जापान में बौद्ध धर्म के सभी ग्रन्थों का अनुवाद एवं प्रकाशन होना था। लागत करीब तीन हजार आँकी गई। कार्य एक वृद्ध सन्त ने अपने जिम्मे लिया और जन-जन से याचना करके वह रकम पूरी कर ली।
जैसे ही अनुवाद प्रकाशन का कार्य हाथ में लिया गया, वैसे ही जापान में भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा। हजारों व्यक्ति भूखों मरने लगे। सन्त ने वह जमा राशि दुर्भिक्ष पीड़ितों के सहायता कार्य में लगा दी। ग्रन्थ का कार्य रोक दिया गया। अच्छा समय आया, तो धन एकत्र करने का कार्य दुबारा शुरू किया गया। धीरे-धीरे फिर तीन हजार इकट्ठे होने लगे।
इस बार भयंकर बाढ़ आ गयी। खेत खलिहान सभी बह गए। किसानों के झोंपड़े भी। सैकड़ों के मरने की खबर मिलने लगी। सन्त ने जमा राशि की बाढ़ पीड़ितों के लिए लगा दिया।
बाढ़ का आतंक चले जाने पर सन्त ने फिर चन्दा जमा करना शुरू किया। तीन बार राशि संग्रह करने में दस वर्ष लगे।
तीसरी बार के धन से ग्रन्थ प्रकाशन कार्य आरम्भ हुआ और वह यथा समय पूरा हो गया। पहली बार सन्त 60 वर्ष के थे, दूसरी बार 70 वर्ष के, और तीसरी बार 80 वर्ष के।
ग्रन्थ छपे तो उन पर तीसरी संस्करण छापा गया। दो पिछले संस्करण कहाँ गये। इसकी सफाई देते हुए भूमिका में लिखा गया वे दुर्भिक्ष पीड़ितों और बाढ़ पीड़ितों की सहायता के रूप में समझे जाने चाहिए।
ग्रन्थ प्रकाशन की तुलना में मनुष्य की जान बचाना दोनों बार अधिक आवश्यक और उत्तम समझा गया।
परमात्मा की प्रसन्नता का आधार यही परमार्थ परायणता है, दम्भ प्रदर्शन नहीं। उससे तो उल्टे उनको कष्ट ही होता है।