरने तक कभी भी हिम्मत नहीं हारी। उन्हें फ्राँस का राणा साँगा कहा जाये तो कोई अत्युक्ति न होगी।
आस्ट्रिया के एक जनरल काउन्ट एन्टम ने अपने देश की सेना में 47 वर्ष तक काम किया। इस बीच उन्होंने 89 लड़ाइयाँ लड़ीं। इनमें उन्हें 84 भयंकर और सैंकड़ों छोटे घाव लगे। उनकी मृत्यु युद्ध मोर्चे पर ही हुई। मरते समय उनके चेहरे पर कोई विषाद नहीं था। राष्ट्र के लिये संघर्ष करने-मरने-खपने वाले कभी अशांत स्थिति में शरीर नहीं छोड़ते।
समुद्र के आर्कटिक क्षेत्र में एक जहाज पोलरस बर्फ में जा फँसा और एक चट्टान से टकरा कर टूट गया। जीवित बचे 19 नाविकों ने एक बहते हुए हिम खण्ड पर सवारी गाँठी और मछलियाँ पकड़ते व खाते जाते। उसी चट्टान पर कई दिन काटते तथा आगे ढकेलते हुए बर्फ की चट्टान की नाव बनाकर वे 196 दिन में 1200 मील की यात्रा करके लैब्रैडोर तट पर पहुँचे और प्राण बचाने में सफल रहे बर्फ से आच्छादित उस हिम क्षेत्र में जहाँ प्राण वायु भी बड़ी दुर्लभता से उपलब्ध होती हैं, उन्हें भरपूर मात्रा में अन्तःशक्ति की प्रेरणा मिलती रही, मनोबल बना रहा एवं वे प्रतिकूलताओं से जूझते हुए राह बना सके।
ऐसे भी दुस्साहसी हुए हैं जिन्होंने वैज्ञानिक प्रगति के प्रारम्भिक दिनों में हवाई उड़ान से ध्रुवों की यात्रा की।
सन् 1783 में फ्रेंच वैज्ञानिक प्रो. एडविन चार्ल्स ने पहला गुब्बारा बनाया। इसके बाद उसकी क्षमता और आकृति में क्रमशः सुधार होता गया। उस समय के विकसित गुब्बारा जिसका नाम “जैपलीन” था को लेकर कुछ दुस्साहसी युवक “नौटिलस” नामक पनडुब्बी जहाज पर सवार हो उत्तरी ध्रुव की कठिन यात्रा के लिए चल पड़े।
उस योजना का संचालन किया जर्मन डॉ. उल्सवीन ने। जैपलीन में कुल 56 आदमी सवार थे-40 चलाने वाले और 16 अनुसंधान करने वाले। गुब्बारा एक छोटे फुटबाल मैदान के बराबर था और गिरजाघर जैसा ऊँचा जिसमें खटोले जैसी लटकनें थीं, यात्री उन्हीं पर बैठते थे।
लेक काँसटैंस से उड़कर वह गुब्बारा जर्मनी, स्वीडेन, एस्थोनिया, फिनलैण्ड, रुस की सीमाएँ पार करते हुए ध्रुव प्रदेश पर पहुँचा। एल्फोरा अन्तरीम से लेकर सुविस्तृत ध्रुवीय क्षेत्र पर उड़ानें भरी और चित्र-विचित्र फोटो लिए। लगभग एक सप्ताह तक वह गुब्बारा उड़ा और पनडुब्बी को उससे भी अधिक समय लगाना पड़ा। उस प्रारम्भिक साहस भरी यात्रा से अर्जित उपलब्धियाँ श्रेय की उतनी ही अधिकारी हैं जितनी कि आज के कम्प्यूटर युग की।
जुलाई 1957 का एक प्रसंग है। पैराट्रुपर-विंग (जर्मनी) के कमाँडर लै. कुर्त एंजील ने जहाज से उड़ान भरी। दुर्भाग्यवश विमान में आग लग गयी। 1500 फीट ऊँचाई से गिर एंजील का पूरा शरीर चकनाचूर हो गया। अस्पताल में हुये परीक्षणों के उपरान्त डॉक्टरों ने घोषणा की कि अब उन्हें बचा सकना बिल्कुल संभव नहीं है। इतनी असह्य पीड़ा में भी उनने हिम्मत न हारी। एंजील ने चिकित्सकों के सामने बड़े साहस एवं विश्वास के साथ कहा-”मैं मर नहीं सकता। अभी मुझे बहुत काम करने हैं। आप सभी अपना कर्त्तव्य पूरा करें।” दो महीने बाद जब अपनी पूर्व स्थिति में आ पहुँचे तो चिकित्सकों ने उनकी जिजीविषा एवं साहस की भूरि-भूरि प्रशंसा की। व्यक्ति स्वयं अपने हाथों मौत भी बुला सकता है एवं प्रचण्ड मनोबल के सहारे उसे परे भी भगा सकता है, इसका यह एक जीवन्त उदाहरण है।
