‘कर्मफल और उसके परित्याग” सिद्धाँत की अपूर्णता

September 1985

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तत्व दर्शन के कुछ सिद्धान्तों की अनुपयुक्त व्याख्या करके उसे इस स्थिति में पहुँचा दिया गया है कि लोग उन्हें प्रगति के मार्ग में बाधक मानने लगे हैं और उन्हें तर्क विहीन तक कहने लगते हैं।

“इच्छाओं का परित्याग” एक ऐसा ही प्रसंग है जिस पर तत्व दर्शन में बहुत जोर दिया गया है और कामनाओं को छोड़ देने में मानसिक शान्ति या मोक्ष मिलने जैसे लाभों का दिग्दर्शन कराया गया है।

इस कथन का वह अर्थ नहीं है जो शब्द गठन के अनुरूप मोटी बुद्धि से लगाया जाता है। कामना त्याग का अर्थ यहाँ केवल इतना है कि भौतिक महत्वाकाँक्षाओं को लिप्सा तृष्णाओं को इतना न बढ़ने दिया जाय कि वे आकाश पाताल चूमने लगें और परिस्थितियों तथा योग्यता के साथ तालमेल न बिठाने दें। ऐसे व्यक्ति दिवा स्वप्नों को पूरा करने में जब असफल रहते हैं तो अत्यधिक निराश हो जाते हैं और अपना मनोबल एवं प्रयास ही गँवा बैठते हैं। अथवा अपराधी दुष्प्रवृत्तियों पर उतर आते हैं। अपने में से एक को अत्यधिक वैभववान् बनते देख कर लोग उनके पुरुषार्थ की सराहना करने के स्थान पर ईर्ष्या करने लगते हैं। इसके अतिरिक्त भी बढ़ी-चढ़ी सम्पन्नता से सामान्य जनों को विषमता की अनुभूति होती है और वे पुरुषार्थ की नकल न कर सकने पर वैभव प्रदर्शन का पाखण्ड रचते हैं और इसके लिए अनीति उपार्जन पर उतारू हो जाते हैं अथवा आँख में खटकने वाले को ही नीचे गिराने का प्रयत्न करते हैं। महत्वाकाँक्षी व्यक्ति निजी स्वार्थ साधना में इतना निमग्न हो जाता है कि उसे परमार्थ प्रयोजनों के लिए कुछ कर सकना तो दूर उस सम्बन्ध में सोचते तक नहीं बन पड़ता। इस प्रकार के संग्रहित वैभव का स्वयं तो उपभोग कर नहीं सकते। उसका लाभ उत्तराधिकारी उठाते हैं और मुफ्त में मिले बिना परिश्रम से कमाये धन को आँख मूँदकर खर्च करते हैं। फलतः बदले में उनके गले दुष्प्रवृत्तियाँ बंधती हैं और व्यक्तित्व का विकास रुकता है।

ऐसी-ऐसी अनेकों हेय परिणतियों का ध्यान रहते हुए महत्वाकांक्षाओं के परित्याग की बात कही गई है। पर उस कथन के साथ दो बातें जोड़ देने की भूल बन पड़ी है। एक तो यह कहना चाहिए या कि भौतिक कामनाओं को घटाया जाय और उस बचत को परमार्थ प्रयोजनों में उससे भी अधिक तत्परता के साथ नियोजित किया जाय। पूरी बात इतना स्पष्टीकरण करने के उपरान्त ही बन पड़ती है। अन्यथा कामना त्याग का अर्थ निष्क्रियता, नीरसता, अकर्मण्यता, उदासीनता जैसा ही कुछ बन पड़ता है। लोग उच्चस्तरीय आकाँक्षाओं को भी त्याग मान बैठते हैं और मानसिक अपंगता की स्थिति में लेजाकर पटक देते हैं।

इच्छा शक्ति की महत्ता का वर्णन करते-करते मनोविज्ञान थकता नहीं है। वह कहता है कि बिखरी शक्तियों का केन्द्रीकरण करने और प्रतिभा को विकसित करना ही सफलता का मूल मन्त्र है। सफलताएँ उसी आधार पर मिलती हैं। उदासीन मन वाला व्यक्ति तो ज्यों-त्यों करके अपने दिन ही गुजार सकता है कोई बड़ा काम कर सकने की पृष्ठभूमि तक नहीं बन पाती। ऐसी दशा में तत्वज्ञान द्वारा प्रतिपादित अनासक्ति का तात्पर्य यदि शब्दार्थ मात्र तक समझ बैठा जाय तो वह उपदेश जीवन की गतिशीलता अवरुद्ध कर देने वाला अभिशाप बनकर ही रह जाता है।