सन् 1965 की एक घटना है। अमेरिका का एक हवाई जहाज समुद्र की उड़ते हुए आग लगने के कारण जल गया। उसका पायलट समुद्र में कूद पड़ा। इतनी ऊँचाई से कूदने और समुद्र के जल पर गिरने के कारण उसे चोट भी आयी। फिर भी बिना घबराये वह तैरता रहा और बुरी तरह चोट खाये शरीर को खींचता-खाँचता 40 घन्टे तक अविराम तैरते हुए किनारे पहुँचा। किनारे पहुँचने पर कुछ लोगों ने उसे देखा तो अस्पताल में भरती कराने ले गये। इतनी अस्वस्थ और आहत दशा में जब लोग उसे इमर्जेंसी वार्ड में सर्जरी हेतु ले गये तो जैसे ही सुरक्षा के प्रति उसका मन आश्वस्त हुआ, शरीर की जागृत और सक्रिय शक्तियाँ पूर्व स्थिति में जा पहुँची और निमोनिया, थकान, चोटों के दर्द और भूख के कारण वह बेहोश हो गया। उसकी हालत शारीरिक दृष्टि से इतनी गंभीर थी कि डॉक्टरों ने उसके अब तक बचे रहने पर आश्चर्य व्यक्त किया। पायलट जब वैसी परिस्थितियों में नहीं मरा तो अस्पताल में भर्ती हो जाने पर तो उसकी मृत्यु हो जाने का कोई प्रश्न ही नहीं था। वह जीवित भी रहा तथा स्वस्थ होने पर पुनः उड़ान भरने लगा।
कभी-कभी अनायास छोटी-सी काया में अपरिमित सामर्थ्य न जाने कहाँ से उद्भूत होने लगता है व उस कार्य को करने पर व्यक्ति स्वयं आश्चर्यचकित हो उठता है। विगोरीज, फ्राँस के एक शिकारी बैरन क्रिस्टोफरसन के घोड़े की टाँग आखेट की उछल कूद में टूट गई। घोड़े की उस दयनीय स्थिति में छोड़ना क्रिस्टोफर ने उचित न समझा। उसने 425 पौण्ड भारी घोड़े को कँधे पर उठाया और डेढ़ मील की दूरी तक उतना भार वहन करते हुए उसे पशु-चिकित्सालय तक पहुँचा। अपने भारवाहक के प्रति सहानुभूति ने ही उसके अंतः के साहस बल को उभारा और उससे यह पुरुषार्थ सम्पन्न करा डाला।
इटली के एक प्रमुख शहर गिएरुपे में फिनोज पी वेग नामक फोरमेन बारूद के एक कारखाने में काम करता था जहाँ धातुओं की परतों में बारूद के मिश्रण से छेद किये जाते थे। फिनोज पी वेग एक बरमे के पास जो कि चार फीट लम्बा और तेरह पौंड वजन का था, काम कर रहा था। अचानक कोई खराबी के कारण बरमा बड़े जोर से उचटा और वेग की आँखों के नीचे के भाग को छेदकर मस्तिष्क की हड्डियों को तोड़ता हुआ बाहर निकल गया। उसे अचेत अवस्था में ही एक मील दूर अस्पताल ले जाया गया, जहाँ चिकित्सकों ने उसकी मरहम पट्टी बड़ी ही निराशा से की क्योंकि वेग के बचने के कोई आसार उन्हें दिखाई नहीं दे रहे थे। किन्तु रात के दस बजे जब वह होश में आकर बातें करने लगा तो चिकित्सकों ने पूरे मनोवेग से उसकी चिकित्सा करना प्रारम्भ किया और तीन माह में ही वह पूर्ण स्वस्थ होकर घर चला गया।
चिकित्सकों की अंतिम रिपोर्ट आज के मूर्धन्य चिकित्सकों के लिये अध्ययन व आश्चर्य का विषय है। हावर्ड मेडिकल कॉलेज में वेग की टूटी खोपड़ी के अस्थि खंड व पदार्थ, कागजात व वह बरमा भी सुरक्षित रखा है जो कि वेग की खोपड़ी का तोड़ता हुए निकल गया था। शरीर विज्ञानियों को सहसा विश्वास नहीं होता कि इतने भयानक मस्तिष्कीय आघात के बाद भी कोई व्यक्ति जीवित रहकर भी अपना सामान्य जीवन क्रम चला सकता है।
साहस ने प्रसंगों की शृंखला में एक सन् 1891 की घटना है। एक अंग्रेज मछुआरा अपने दल-बल के साथ एक विशालकाय ह्वेल मछली का, जोकि आकलेंड द्वीप के पास दिखाई दी थी, शिकार करने की चेष्टा करने लगे। दो नावों पर सवार मछुओं ने उस पर भाले से आक्रमण किया। ह्वेल ने पलटा खाया तो एक नाव उसकी पूँछ के नीचे आ गई और एक नाविक डूब गया। दूसरे जेम्स वर्टली ने अपना मनोबल नहीं खोया। उसने अपने जेब से शिकारी चाकू को प्रयत्न करके निकाला और पेट में जकड़े रहने पर भी उसने मछली के पेट को काटना प्रारम्भ किया। कुछ घंटों के परिश्रम के बाद वह सफल हुआ। दो दिन बाद उसे नाविकों ने अचेत अवस्था में समुद्र की सतह पर से निकाला और अस्पताल पहुँचाया। जहाँ चिकित्सकों के तीन सप्ताह के प्रयास के बाद उसकी बेहोशी टूटी। मछली के पेट में उसका शरीर बुरी तरह क्षत विक्षत हो गया था, उसे सप्ताह के प्रयास के बाद उसकी बेहोशी टूटी। मछली के पेट में उसका शरीर बुरी तरह क्षत विक्षत हो गया था, उसे पूरी तरह स्वस्थ होने में दो महीने लगे। अपने धैर्य और मनोबल के कारण ही बर्टली जीवित ह्वेल के पेट में से जीवित निकल सका। प्रेस फोटोग्राफर्स व इंटरव्यू लेने वालों के लिये वह एक अजूबा बन गया था। उसने प्रमाणित कर दिखाया कि यदि संकल्प शक्ति हो तो किसी भी खतरे से निबटा जा सकता है। इतना ही नहीं, यदि व्यक्ति में जीने की अदम्य इच्छा हो, तो अपंग होने के बावजूद भी संकट कालीन घड़ी में उसमें इतनी शक्ति आ जाती है, कि वह विपत्ति से सफलतापूर्वक बच निकलता है।
‘न्यूयार्क टाइम्स’ ने कुछ वर्षों पूर्व न्यूयार्क शहर के ही एक ऐसे व्यक्ति का विवरण छपा था जो बुरी तरह बीमार था। उसका धड़ से नीचे वाला भाग पक्षाघात के कारण जड़ जैसा हो गया था। चलने फिरने में असमर्थ होने के कारण वह बिस्तर पर ही पड़ा रहता था। जब उसके मकान में आग लग गयी तो घर के अन्य लोग अपनी-अपनी जान बचाकर भागे इस भगदड़ में उस व्यक्ति का किसी को ध्यान ही नहीं रहा। मकान से बाहर निकल आने पर परिवार के लोगों को उसकी याद आयी लेकिन उस समय घर के लोगों सहित वहाँ उपस्थित सभी व्यक्ति यह देखकर दंग रहे गये कि लकवाग्रस्त मरीज भी आग की लपटों से जूझता हुआ दौड़ता चला आ रहा है। यह घटना सिद्ध करती है कि मनुष्य की मानसिक ही नहीं शारीरिक शक्तियाँ भी सामान्य अवस्था में प्रसुप्त ही रहती है, परन्तु चुनौतियाँ सामने आने पर उभर कर प्रगट होती है।
यह सारे उदाहरण इस बात का प्रमाण हैं कि यदि मनुष्य तनिक साहस से काम ले, तो वह प्रतिकूल परिस्थिति में भी ऐसे करतब दिखा सकता है, जो सामान्य स्थिति में किसी भी प्रकार सम्भव नहीं।
देखा जाता है कि बहुधा ऐसी परिस्थितियाँ आने पर मनुष्य हतप्रभ हो जाता है जो उसकी जान को संकट में डाल देता है। ऐसे में धैर्य रखा जाय एवं प्रत्युत्पन्न मति से काम लेते हुए जीवट को जगाया जाय तो उस छोटे से काय विद्युत के भण्डार से ही इतनी शक्ति ऊर्जा निस्सृत होने लगती है, जो अकल्पनीय है। व्यक्ति समष्टि का घटक है। उसके अन्दर विराट् का सारा वैभव निहित है। फिर वह क्यों कर साहस खोता, मनोबल गिराता एवं असफल होता है, सृष्टा का यह खेल समझ में नहीं आता?