इसी कथन का एक पक्ष यह भी है कि फलासक्ति छोड़कर निष्काम कर्म करना चाहिए इसकी विद्वजन कैसी ही मनोरम व्याख्या क्यों न करें, पर वह व्यावहारिकता की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। कोई भी समझदार व्यक्ति किसी काम में हाथ तब डालता है जब उसके आकर्षक प्रतिफल की सम्भावना का अनेकानेक तर्कों, तथ्यों, प्रमाणों, उदाहरणों के कहारे परिणाम के सम्बन्ध में किसी सुनिश्चित प्रतिफल की बात पर विश्वास कर लेता है। इसके बिना कोई अपनी पूँजी, श्रम शक्ति और प्रतिष्ठा को दाँव पर नहीं लगा सकता। यह सामान्य व्यावहारिकता है। इसका परित्याग करना किसी परमहंस के लिए ही सम्भव हो सकता है। अथवा उस श्रमिक के लिए सम्भव है जिसका वेतन पाने के अतिरिक्त नफा-नुकसान से कोई सम्बन्ध नहीं है। इस स्थिति वाले भी यह परख लेते हैं कि वेतन उपयुक्त है या नहीं। वह यथा समय वसूल होता रहेगा। साथ ही यह भी विचारा जाता है कि कोई जोखिम भरा काम तो नहीं करना पड़ेगा जिसमें लेने के देने पड़ें। परिणाम सोचे बिना कोई भी व्यक्ति किसी काम में हाथ नहीं डालता। इस सर्वमान्य और सही प्रचलन को झुठलाने में विद्या व्यसनी लोग कुछ भी कहते रहें पर उनकी मधुर वार्तालाप सुनकर भी कोई श्रवण कर्ता ऐसा नहीं हो सकता जा उस कथन को अपने जीवन क्रम में सम्मिलित कर सके। बात जब गले उतरने वाली ही नहीं है तो उसे सच्चे मन से अपनाना किसके लिए किस प्रकार सम्भव हो सकता है।

योगी जन भी ऋद्धि-सिद्धि, स्वर्ग-मुक्ति, ईश्वर सान्निध्य, जन्म-मरण से छुटकारा, मन प्रतिष्ठा जैसी अनेक मनोकामनाओं से प्रभावित होकर ही वैराग्य, तप, योग आदि की दिशा में कदम उठाते हैं। सामान्य जनों में किसान, व्यवसायी, कर्मचारी यहाँ तक कि चोर-उचक्के तक पहले लाभ उठाने वाले पक्ष को देखते हैं। भले ही उनके बाद कुछ भी क्यों न परिणाम हाथ न लगे।

‘कर्मफल का त्याग’ का शब्दार्थ और उसकी मोटी व्याख्या दोनों ही ऐसी है जिन्हें असंगत और अव्यावहारिक कहने में कोई अत्युक्ति नहीं है।

इस कथन का और भी अधिक स्पष्टीकरण आवश्यक है। कहा यह जाना चाहिए कि उद्देश्य और प्रतिफल के सम्बन्ध में विचारपूर्वक धारणा बनाने और कार्यारंभ करने के साथ-साथ मनुष्य को प्रतिफल के सम्बन्ध में इतना निश्चिन्त नहीं होना चाहिए कि जो चाहा गया है वह यथावत उपलब्ध होकर ही रहेगा, क्योंकि मनुष्य का एकाकी पुरुषार्थ ही सब कुछ नहीं है। परिस्थितियों की भी उसमें भारी भूमिका रहती है। वे प्रतिकूल चल पड़े तो सोची हुई योजना उलटी भी हो सकती है। किसान खेती करता है पर यह भी हो सकता है कि वर्षा का अभाव, बाढ़, टिड्डी, पाला, फसल के रोग, चोरी आदि किसी प्रतिकूलता से पाला पड़े और परिश्रम निष्फल चला जाय। इसी प्रकार व्यवसाय में मन्दी, प्रतिस्पर्धा, ग्राहकों की कमी, चोरी आदि के कारण उलटा घाटा भुगतना पड़े। ऐसी दशा में एकाँगी चिन्तन करने वाले अपना मानसिक सन्तुलन गँवा बैठते हैं और भविष्य के लिए निराश हो बैठते हैं। ऐसी स्थिति में होना यह चाहिए कि बुरी से बुरी परिस्थिति आ धमकने पर भी उसका सामना करने के लिए तैयार रहा जाय।

इस तैयारी में वाहन प्रयास उतने कारगर सिद्ध नहीं होते जितनी कि मानसिक पूर्व तैयारी। ऐसी दशा में किसी आकस्मिक झटके की आशंका नहीं रहती। सतर्कता में भी कमी नहीं पड़ती। हानि की जो सम्भावना है उनके सम्बन्ध में समुचित सावधानी बरती जाती है। अन्यथा सफलता या असफलता का एकाँगी चिन्तन करने वाले अथवा उदासीन रहने वाले को अपनी ही बौद्धिक भ्रम ग्रस्तता के कारण ऐसी जोखिम उठानी पड़ सकती है जिसमें कि वह हर्ष-विषाद की दोनों ही परिस्थितियों में अपना सन्तुलन गँवा बैठे और भविष्य में कुछ करने का साहस ही न करे।

“कर्मफल का त्याग” इसी तत्व दर्शन का समग्र रूप है। जो उससे प्रभावित हों, वे उसका तात्विक अभिप्राय भी समझकर चलें, तभी वह दार्शनिक प्रतिपादन वैसा उपयोगी सिद्ध हो सकेगा, जैसा कि उसके माहात्म्य में बताया जाता है।


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